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वाग्भटालङ्कारः।
जिस अल कार में सरश अथवा असा अर्थ के कारण विवक्षित भ में परिवर्तन हो जाता है, उसे 'परिवृत्ति' कहते हैं ॥ १ ॥
अन्तर्गतव्यालफणामणीनां प्रभाभिरुद्भासितभूषु भर्तः । स्फुरत्प्रदीपानि गृहाणि मुक्त्वा गुहासु शेते त्वदरातिवर्गः॥ ११२॥ .
हे भतः, त्वदरासिवर्गस्तब वैरिसमूहः स्फुरत्नदीपानि गृहणि मुरत्वा गुद्दासु शेते। कोदशी गुहामु । अन्तर्गतव्यालफणामगीना मध्यस्थसफ्फणामणीना प्रभामिरुद्भासितभूमिषु दीप्तभूमि ॥ ११२॥
हे राजन् ! सीपकों से जगमगाते हुए घरों को छोषकर आपके शत्रुगण सर्प के फणों में रहनेवाले मणियों की काम्ति से प्रकाशमान पृथ्वी की फादराओं में पायन करने को भाग जाते हैं।
टिप्पा-दीपो से प्रकाशित घरों को उनके समान सर्प मावि की कान्तियुक कन्वराला में परिवर्तन कर देने से यही साहश्यरूप 'परिवति' लार है॥ अत्रासदृशार्थनाथस्य पराक्तंमाइ--
दत्त्वा प्रहारं रिपुपाथियानां जमाह यः संयति जीवितव्यम् । शृङ्गारभङ्गीं च तदङ्गनानामादाय दुःखानि ददौ सदैव ।। ११३ ।। प्रहारं घरवा जीवितव्य अग्राह' । अत्र दयः प्रहारः, गृहीतं च जीवितव्यम् गृहीत। शृङ्गारमनी, इस च तासा दुःखम् , हत्यसदर्शनार्थनार्थस्य परावर्ती जनितः॥ १६६ ॥
उस (राजा) ने संग्राम में विपक्षी रामानों को प्रहार देकर उनके प्राणों को ले लिया और उन (विपती राजाओं) की रानियों की ऋकारसना को छीन कर सदैव उन्हें दुःख ही दुःख दिया।
टिप्पणी-प्रहार देकर उसके बदले उसके असमान प्रापों को ले लेने और कार-मज्जा को छीन कर उसके स्थान में उससे भिन्न दुखों को देने के वर्णन से यहाँ प्रसारयरूप 'परिसूति अलकार माना गया है॥१३॥ यथासल्यं सक्षयति
यत्रोक्तानां पदार्थानामर्थाः सम्बन्धिनः पुनः ।
क्रमेण तेन बध्यन्ते तयथासङ्घ यमुच्यते ।। ११४ ।। यत्रोक्तानां पदार्थानां सम्बाम्धनोऽथा पुनस्तेन क्रमेण वध्यन्तै योज्यन्ते तर यथासंख्यमुच्यते ॥ ११४॥ :
जिस मलबार में कहे इए पदार्थों से सम्बन्धित अर्थों का फिर उसी क्रमपद जनसे वर्णन होता है उसको 'यथासंभय' कहते हैं ॥ ११५ ।।