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वाग्भटालङ्कारः ।
मध्यपादयमकमाइ -
यशस्ते समुद्रान्सदारोरगारेः । सदा रोरगारेः समानाङ्गकान्तेः ॥ २४ ॥
तथा राजन् सत् शोभनं से यशः समुद्रानारगतम् । कीदृशस्य । उरगारेर्गरुडस्य समानानुकान्तेः 1 स्वर्णवर्णस्येत्यर्थः । सदा शेरगारेः सदा सर्वदा रोरगा दारिद्र्यं यता अरो यस्य तस्य शेरगारे: । 'रोर्ट दारिद्रयमुच्यते । सोमराजी छन्दः || २४ ||
गरुण के सम्मान स्वर्णवर्ण की कान्ति बाके एवं वैरियों को दरिद्र बना देने वाहे आप का सुयश समुद्र तक गमन करने वाला है।
टिप्पणी- यह 'सोलान् है, जिसके में होते हैं । इसमें द्वितीय और तृतीय पार्षो की आवृति से 'संयुता ब्रूसि-मूलक मध्यमपाशुयमक' है ॥ २४ ॥
पादन्तियमकमाइ
द्विषामुद्धतानां निहंसि त्वमिन्द्रः । मुदं भो धरणामुदम्भोधराणाम् ॥ २५ ॥
भो राजन्, 'इन्द्रो धराणां पर्वतानां मुदं इष इन्ति । कीदृशानाम् । उदम्भोधराणाम् ! उदुपरि अम्भोवरा मेघा येषां तेषाम् त्वं त्रवद्धतानां द्विषां मुदं निसि । त्वमिन्द्रश्व समानी एकेनेत्यर्थः । छन्दस्तदेव || २५ ||
हे इन्द्र ! तुम मेघाचदियों से आच्छादित और प्रधानुरूप पर्वतों के हर्ष को नष्ट करने वाले हो ।
टिप्पणी- यह भी 'सोमराजी' छन्द है । इसमें भिवार्य तृतीय और चतुर्थ ( अन्त ) पादों की आवृत्ति है। अतः यह 'संयुता वृत्ति-मूलक अन्तपादयमक' का उदाहरण हुआ ।। २५ ।।
अथादिमध्यगोचर मध्यान्तगोचरं यमकभेकवृतेना
विभाऽतिरामा परमा रणस्य विभाति रामा परमारणस्य ।
सदैव तेऽजोर्जित राजमान सदैवतेजोर्जितराजमान ॥ २६ ॥ पादयेनारिमध्ययमकम् । भोतनपादद्वयेन मध्यान्तममकम् । हे अजोर्जित अजो वासुदेव लिष्ठ हे राजमान शोभमान हे नृप, सदैव तेजो जिंतर राजमान सदैवं कर्मसहितं यस्तेनाजितो राजसु भूपेषु मानो महत्वं येन स तथा तत्सम्बोधनम् । ते तव रणस्थ विभा विभाति । कीदृशी । अतिकान्तो रामो दाशरथिर्यया सा । रामा रम्या परमा प्रहृष्टा कोदृशस्य । परमारग्गस्य शत्रुघातकस्य ॥ २६ ॥
हे विष्णु के समान पराक्रमशाछिन् ! सौभाग्य और तेज से राजाओं के मान को अपहरण करने वाले ! शत्रुसंहारक आपके रण की शोभा ने राम अथवा परशुराम की सेना की शोभा का भी अतिक्रमण कर दिया है; और (सेमा की ) वह ममोहारिणी आभा सर्व शोभित होती रहती है।