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वाग्मटानकारः। रे बालक ! ते मंशा के पकने से शरीर मा यो मेगी जिससे महान भमर्थ हो जायगा । अतः तू सुपचाप बैठ ।
टिप्पणी–वास्थति' और 'भवति' पद क्रमशः दोनों पायों में साथ साय तो आवृत्त हुए ही हैं, इसके अतिरिफ प्रथम पाव में 'कोप' शब्द से ज्यवछिका 'दास्यति' और द्वितीय पाद में 'अनर्थो शब्द से व्यवच्छिन्न 'भवति' पारूद की भी आवृत्ति हुई है। अतः यहाँ एक ही पत्र में संयुतातिमूलक और भयुतावृतिमूलक पाद के भादि में पदयमक का उदाहरण है ॥ ५२ ।।
कुलं तिमिभयादन्न करेणूनां न दीव्यति ।
नदीव्यति करेणूनां प्राणिनांगणनापि का ॥४३॥ अत्र नदीसमीये करेणूना कुलं निमिभयान्मत्स्यमयान्न हौव्यति न क्रीडति । अणूनां सूक्ष्माण प्राणिना गणनापि का ॥ ४३ ॥ - नदी के सनम में बड़े-बड़े मत्स्यों के भय के कारण हस्तिसमूह भी क्रीद्धा नहीं कर सकता है तो भला ब जन्तुओं की गणना ही क्या ।
टिप्पणी-द्वितीय पादात 'म दीव्यति' और 'करेणूना' पनों की आवृत्ति तृतीय पाद में भी हुई है। अतः यहाँ संयुतावृत्तिमूलक पादमध्यगत पदयमक माना गया है ।। ५३ ।। इदानीं वर्णावृत्तिरुदाहियते
गङ्गाम्बुधवलाङ्गाभो मुमुक्षुध्यानतत्परः ।
पापातिहरणायास्तु स सानोजिनः सताम्।। ४४ ।। __गाजलबवला अगस्यामा कान्तिर्यस्य स तथा । मुमुक्षूणां ध्यानस्य गोचरः। अत्र पादे पादे श्रादौ वार्गद्वयत्यसादृश्याद्वर्णयगकमुच्यते ॥ ४४ ॥
गङ्गाजल के समान धवल अंग से शोभित, मोचार्थियों के ध्यान में आने वाले, सद्ज्ञान से युक्त जिन भगवान् सजनों के पाप और क्लेशा के निवारण करने वाले हैं।
टिप्पणी-'गां गां', 'मुमु' और 'सस' वर्णो की भावृति से यहाँ 'वर्णयमको माना गया है ॥ ३४॥ असंयुतायत्तौ वर्णयमकमा
जगदात्मकीर्तिशुभ्रं जनयनुरामधामदोःपरिषः ।
जयति प्रतापवूषा जयसिंहः इमाभृदधिनाथः ।। ४५।। उद्दामावनिवारौ धाम तेजस्सयुक्तौ मुजरूपो परिधी यस्य सः1 अधिको नाथोऽधिनाथः । अत्र प्रतिपादं जम्रहणादयुतावृत्ती यमकम् । वर्णान्तिः पूर्वबझेदा द्रष्टच्याः ॥ ४५ ॥