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वाग्भटालाकार। विजया ने पार्वती से कहा- हे पात्रंति ! अपने स्वामी का नाम बताओ, नहीं तो में तुम्ह लीलालटून पार्वती ने सर दिया-'यश्चमुख, मेरे स्वामी शिव-शकर हैं। विजया ने श्लेष से 'शिव' शब्द का अर्थ शृगाल किया और पूछने लगी 'री सरिय! क्या तेरा पति भगाल है ! भोरट्टी-माली पार्वती ने अपने भाव को और स्पष्ट करने के लिये कहा--'नहीं सखि ! मेरे पनि स्थाणु (शिव) हैं।' सनल विजया ने पुनः श्लेष से 'स्थाणु' का अर्थ ट किया और आश्चर्य से कहने लगी---श्री सखि ? तू क्या कहती हैं, वेगपति ट्रैठ है ?' इस पर गौरी लाजत हो गयी। उसने शिव का अधिक स्टोकप्रचलिन नाम 'पशुपनि लेकर कहा'मेरा तात्पर्य है पशुपति शिव से। लेकिन क्रीडा में पत्री हुयी विजया को सन्तोष कहाँ ? उसने कहा-'अच्छा, मो तुम्हारा पनि ग्वाला है ! इस प्रकार हिंडोला मलने के समय कहे गये विजया और गोरी पार्वती के वचन तुम लोगों की रक्षा करें।
टिप्पणी-इस श्लोक में श्लेष के आश्रय से 'शिव', 'स्थाणु' और 'पशुपति' शदों का अर्थ शृगाल, देह और ग्वाला किया गया है। अतः यह अभङ्गश्लेष कर उदाहरण हुमा ॥ १६ ॥ अनुप्रालमा
तुल्यश्रुत्यक्षरावृनिरनुप्रासः स्फुरद्गुणः ।
अतत्पदास्याच्छेकानां लाटानां तत्पदश्च सः ॥ १७ ॥ तुल्या समाना श्रुतिः श्रवणं येषामक्षराण तानि तुल्यअत्यक्षराणि तेषामाकृतिः पुनः पुनरूपावानमनुप्रासः कथ्यते । कीमशः। स्फुरद गुमः स्फुरन्तो बाधिता औदार्यादयो गुणा येन स तथा । सोऽनुप्रासो द्विश-छेकानुनासो हाटानुपासी । का विदग्धाः कजनवलमत्वाच्छेकानुप्रासः 1 लाटजनवलभल्लाछाटानभासः। तथा कानामनुप्रासो-जल्पदः । सान्येव पदानि यत्र तत्पदः न तत्पदोनपदः । अन्यैरन्यैः पदै गत्पन इत्यर्थः । लाटानी तत्पदसौस्तैरेव पनिष्पन्न प्रत्यर्थः ॥ १७ ॥
समान सुनाई देनेवाले अक्षरों की बार बार धावृत्ति हो और माधुर्यादि गणों की स्फुरणा हो तो भनुप्रास' समझना चाहिये । अनुमास दो प्रकार का होता है'छेकानुप्रास', जिसमें केवल एक वर्ण काही प्राप्ति होती है और 'लाटानुप्रास', जिसमें सम्पूर्ण पद की पुनरावृत्ति होती है । १७ ॥ ठेकानुप्रासोदाहरणमाह
अलं कलकनार करप्रसरहेलया | चन्द्र 'चएडीशनिर्माल्यमसि न स्पर्शमसि ।।१०।।