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चतुर्थः परिच्छेदः। पदणजर्जरा व अशुभिरे । सरोजन इत्या सरोजशम्मो नपुंसको इश इति स्त्रीलिङ्ग एवं म योपाय ॥ ६ ॥
सरतकाल में प्रामेश के जादा झी पंलिलो रिचर्म की सुन्दरियों का शरीर क्रोधासुर कामदेव के द्वारा छोरे गये पाणों से घायों से बरित-सा प्रतीत हो रहा है।
टिप्पणी-प्राणेश के नखपत की पंकियों सीलिज है किन्तु समका उपमान कामदेव के बाण से जर्जरित शरीर युझिंग । तर यहाँ पर उपमेय और
पमान में लिङ्गभेद होने पर भी दोष नहीं माना जाता क्योंकि यह समस्त पद है ॥ १३॥ भय रूपकालङ्कार उच्यते
रूपकं यत्र साधादर्थयोरभिदा भवेत् ।
समस्तं वासमस्तं था खण्डं वाखण्डमेव वा ।। ६४ ॥ यन्त्र द्वयोरयोः साधात्सादृश्यादमिदा अभेदो भवति सदूपकास्टकारी मवति । तद्रूपक चतुर्क-समस्तं समस्यन्तं ( मानम् ) असमस्तमसमस्यन्त ( मानम् ) खण्डं वा । यद्पर्क
विशेषणेषु खण्डे जायते, तत्खण्डमेव । अखण्डमेव वस्तु रूपके अवतार्यते सरखण्डम् ॥६४॥ ।.. हाँ धर्म-साम्य के कारण उपमेय और उपमान में भेद ही न रह जाप
वहाँ पर 'रूप' अपकार होता है। (उपमेय और उपमान में भेद के मिट जाने से एक का आरोप दूसरे पर किया जाता है। इसीलिये इसे 'रूप' कहते हैं)। रूपक के चार भेद हैं-(.) समासयुक्त, (२) समासरहिस, (३) अपूर्ण मौर () पूर्ण । भपूर्ण को मिरल और पूर्ण को साहरूपक भी कहते हैं । ६३ । अध यथाक्रमनुदाहरणानि यानि । समस्यन्तं ( मान ) रूपकमाहकीर्णान्धकारालकशालमाना निबद्धतारास्थिमणिः कुतोऽपि । निशापिशाची व्यचरदधाना महान्युलूकध्वनिफेत्कृतानि ॥६५॥
निशापिशाची निशंव पिशाची निशापिशाचा महान्ति दलकननिरिकतानि दधाना कुतोऽपि व्यचरत् वितस्तार । उलकवनय एव फेकतानि उलूकध्वनिफेत्कृतानि । कोशी सा। काणे विक्षिसमन्धकार तदेवालकाः कुटिलकेशास्तैः शालमाना शोभमाना। तथानिवशास्तारा एवास्थिमणयो यया सा सथा। अत्र निशापिशाची सलूकध्वनय एव फेल्कतानि कीर्णान्धकारमेवालकास्तारा पवास्यिमणय इत्यर्थयोयोरभेदापक समासकरणासमरपन्त( मान )म् 1 तथा-निशा पिशाचीव असूकध्वनयः फेवतानावत्यादीवश्चदेनापि सावश्यमेव ।। ६५॥
सान अन्धकाररूप केराशि से सुशोभित, मात्ररूप भस्थियों की