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वाग्भटालङ्कारः। टिप्पणी-इस श्लोक के प्रथम परण में राजीमती उपमेय, राजहंस उपमान, मंदगति समानधर्म और 'हसायले में जो क्या प्रत्यय है वह उपमावाचक शब्द है क्योंकि 'इना पर प्रत्ययः' इस नियम में क्या प्रत्यय से 'इव' शब्द का बोष होता है। अतएव प्रथम चरण में पूपिमा है। दूसरे चरण में राजीमती का मुख उपमेय, चश्वमण्डल उपमान, 'इ' उपमावाचक शब्द और 'श्रीमत्' समानधर्म है। अतः पाहाँ भी पूर्णीपमा हुई। तृतीय चरण में राजीमसी के नेत्रयुगल उपमेय, नीलकमल उपमान और कान्ति समान धर्म है किन्तु उपमाबाचक शब्द के अभाव में यहाँ लुप्तोपमा है। चतुर्थ चरण में राजीमती के बात उपमेय और कुन्दकली उपमान है। यहाँ पर न तो कोई समान धर्म है और क उपमा-वाचक शब्दही । मतः इस चरण में भी 'लुप्तोपमा है ५५ ॥ प्रतीयमानीदाहरणं यथा
चन्द्रवदनं तस्या नेत्रे नीलोत्पले इय ।
पक्कबिम्ब हसत्योष्ठः पुष्पधन्वधनुर्बुवौ ।। ५२ ॥ यस्या राजीमत्या वदनं चन्द्रभन् । नेत्रे नीलोत्पले इव कर्तेते । ओठः पकविम्ब इसति। यस्या अबौ पुष्पधन्वधनुः पुष्पधन्त्रा कामदेवस्तस्य धनुः । अत्र तावत्केन गुणेन मुखं चन्द्रवत्स गुणो नोक्तः । ओहः पक्वविम्ब केन इसति स गुणः स्वमस्या अबतार्यः। अत एवं सत्प्रतीयमानमुच्यते । अत्र चनुर्पु प्रत्ययान्ययत्तुल्यार्भसमासोपमाः क्रमाज शेयाः । इत्यादि । सर्वत्रावगन्तव्यम् । ५२ ॥
वह रमणी भी कितनी मनोहारिणी है जिसका मुख चन्द्रमा के समान है, जिसके नेत्र नीलकमल के समान हैं, जिसके बोठों का हास पके हुए बिम्ब फल की भाँति लाल है और जिसका भूचाप ! वह तो साक्षात् कामदेव के धनुष की भौति कामियों के हृदय को बेधनेवाला है।
टिपी इस श्लोक के प्रथम दो चरणों में समानधर्म का अभाव है और खाद के दो चरणों में न तो उपमा-वाचक शब्द ही है और न समानधर्म ही अतः यहीं भी 'लप्सोएमा है।। ५२॥
मअभरिअमाणसस्स वि णिचं दोसाअरस्स मणिण च । तुह विरहे तीइ मुहं संकुइ सुहा कुमुअं च ॥ ५३ ।।
मदमरितमानसस्यापि नित्यं दोषाकरस्य शशिन इव ।।
तब विरहे तस्या मुखं संकुचितं सभग कुमुदं च ॥ हे सुभग, तब बिरहे तख्या मुर्ख संकुचितम् । यश-शशिनो विरहे कुमुदं संकोचं भानोति। कीवशस्य दोषाकरस्प । उपयोविशेषणमैतस् । यथा-मदमरितमानसस्यापि ।