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बाग्भटालाकार।
हे जिन, तमसा पापेन पक्षेऽन्वकारेण जन्यमानानां साधुवममा प्रकाशनाय प्रमुता मास्ति । अश्वा मानोरस्ति। अत्रोपमेयं जिनः । उपमानं मानुः। उपमेयमुपमानेन मुभीक दृश्यते । क्रिया इयोरपि तुरुया एककालिकी च । अब कर्मण्युक्त वर्तमानकालोऽस्ति ।। ८८ 11
इस संसार में अन्धकार किंचा मोह से भारछावित सन्मार्ग किंवा सदाचार को प्रकाशित करने के लिये भगवान् सूर्य और भापका प्रताप ही दिखाई देता है।
टिप्पणी- यहाँ प्रस्तुत (राजा) और अप्रस्तुत (सूर्य) एक समय में एक ही किया का अनुष्ठान कर रहे हैं अतः 'तुझ्ययोगिता' मलङ्कार है ॥ ८८ || उत्प्रवालझारमाह---
कल्पना काचिदौचित्याद्यत्रार्थस्य सतोऽन्यथा ।
योतितेवादिभिः शब्दरुत्प्रेक्षा सा स्मृता यथा ॥८॥ यत्र सतो विद्यमानस्मास्यौचित्यायोग्यत्वादन्या काचिदिवादिमिः शयोतिता कल्पना रचिता सा उत्प्रेक्षा स्मृता ॥ ८९ ॥
प्रस्तुत अर्थ के औचित्य से जिस अलङ्कार में 'इव' इत्यादि अध्ययों के द्वारा किसी अन्य अर्थ की कल्पना की जाती है उसे 'उत्प्रेक्षा' कइसे हैं ।। ८९ ॥ ययुदाहरपामाइ
नमस्तले किंचिदिव प्रविष्टाश्चकाशिरे चन्द्राचिप्ररोहाः । जगदलित्या हसतःप्रमोदाइन्ता इव ध्यान्तनिशाचरस्य ।। ६०!
चन्द्ररूचिपरोहाश्चन्द्रकिरणाकुर । नमस्तले किचिदिवासमात्रं यथा भवति प्रविष्टा रेजिरे नवोदयत्वात् । उदोशत-प्रमोदाजगदलिश्वा इसतो हास्यं कुर्वतो ध्वान्तनिशाचर- . स्यान्धकाररक्षसो दन्ता छ । वादिभिः शम्दैः। अबारिशम्दायथा मन्ये शर्व प्रायो नूनं इत्यादयो प्रायाः । यथा-'जाने शभुवं मन्ये मया खल्ल क्तव वा। नन्विवापीति तु प्राशा उत्प्रेक्षारूपक विदुर । ९०॥
आकाशमण्डल में छाये हुए चम्नकिरणार इस प्रकार प्रतीत हो रहे हैं मानो संसार को घेर कर मानन्द से हसते हुए निशाचरों के दास चमक रहे हों।
पणी-यहाँ चन्द्रकिरणारों की कसपना हंसते हुए मिशाबरों के दाँतों की चमक से की गई है। सतपक्ष यह 'उस्प्रेषा' अस्टकार है।। ९० ॥ अर्थान्तरन्यासालकारमाइ
उक्तसिद्धयर्थमन्यार्थन्यासो व्यातिपुरःसरः ।
कभ्यतेऽर्थान्तरन्यासः श्लिष्टोऽश्लिष्टश्च स द्विधा ।। ६५ ।। ___ यत्र उक्तसिद्धयर्थ व्यामिपुरस्सरीऽन्यान्यासो विधीयते सोऽर्थान्तरन्यासः कश्यते । स दिषा-शिष्टश्चालिष्टश्च । लेषसहितः । श्लेषरहितः ॥ ९ ॥