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चतुर्थः परिच्छेदः। पित्रादीना वचने निदेशे निधास्तत्पराः के दु:खितां यान्ति । न केऽपौत्यर्थः। कीदृशाः । धर्माधर्मविदः पुण्यपः पश्यक्तिशातारः साधूनां य: पक्षपातः पक्षस्वीकारस्तत्र समुमताः भासक्ताः । वानपदादिन्दुध्युतकं वचन इति ॥ ११ ॥
इस रलोक के दो अर्थ हो सकते हैं-एक 'वचने' से और दूसरा 'वाने से। 'वजने' शब्द के अनुस्वार को हटा देने से नबीम अर्थ की उभावना में ही 'चित्र' है। 'वखने शब्द से इस श्लोक का यह अर्थ होगा___धर्म को अधर्म समझने वाले, सज्जनों के सत्कर्म को नष्ट करने के लिये उग्रत और गुरुपनों के प्रवचन में सतत लगे रहनेवाले मनुष्य दुख का भोग करते हुए नरक के भागी होते हैं। 'वचम' शब्द से इस प्रकार अर्थ होगा--
हे मनुष्य ! धर्माधर्म का विवेक रखने वाले, मजनों के पक्ष को ग्रहण करने नो तथा गुपनों के
करने वाले कौन सत्पुरुष दुभत्र के मागी होते हैं। कोई नहीं ॥
ककाकुकङ्कके काङ्कफेकिकोकैककु: ककः ।
अकुकौकाकाककाकऋकाकुकुककाककुः ।। १२॥ ककाकु इत्येष इलोक एकव्यसनो नैमिनिर्वाणमाकान्ये राजीमतीपरित्यागाधिकार समुद्रवर्णनरूपो शेयः तथा कयाः समृद्रो वर्तने । केन अलेनोपलक्षितः को वायुर्यत्र स ककः । यदा केन वायुना प्रेरितं के जल यत्र स ककः । अथवा कमेव कमारमा यस्य म ककः । समुद्रः कीदृशः। ककाकुकर का कैदिकोकैकाः। के एल यया मत्ति काकुर्वनिषा ते ककायवः । अथवा केन सुखेन जलेन वा काकयो ध्वनिविशेषा येत्रों से ककाकवः । ककावरी का। कड़ा जलपक्षिणः। तथा केका केकारबोधिज्ञ येशे ते केकामाः केकिनो मयुराः I तथा कोकाशकवाकाः। कार्य निथो मेलकः । ककाकुका: केकासकेकिनः कोका पञ्जका अद्वितीया कमियम्य स तथा । तथा-अकुकौक-काककाकः । कवः कुत्सिताः न कत्रोऽभवः शोभनाः कौकसो जलवासिनः काका: 1 शोभनजलवायसा इत्यर्थः । तेषां समूह काकं काकमेव कारकम् । स्वाय धाः। तस्य भका मारा यः समुद्रः स एव पालकत्वान्माला । तथा-काकुकुकवावकः । ऋचो वेदवाक्यानि तेषी काकवी वक्रोक्तयस्ता कुक प्रचारक को प्रक्षा सो उत्सर यस्यासौ अर्थादेव विष्णुस्तस्य कु. स्थान समुदः । जलायनवादस्पेनि ॥ १२ ॥
इस सागर में एकमात्र सुखकारी ध्वनि को अस्पन्न करनेवाले 'क' नामक पचिविशेष तथा 'केका' नामक ध्वनिविवोष से पहिचाने जानेवाले मोर और चक्रवाक पची रहते हैं। और ग्रह समुन उन विष्णु भगवान् का निवास स्थान