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वाग्मधामकारः।
___ यत्र प्रये उत्तरं ध्यान गुह वापि । अथवा भर्य व्यकगूदात्मकन् । एतर प्रभोधरं ज्ञेयम् । यत्र यभोक्तानां शपदार्शनामसहाराणापुकानामेकत्र एकण्याविसंसों मणनं स मसिकारः॥ १४३॥
जिस अलकार में किसी प्रश्न का उभार व्यक्त रूप से, समय रूप से यश सयकाम्यक्त रूप से रहता है, उसे 'प्रश्नोत्तर' कहते हैं। और जहाँ उपयुक्त अलकारों का सम्मिश्रण होता है वहाँ 'संकर' नामक अलार समझना चाहिये ।। १५३ ॥ प्रश्नोत्तरीदाहरणमाए
अस्मिन्नपारसंसारसागरे मञ्जतां सताम् ।
किं समालम्बनं साधो रागद्वेषपरिक्षयः ॥ १४४ ॥ हे साधी, अस्मित्रपारसंसारसागरे निमन्जता समालम्बनं किमिति प्रश्ने व्यक्तमुत्तरम् - रागद्वेषपरिक्षयः । एष व्यक्तप्रश्नोत्तरालम्कारः ॥ १४४ ॥
हे महारान् ! हम पार संसार-सागर में बने माझे सजनों को कौन-सा श्राध्य है रमादेषावि का नाश ही उनके लिए एकमात्र सक्काम है। __ टिप्पणी- यहाँ पर एक ही लोक में प्रभ और उसका उसर स्पष्ट है। अतः यह म्यक उसर वाला 'प्रश्नोत्तर' बार है १११ ॥
क वसन्ति श्रियो नित्यं भूभृतां वद कोविद ।
असापतिशयः कोऽपि यदुक्तमपि नोझते ॥ १४५ ।। हे कोविद, यद भूभृतां राजा श्रियो नित्यं क वसन्ति । असौ अविशयः कोऽपि यत् वक्तमपि न जायते । मसौ.सहगे-त्युत्तरम् । एष गूदमश्नोतरालकारः ॥ १४ ॥
हे विकून् ! पतामो छो राजा की छमी सदैव कहाँ रहती है। यह (मसौ) प्रभाबका कठिन है जो शमा मिलने पर भी समान में नहीं पाता।
टिप्पणी-यहाँ भली' का है 'पह' और 'तलवार में' (ससि सम्ब से ससमी विमकि कंगने पर 'सौ' रूप बनता)। उपर देने माने पति का सारपर्य है कि राजाभी की लपी तलवार में रहती है। किन्तु 'असी' सम्व का 'यह' अर्थ निकलने से उत्तर सन्दिग्ध ही रहता है। अतः यह गूगप्रश्नयुक "प्रभोत्तर' बलहार है। ११५॥
किमै माध्यमाख्याति पक्षिणं कः कुतो यशः ।
गरुडः कीदृशो नित्यं शनषारिपिराजितः ।। १४६ ।। ऐभ साम्यं किम्, दानवारि मदमलम् । पक्षिण समास्याति, पिछी । वशः कुतो भवति, भाजितः संग्रामात । गतो निस्म कीपूरमति, कानबारिविराजितो वानवारिसदेयस्तेन विराजित मोमितः । मन्त्र-प्रागारमारवाकरमसूदल्यातपोतराजकारः।।१४६॥