________________
}
चतुर्थः परिच्छेदः ।
६५
यद्यस्मात्कारणाद्द्विजेशी विश्वन्दो वा मधुपैभवपैमरेश्व चुम्ध्यमानां कैरविण कुसु दिनी करालैः विध्यति । श्लेषालङ्कारः । एषा द्वितीया वैदर्भी रीतिः ॥ १५१ ॥
ब्राह्मण लोग स्वभाव से ही चंचल होते हैं - यह लोकोकि तनिक भी मिध्या नहीं है। क्योंकि देखो ! यह चन्द्रमा (अथवा ब्राह्मणों में श्रे व्यक्ति ) भ्रमरों ( अथवा मदिरापान करने वालों) के द्वारा सुम्बितकुमुदिनी ('भैरव' जाति की किसी सुन्दरी ) का किरणों ( अथवा हाथ ) से स्पर्श ( अथवा आलिम ) कर रहा है ।
टिप्पणी- इस श्लोक में या तो समस्त पद है ही नहीं अथवा अत्यन्त अप समास है। यह एतिकार है ॥१५५॥
उपसंहारमाद
अर्थेन येनाति चमत्करोति प्रायः कवित्वं कृतिनां मनःसु । अलक्रियात्वेन स एव तस्मिन्नभ्यूह्यतां हन्त दिशानयैव ॥ १५२ ॥ कृतिनां मनःसु येनार्थेन कवित्वमतिचमत्करोति अविचमत्कार मुत्पादयति । हन्त इति विचारे । स वास्तस्मिन्कवित्वेऽनयैव पूर्वोक्तदिशा क्रियात्वेनालङ्कारत्वेनाभ्यातां विचार्यताम् । समाप्ता रीतयः ।। १५२ ॥
इति वाग्भट कारटी कार्या चतुर्थः परिच्छेदः ।
दैलखन
काव्य-कला-मशों के मन में जिस अर्थ के कारण काव्य प्रायः अत्यन्त वष्कार को उत्पन करता है, उस ( काव्य ) में उस ( अर्थ ) को ही मेरे द्वारा बति रीति से अलङ्काररूप में समझना चाहिये ॥ १५१ ॥
परिच्छेद समाप्त
७ वा० नं०