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चतुर्थः परिषदः ।
संप्रत्युपमामाइ
उपमानेन सादृश्यमुपमेयस्य यत्र सा ।
प्रत्ययाव्ययतुल्यार्थसमासैरुपमा मता ॥ ५० ॥ यत्रोपमेयस्य मुख्यवस्तुनोपमानेन पृष्टान्सेन साइइयं समानता। सादृश्य दियाअभिधीयमानं प्रतीयमानं च । सा प्रत्ययाव्ययतुल्यार्थसमासर्वक्ष्यमा0रुपमोक्ता विशेषामुपादानाद ॥ ५० ॥
जहाँ 'सि' आदि प्रत्यय, 'इव' आदि अव्यय, 'तुल्य' मादि शब्द और 'कर्मधारय' आदि समासों के प्रयोग से प्रस्तुत (उपमान) के साथ प्रस्तुत (उपमेय) में साइश्य दिखाया जाता है वहाँ उपमालंकार होता है।
टिप्पणी-साधारणतया उपमा में 'उपमेय', 'उपमान', 'उपमावाचक शब्द और 'समानधर्म ये चार अङ्ग होते हैं। जिस उपमा में ये चारों अङ्ग उपस्थित रहते हैं, उसे 'पूर्णोपमा' कहते हैं और जिसमें उपर्युक 'धार पलों में से किसी एक अथवा एक से अधिक श्रमों का लोप रहता है उसे 'लप्तोपमा' कहते हैं ॥ ५० ॥ वाभिधीयमानसादृदये उदाहरणमाइ--- गत्या विभ्रममन्दया प्रतिपदं या राजहंसायते
यस्याः पूर्णमृगाकमण्डलमिव श्रीमत्सदेवाननम् । यस्याश्चानुकरोति नेत्रयुगल नीलोत्पलानि श्रिया
तां कुन्दाईदती त्यजक्षिनपतीराजीमती पातु वः ।। ५१ ।। या राजीमती बिभ्रममन्दया गत्या प्रतिपद राजहस वाचरांते राजहंसायते । अत्र प्रत्यथैनोपमा। यस्या माननं पूर्णमृगाङ्कमण्डलमित्र श्रीमत् । श्रीलंक्ष्मीः शोभा वा। मंत्रबशब्देनाव्ययेनोपमा । यस्या राजीमत्या नेत्रदयं श्रिया नीलोत्पलान्यनुकरोति। अत्रानुकरोतिक्रियातुक्ष्यार्थवाचिका ततस्तुस्यार्थेनोपमा था 1 कुन्दानदन्ति कुन्दाहाँ दन्ता यस्या सा तो कुन्दादतीम् । कुन्दसमानर नामित्यर्थः । अत्र बानीहिंसमासेनोरमा । मन्त्र प्रत्ययाव्ययतुल्यार्थभेदैश्चतुर्भेदोपमाया गस्यादिसाइश्यमभिधीयमानमस्ति । नास्ति गम्यं बला. रकारेण किमपि । राजईसाय गत्या, नवयुगलमनुरोति निया, इत्यादिका नानि सर्यापिण काव्यमये पवाभिहितानि सन्तोतीदमभिधीयमानमुच्यते । या कारणाान कान्यमध्ये नोक्तानि, किंतु स्वयमैदानुमानेन शायन्ते तापनीयमान मुच्यने ।। ५१ ॥ __कामातुरा होने के कारण इंस की भाँति मन्द-मन्थर गति से चलने वाली, चन्द्रमा के समान मुख की कान्ति बाली, अपने नेत्रों की शोभा से कमलदलों की शोमा का अनुकरण करने वाली और कुन्दकली के समान दातो चाम्ली राजीमती का त्याग कर देने वाले जिनपति नेमिनाथजी आप लोगों की रचा करें।