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चतुर्थः परिछेदः ।
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नशोभाहरणेन सापराधानि कमलानि कि क्षणोति सङ्कोचयति । अन्योऽपि सेवको निजाधिएतेरपराधकारिणमन्यं शृती सत्यां न सहत इत्यर्थः । एष वर्तमानानुमानालङ्कारो शारयः ॥ १४०||
इस (नायिका) की मुख-कान्ति से पराजित होकर चन्द्रमा ने इस (नायिका) की दासता को स्वीकार कर लिया है। यदि ऐसा न होता तो यह चन्द्रमा गायिका के नेत्रों की आभा को चुरा लेने वाले अपराधो कमलों को क्यों दण्ड देता (सुरक्षा देता ) ! (स्वामी के प्रति किये गये अपराध का प्रतीकार तो केवल उसका सेवक. ही करता है, अन्य व्यकि नहीं । )
टिप्पण – यहाँ *मों को सुरक्षा देने के कारण वर्तमान में होने वाली चन्द्रमा की दासता का बोध होने से 'अनुमान' अक्कार है | १४० ॥
अथ परिसंख्यामाद-
यत्र साधारणं किञ्चिदेकत्र प्रतिपाद्यत । अन्यत्र तन्निवृत्त्यै सा परिसयोच्यते यथा ॥
१४१ ॥
यत्र कवि
किचित्साधारणं वस्तु एकत्र तत्रिवृत्त्यै प्रतिपश्यते । यद्वस्तु एकत्र एकस्मिन्स्थाने भवति अन्यत्र तनिवृतिर्भवति सा परिसंख्या समुच्यते ॥ १४१
जिस अलवार में किसी साधारण वस्तु का एक स्थान के अतिरिक्त अन्य 1. स्थानों में निषेध करने के लिये उसी ( एक स्थान ) में हां वर्णन किया जाता है उसको बुद्धिमान् छा 'परिसंख्या' कहते हैं ।। १४१ ॥
परिसख्या मुंशीत-
यत्र वायुः परं चौरः पौरसौरभसम्पदाम् । युवानश्च कृतक्रोधादेव बिभ्युर्वधूजनात् ।। १४२ ।।
यत्र पुरे वायुः परं केवल पौरसौरभसम्पदां चौरः । अन्यत्र चौरिका नास्ति । यत्रं युवानः कृतरोषाद्वघूमनाद्विभ्युः । नान्यत्र भयं कस्यापीस्वर्थः ॥ १४२ ॥
जिस नगर में महलों में रहने वाली कामिनियों ) की सुगन्धि को अपहरण फरने वाला एकमात्र वायु ही चोर है ( और कोई भी मक्ति चोरी नहीं करता ) उस नगर के निवासी केवल कोधित हुई रमणियों से ही भयभीत होकर ( और राज, चोराद से निर्भीक होकर ) रहते हैं
टिप्पणी- यहाँ पर चौरकर्म को सभी स्थानों से हटाकर वायु में और भय को यात्रादि से दूर करके केवळ रमणियों में बतलाने से 'परिसंक्या' अलङ्कार है ॥ १४२ अथ प्रश्नोत्तरालङ्कार सङ्करोदाहरणं चाइ----
प्र यत्रोत्तरं व्यक्तं गूढं वाप्यथवोभयम् ।
प्रश्नोत्तरं तथोक्तानां संसर्गः सङ्करं विदुः ।। १४३ ।।