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मधुतिमाह
चतुर्थः परिच्छेदः। की ओर भाग जाते हैं और दूसरे (सिंह) से निर्मीक होकर पन में ही निवास करते हैं।
टिप्पणी-महाँ पर उपमेयभूत राजा जयसिंह को उपमानभूत सिंह से अधिक पलशाली बताया गया है। इसीसे इसमें 'स्पतिरेक' मलद्वार है ॥४॥
- नैतदेतांदे ह्येतदित्यपलवपूर्वक
उच्यते यत्र सादृश्यादपद्धतिरियं यथा ॥८५ ।। यत्र सादृश्यात्समानभावानेतद्धि निश्चितमिश्मतादति अपनवपूर्वकम्पलपनपूर्वकमुच्यते। यमप हनिरवगन्तभ्या ॥ ८५।
जहाँ को वस्तुओं में साक्षम्य होने के कारण एक को छिपाकर कहा जाता है कि 'अमुक वस्तु यह (छिपी हुई बस्तु ) नहीं है' अपितु 'यह (जन्य वस्तु) है', वहाँ अपहति' नामक अलङ्कार माना जाता है। ८५॥ उदाहरणमा
नैतन्निशायां शितसूच्यभेद्यमन्धीकृतालोकनमन्धकारम् । निशागमप्रस्थितपञ्चवाणसेनासमुत्थापित एष रेणुः ।।८६ ।। अत्रान्धकारस्यापन विधाय रेणुस्थापना एषा अपहतिः ।। ८६ ॥
यह रात्रि में सीपण सुई से भी अभेध (अर्थात् सघन) और जिसमें कुछ भी दिखाई न दे सके वह अन्धकार नहीं है वरन् रात्रि के आगमन पर भेजी गई पत्रमाग कामदेव की सेना के चलने से उठी हुई धूलिराशि है।
टिप्पणी-यहाँ वारसविक वस्तु (अन्धकार) को छिपाकर उसको समान धर्मवादी कामदेव की सेना के प्रयाण से उठती हुई धूलराशि यताया गया है। अतः यह अपहुति अलङ्कार का उदाहरण हुआ ॥ ८ ॥ तुल्ययोगितालकारमाह
उपमेयं समीकर्तुमुपमानेन योज्यते ।
तुल्यैककालक्रियया यन सा तुल्ययोगिता ॥ ८७ ।। यव तुश्यककालकिययोपमानम सोपमेयं समीकर्तुं योज्यते सा तुस्ययोगिता भवति । तुन्या समाना एककालिकी क्रिया तुल्यककालकिया तया करणभूतया ॥ ८७ ॥
जिस अलङ्कार में एक ही काल में होने वाली क्रिया के द्वारा उपमान के साथ उपमेय का समभाष स्थापित किया जाता है उसको 'तुरुपयोगिता' कहते हैं ।।८७॥ उदाहरणमाह
तमसा लुप्यमानानां लोकऽस्मिन्साधुवम॑नाम। प्रकाशनाय प्रभुता भानोस्तव च दृश्यते ॥१८॥
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