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पचमः परिच्छेदः ।
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'अनुकूल' नायक बद्द है जो किसी अन्य स्त्री में आसक न हो वरन् जिसका अपनी स्त्री में अनुराग 'नील' के सम्मान पक्षा हो । जो नायक अन्य स्त्री में आसक होने पर भी अपनी स्त्री के प्रति प्रेम में विकार नहीं उत्पन्न होने देता उसे 'दक्षिण' नायक कहते हैं ॥। ९ ॥
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प्रियं वत्यप्रियं तस्याः कुर्वन्यो विकृतः शठः ।
धृष्टो ज्ञातापराधोऽपि न विलम्ोऽवमानितः ।। १० ।।
तथा यो विकृतो विकार मापन्नस्तस्याः स्वपल्या अप्रियं कुर्वन् प्रियं वक्ति सठनायकः । यो तापि विलक्षो न भवति स धृष्टनायकः ॥ २० ॥
ओ परोश में सो अपनी स्त्री का अहित करता हो किन्तु उसके सामने पड़ते ही ( उसे दिखाने के विकार उत्पक्ष न होने शंकर मीठी मीठी (बनावटी) बातें करता है उसे 'शट' नायक कहते हैं। और 'ट' नायक वह है जो ( परस्त्रीगममरूप ) अपराध प्रकट हो जाने से अपनी स्त्री के द्वारा अपमानित होने पर भी सृजित नहीं होता ॥ १० ॥
अथ सामान्येन चतुविधा स्त्रियमभिषते - यथा काररसस्य नामको युवा पुमान्प्राकथितस्तस्य नायकस्य पुरुषरूपस्य नायिकापि चतुर्विधा भवति । सामाद
अनूढा च स्वकीया च परकीया पणाङ्गना ।
त्रिणिः स्वकीया स्यादन्याः केवलकामिनः ।। ११ ।।
त्रियश्चतुर्विधाः । अनूदा स्वकीया परकीया पथ्याना च । श्रवर्गिणो धर्मार्थकामयुतस्य स्वकीया परिणीता स्वात् । भन्या समूहाचास्तिस्रः कामिनी भवन्ति ॥ ११ ॥
नायिका चार प्रकार की कही गई है--अनूखा, स्वकीया, परकीया और पराङ्गना । इसमें जो स्वकीया नायिका है वह उस नायक की होती है जो धर्म, अर्थ और काम की इच्छा रखता है; और जो केवल कामी नायक होते हैं उनके हि अम्ब (अनूढा, परकीया और पराङ्गना ) नायिका हैं ॥ ११ ॥
आसां खक्षणमाह
अनुरकानुरक्तेन स्वयं या स्वीकृता भवेत् । सानूदेति यथा राज्ञो दुष्यन्तस्य शकुन्तला ॥। १२ ।
अनुरक्तेन नरेणानुरक्ता सती या स्वीकृता भवति सानूढोच्यते । यथा- दुष्यन्तस्य रामः शकुन्तला नायिका ॥ १२ ॥
शो ( अविवाहिता) अनुरका नापिका किसी आसक नायक के द्वारा (बिना गुरुजनों की आशा के ) स्वयं ही स्वीकार कर की जाय, उसे 'अनुता' नायिका कहते हैं । जिस प्रकार राजा दुष्यन्त की नायिका वाकुन्तका श्री ॥ १२ ॥