Book Title: Stotra Ras Samhita
Author(s): Lalitprabhsagar, Chandraprabhsagar, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Siddhiraj Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KALA स्तोत्र रास संहिता gaurish tosaroka Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता संकलन : मुनि श्री ललितप्रभसागर संशोधन : मुनि श्री चन्द्रप्रभसागर श्री भंवरलाल नाहटा प्रकाशक : सिद्धिराज जैन ९सी, एस्प्लेनेड रो ईस्ट कलकत्ता-६९ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशक: शासन-प्रभावक मुनिराज श्री महिमाप्रभसागर जी महाराज मुद्रक : राज प्रोसेस प्रिंटर्स, ८, ब्रजदुलाल स्ट्रीट कलकत्ता-६ प्रथम संस्करणः ... मार्च १९८६/३३०० प्रतिवा पूर्वस्वर-लेखन : मुनिश्री चन्द्रप्रभसागर मूल्य : निःशुल्क Stotra-Rasa-Sanhita: Muni Lalitaprabh Sagar/Calct 541 Calcutta/1986 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्वर तीर्थङ्कर साधना-पथ के निरतिशय प्रकाश-स्तम्भ हैं । वे वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं, जो मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में अपने-अपने समय में सदाचार का बीज-वपन करते हैं और धर्म तथा नीति का उपदेश देते हैं। नेतिक तथा साधनापरक जीवन के आदर्श पुरुष के रूप में तीर्थङ्करों की स्तुति करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। इनकी स्तुति अथवा भक्ति करने से आत्म-स्वरूप का तथा आत्मनिहित परमात्म-स्थिति का साक्षात्कार होता है । जैसे अजकुल में परिपालित सिहशावक यथार्थ सिंह के दर्शन से अपने सुप्त सिंहत्व को मुखरित कर लेता है, वैसे ही व्यक्ति भगवद्भक्ति या तीर्थकर-स्तुति के द्वारा निज में जिनत्व का अनुसन्धान कर लेता है, आत्मा में समाहित परमात्मा की आमा को प्रकट कर लेता है। परमात्म-स्तुति वस्तुतः आत्म-बोध का माध्यम है। तीर्थङ्कर और सिद्ध भगवान् मात्र साधना के आदर्श और प्रेरणा के सूत्र हैं। उनसे किसी प्रकार की उपलब्धि की अपेक्षा रखना अर्थशून्य है। वे तो मुक्त हैं। दाता और तारक उनके धर्म नहीं हैं। अतः उनकी स्तुति वास्तव में अपनी ही स्तुति एवं अपने ही बोध का साधन है। भगवद्स्तुति के द्वारा कषाय का विसर्जन एवं सद्गुणों का प्रगटन व अभिवर्धन होता है। .. तीर्थङ्करों की स्तुति या पूजा दो रूपों में की जाती है-१. द्रव्य एवं २. भाव । पवित्र वस्तुओं के द्वारा तीर्थङ्कर-बिम्ब की पूजा करना द्रव्य-पूजा है और तीर्थङ्करों - के महान् गुगों का कीर्तन करना भाव-पूजा है। भाव-पूजा सर्वोपरि है । द्रव्य: पूजा में भी भावों की प्रधानता है। गृहस्थ-श्रावक के लिये द्रव्य-पूजा एवं • भाव-पूजा-दोनों करने का विधान है, किन्तु श्रमण-साधकों को केवल भाव-पूजा करने का निर्देश है। स्तोत्र-रास-संहिता' नामक प्रस्तुत पुस्तक में भाव-पूजा से सम्बन्धित यत्र-तत्र - विकीर्ण सामग्री संकलित है। संकलन वृहत्, सार्वभौम, परिशुद्ध एवं सुन्दर हो-ऐसा हमने .' प्रयास किया है । सज्जन-महानुभावों द्वारा इसके नित्य उपयोग करने करवाने में उपदेशक, प्रकाशक, संकलक एवं संशोधक-सभी के श्रम की सार्थकता है। अरिहन्त-तीर्थकर भगवन्तों एवं आदर्श महापुरुषों के प्रति कोटिशः नमन-निवेदन । · २५ फरवरी, १९८६ -चन्द्रप्रभसागर सम्पर्क सूत्र • ९ सी. एस्प्लेनेड रो (ईस्ट) कलकत्ता-६९ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन-सहयोग २५०१) श्री मुकनचन्द जी गोलेछा, फलोदी | बम्बई २५०१) श्रीमती मैनासुन्दरीजी धर्मपत्नी श्री जुगराज जी पारख, कलकत्ता २५०१) श्रीमती पद्माकुमारी जी धर्मपत्नी श्री फतहसिंहजी संकलेचा, कलकत्ता २५०१) श्री दुलीचन्दजी, रतीचन्दजी. गौतमचन्दजी प्रकाशचन्दजी शिखर चंदजी बैद, कटक १५०१) श्री माणकचन्दजी बेगाणी, कलकत्ता १५०१) श्री फतहचन्दजी झंवरलालजी बाँठिया. कलकत्ता ११२५) श्री केशरीचन्दजी, सोहनलालजी सुराणा, कलकत्ता १००१) श्रीमती दयाकंवर बहिन धर्मपत्नी श्री जयंतीलाल माई, कतरास १००१) श्री जैन महिला मण्डल साइन्थिया ५००) श्री माणकचन्दजी जयचन्दलालजी दूगड़, कलकत्ता १५०१) काच का मन्दिर महिला मण्डल, कानपुर । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AURATORE RS मान PER DARKNESS HEAR SON भगवान महावीर H Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ बीकानेर निवासी स्व० जुगराज जी पारख आप धर्मनिष्ठ, उदारमना एवं सेवाभावी व्यक्तित्व के धनी थे, जिस की जैन समाज पर अमिट छाप रही। गरीबों के माता-पिता के रूप में आप प्रतिष्ठित रहे। आपका जन्म १५ अप्रेल १९३३, विवाह २६ मई १९५० एवं देहावसान ५ अक्टूबर १९८२ में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम जेठमल पारख एवं माता का नाम इचरज देवी था। आपकी पत्नी हैं श्रीमती मैनासुन्दरी, सुपुत्र हैं: श्री महेन्द्रकुमार, विनयकुमार, राजेन्द्रकुमार एवं कीर्तिकुमार। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रम || (स्तोत्र) मंगलसूत्र श्री अजितशान्ति स्तोत्र श्री लघु अजितशान्ति स्तोत्र श्री पार्वजिन स्तुति गर्मित णमिऊण स्तोत्र गणधरदेव-स्तुतिरूप तंजयउ-स्तोत्र गुरुपारतंत्र्य-स्तोत्र सिग्घमवहरउ-स्तोत्र तिजयपहुत्त-स्तोत्र वृद्धनवकार-स्तोत्र जयतिहुअण-स्तोत्र दोसावहार-स्तोत्र संतिकर-स्तोत्र चन्द्रप्रभ-स्तोत्र तीर्थमाला स्तोत्र उपसर्गहरं वृहद-स्तोत्र आदिदेव-स्तोत्र महावीर-स्तोत्र भक्तामर स्तोत्र कल्याणमन्दिर-स्तोत्र वृहद् शान्तिः जिनपञ्जर-स्तोत्र श्री ऋषिमण्डल-स्तोत्र लघुजिनसहस्रनाम-स्तोत्र मन्त्राधिराज-स्तोत्र आत्मरक्षा-स्तोत्र Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ii ) ७० ७१ ७४ ७९ ८० ८८.. पंचषष्ठियंत्र गर्भित श्री चतुर्विंशतिजिन स्तोत्र ग्रह शान्ति स्तोत्र मंगल-स्तोत्र महावीराष्टक-स्तोत्र श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ-स्तोत्र श्री पद्मावती अष्टक-स्तोत्र श्री रत्नाकर-पंचविंशतिका-स्तोत्र श्री परमानन्द पंचविंशतिका-स्तोत्र श्री परमात्म द्वात्रिंशिका-स्तोत्र श्री ऋषभदेव-स्तोत्र श्री पार्श्वनाथ-स्तोत्र सर्वजिन-स्तोत्र त्रिकाल चतुर्विंशति जिन-स्तोत्र श्री गौतम स्वामी-स्तोत्र श्री लघुशान्ति-स्तोत्र सोलह सती-स्तोत्र श्री गौतमाष्टकम् श्री जिनदत्तसूरि गुर्वष्टक-स्तोत्र जिनदत्तसूरि अष्टकम् अथ कुशल गुरुदेव-स्तुति कुशलसूरि-गुरोरष्टकम् सरस्वती प्रथम-स्तोत्र सरस्वती-स्तोत्र सरस्वती-स्तोत्र श्री शारदाष्टकम् श्री गुरुस्तोत्रम् श्री गौड़ीपार्श्वनाथ स्तोत्रम् ९८ ९९ १०१ १०२ १०३ १०५ १०६ १०७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( iii ) (रास) ११३ १२१ श्री गोतमस्वामीजी का रास शत्रुजय तीर्थ का रास दादा श्रीजिनदत्तसूरि स्तोत्र श्री दादागुरु गुण इकतीसा १३२ १३३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० पू० शासन - प्रभावक मुनिराज श्री महिमाप्रमसागर जी म० सा० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलसूत्र णमो अरिहंताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ १ ॥ एसो पंचणमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलं ॥२॥ अरिहंता मंगलं । सिद्धा मंगलं । साहू मंगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥ ३ ॥ अरिहंता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा । केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो ॥ ४ ॥ अरिहंते सरणं पव्वज्जामि । सिद्धे सरणं पव्वज्जामि । साहू सरणं पव्वज्जामि । केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि ॥ ५ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता श्री अजित-शान्ति-स्तोत्र अजिअं जिअ-सव्व-भयं, संतिं च पसंत-सव्व-गयपावं । जयगुरु संति गुणकरे, दोवि जिणवरे पणिवयामि ||१|| (गाहा) ववगय-मंगुल-भावे, ते हं विउल-तवणिम्मल-सहावे । णिरुवम-महप्प-भावे, थोसामि सुदिठ्ठसब्भावे ||२|| (गाहा ) सव्व-दुक्ख-प्पर तीणं, सव्व-पावप्पसंतीणं । सया अजिअ-संतीणं, णमो अजिअ-संतीणं ||३|| ( सिलोगो ) अजिअ जिण ! सुहप्पवत्तणं तव पुरिसुत्तम ! णाम-कित्तणं। तह य धिइ-मइ-प्पवत्तणं, तव य जिणुत्तम ! संति ! कित्तणं ॥४|| (मागहिआ) किरिआ-विहिसंचिअ-कम्म-किलेस-विमुक्खयर, अजिअं णिचिअं च गुणेहिं महामुणि-सिद्धिगयं । अजिअस्स य संति महामुणिणो वि अ संतिकरं, सययं मम णिव्वुइ-कारणयं च णमंसणयं ॥५|| (आलिंगणयं) पुरिसा !जइ दुक्ख-वारणं, जइ अ विमग्गह सुक्ख-कारणं । अजिअं संतिं च मावओ, अभयकरे सरणं पवज्जहा ||६|| ( मागहिआ ) अरइ-रइ-तिमिरविरहिअ-मुवरय जर-मरणं, सुर-असुर-गरुल-भुयगवइ पयय-पणिवइयं । अजिअमहमवि अ सुणय-णय-णिउणमभयकरं, सरणमुवसरिअ भुवि-दिविज-महिअं सययमुवणमे ||७|| ( संगययं) तं च जिणुत्तममुत्तम-णित्तम-सत्तधरं, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजित-शान्ति-स्तोत्र ३ अजब-नद्दव खंति-विमुत्ति-समाहि-णिहिं । संतिकरं पणमामि दमुत्तम-तित्थयरं, संतिमुणी ! मम संति समाहिवरं दिसउ ||८i ( सोवाणयं ). सावत्थि-पुव्व-पत्थिवं च वर हत्थि नत्यय पसत्थ वित्थिण्ण संथियं, थिर सरिच्छ-वच्छ नयााल-लीलायमाण-वर-गंध-हत्थि-पत्थाण पत्थियं संथ-वारिह। हत्थि-हत्थ-बाहुं धंत-कणग-रुअग णिरुवहय-पिंजरं पवर-लक्खणोवचिय सोम्म-चारु-रूवं, सुइ-सुह-मणाभिराम-परम-रमणिज्ज-वर - देवदुंदुहि-णिणाय महुरयर-सुहगिरं ॥९|| ( वेड्डओ ) अजियं जिआरिगणं, जिअ-सव्व-भयं भवोह-रिउं। पणमामि अहं पयओ पावं पसमेउ मे भयवं |१०|| ( रासालुद्धो ) कुरु-जणवय हत्थिणाउर-णरीसरो पढमं तओ महा चक्कट्टि-मोए महप्पभाओ, जो बावत्तरि पुरवर-सहस्स-वर-णगर-णिगमज़णवय-वई-बत्तीसा रायवर सहस्साणुयाय-मग्गो । चउदस-वर-रयण नव-महाणिहि चउसट्टि-सहस्स-पवर जुवईण-सुंदरवई , चुलसी-हय-गय-रह-सय-सहस्स-सामी छण्णवइ गामकोडि सामी आसीज्जो मारहम्मि भयवं ॥११॥ (वेड्डओ ) तं संति संतिकरं संतिण्णं सव्व भया। संति थुणामि जिणं, संति विहेउ मे ॥१२।। (रासाणंदियं) इक्खाग ! विदेह ! णरीसर ! णर-वसहा ! मुणि-वसहा ! णवसारय ससि-सकलाणण!विगय-तमा!विहुय-रया। अजिउत्तम तेअ! गुणेहिं महामुणि!अमिय बला! विउलकुला! पणमामि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता ते भव-भय-मूरण !जग-सरणा ! मम सरणं ॥१३|| (चित्तलेहा) देव-दाणविंद-चंद सूर-वंद ! हट्टतुट्ठ ! जिट्ट ! परम, लठ्ठ-रूवधंत-रुप्प-पठ्ठ-सेय-सुद्ध-णिद्ध-धवल-दंत-पंति ! संति ! सत्तिकित्ति-मुत्ति-जुत्ति-गुत्ति-पवर, दित्त-तेअ-वंद-धेअ ! सव्वलोअ माविअ-प्पभाव! णेअ ! पइस मे समाहिं ॥१४|| (णारायओ) विमल-ससि-कलाइरेअ-सोमं, वितिमिर-सूर-कलाइरेअते। तिअसवइ गणाइरेअ-रूवं, धरणिधर-प्पवराइरेअ-सारं ॥१५॥ (कुसुमलया ) सत्ते अ सया अजियं, सारीरेअ बले अजिअं । तव संजमे य अजिअं, एस थुणामि जिणमजिअं 1/१६|| (भूअगपरिरिंगिअं) सोम्मगुणेहिं पावइ ण तं णवसरय ससी, तेअ गुणेहिं पावइ ण तं णव-सरय-रवी । रूवगुणेहिं पावइ ण तं तिअसगणवई, सार-गुणेहिं पावइ ण तं धरणिधरवई ||१७|| (खिज्जिअयं) तित्थवर-पवत्तयं तमरय-रहिअं,धीर-जण-थुअच्चिअं-चुअकलि-कलुसं । संति-सुहप्पवत्तयं तिगरण-पयओ, संतिमहं महामुणि सरणमुवणमे |१८|| (ललिअयं) विणओणय सिरि-रइअंजलि-रिसिंगणसंथुअंथिमिअं-विबु-हाहिव-धणवइ-णरवइ थुअ-महि, अच्चियं बहुसो। अइरुग्गय सरय-दिवायर-समहिअ-सप्पमं तवसा, गयणंगण विअरण समुइय-चारण-वंदिअं सिरसा ॥१९॥ (किसलयमाला) असुर-गरुल-परिवंदिअं, किण्णरोंरंगणमंसि। देव कोडि-सय-संथुअं,-समणसंघ परिवंदि॥२०॥ (सुमुह) अभयं अणहं, अरयं अरु। अजिअंअजिअं पयओ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजित-शान्ति-स्तोत्र पणमे।।२१।। ( विज्जुविलसिअं) आगया वर-विमाण-दिव्वकणग-रह-तुरय-पहकर-सएहिं हुलिअं। ससंभमोअरणखुमिअ-लुलिअ-चल-कुण्डलंगय-तिरीड-सोहंत-मउलि-माला ॥२२।। ( वेड्डओ ) जं सुर संघा सासुर संघा वेर विउत्ता भत्ति सुजुत्ता, आयर भूसिअ संभम पिंडिअ सुट्ठ सुविम्हिअ सव्व बलोघा। उत्तम कंचण रयण परूविअ भासुर भूसण मासुरि अंगा, गाय समोणय भत्ति वसागय पंजलि पेसिअ सीस पणामा ।।२३।। (रयणमाला) वंदिऊण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं । पणमिऊण य जिणं सुरासुरा, पमुइया समवणाई तो गया ॥२४|| (खित्तयं ) तं महामुणि महंपि पंजली, राग-दोस-भय-मोह वज्जिअं । देव दाणव णरिंद वंदिअं, संति मुत्तमं महातवं णमे ||२५|| (खित्तयं ) अंबरंतर-वियारणिआहिं, ललिअ हंस-बहू गामिणिआहिं। पीण-सोणि-त्थण-सालिणिआहिं, सकल-कमल-दल-लोअणिआहिं ||२६|| (दीवयं) पीण णिरंतर-थणभर-विणमिअ-गाय-लयाहिं, मणि-कंचण-पसि ढिल-मेहल-सोहिअ-सोणि-तडाहिं। वर-खिखिणि-णेउर सतिलय-वलय-विभूसणियाहिं, रइकर-चउर-मणोहरसुंदर-दंसणियाहिं ॥२७॥ (चित्तक्खरा ) देव-सुन्दरीहिं पाय-वंदिआहिं, वंदिआ य जस्स ते सुविक्कमा कमा अप्पणो णिडालएहिं मंडणोड्डण-पगारएहि केहि केहिं वि अवंग-तिलय-पत्तलेह णामएहिं चिल्लएहिं संगयंगयाहिं, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता भत्ति-सण्णिविठ्ठ-वंदणा-गयाहिं हुंति ते वंदिआ पुणो पुणो ॥२८॥ ( णारायओ ) तमहं जिणचंदं, अजिअं जिअमोहं । धुअ सव्व किलेसं, पयओ पणमामि ||२९|| ( णंदिअयं ) थुअवंदिप्रस्सा रिसि-गण-देव-गणेहिं, तो देव-वहूहिं पयओपणमिअस्सा, जस्स-जगुत्तम-सासणअस्सा, भत्ति-वसांगय- : पिंडिअआहिं। देव-वरच्छरसा-बहुआहिं, सुरवर-रइगुण पंडिअआहिं ||३०|| (मासुरयं ) वंस-सद्द-तंति-ताल. मेलिए, तिउक्खराभिराम सद्द-मीसए-कए अ, सुइ समा- . णणे अ सुद्ध-सज्ज-गीअ-पाय-जाल-घंटिआहिं, वलय . मेहला-कलाव-णेउराभिराम सद्द-मीसए-कए. अ, देव-पट्टि आहिं। हाव-भाव-विब्मम-प्पगारएहिं, णचिऊण अंग हारएहिं वंदिआ य जस्स ते सुविक्कमा कमा, तयं तिलोयसव्व-सत्त-संतिकारयं, पसंत-सव्व-पाव-दोसमेस हं णमामि संतिमुत्तमं जिणं ॥३१॥ (णारायओ) छत्तचामर-पडाग-जूअ-जव मंडिआ, झयवर-मगर-तुरग सिरिवच्छ-सुलंछणा। दीव-समुद्द-मंदर-दिसागय सोहिआ, सत्थिअ-वसह-सीह-रह-चक्क-वरंकिया |३२|| ( ललिअयं ) सहाव-लट्ठा समप्पइट्ठा अदोस-दुट्ठा । गुणेहिं जिट्ठा पसाय सिट्ठा तवेण पुट्ठा सिरीहिं इट्ठा रिसीहिं जुट्ठा ||३३|| ( वाणवासिआ ) ते तवेण धुअ-सव्व-पावया, सव्व लोअ-हिय-मूल-पावया । संथुआ अजिअ-संति-पायया, हुंतु मे सिव-सुहाण-दायया ॥३४|| ( अपरांतिका) एवं तव Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजित-शान्ति-स्तोत्र बल-विउलं, थुअं मए अजिअ-संति-जिण जुयलं । ववगयकम्म-रय-मलं, गइं गयं सासयं विउलं ||३५|| ( गाहा ) तं बहु गुण-प्पसायं, मुक्ख सुहेण परमेण अविसायं । नासेउ मे विसायं, कुणउ अ परिसाविअ पसायं ॥३६|| ( गाहा ) तं मोएउ अ णंदि, पावेउ अ णंदिसेणमभिणंदि । परिसा वि अ सुहणंदि मम य दिसउ संजमे थदिं ॥३७|| (गाहा ) पक्खिय चाउम्मासिअ,संवच्छरिए अ अवस्स-मणिअव्वो । सोअव्वो सव्वेहिं उवसग्ग-णिवारणो एसो ॥३८॥ जो पढइ जो अ णिसुणइ, उमओ कालं पि अजिय-संति-थयं । ण हु हुंति तस्स रोगा, पुव्वुप्पण्णा विणासंति ॥३९|| जइ इच्छह, परम पयं, अहवा कित्ति सुवित्थडं भुवणे। ता तेलुक्कुद्धरणे, जिण वयणे आयरं कुणह ॥४०|| : श्री लघु अजित-शान्ति-स्तोत्र उल्लासिक्कम णक्ख-णिग्गय-पहा दंड-च्छलेणंगिणं, वंदारूण दिसंतइव्व पयडं णिव्वाण मग्गावलिं । कंदिंदुज्जल-दंत-कंति मिसओ णीहंत णाणं कुरुक्केरे दोवि दुइज्ज सोलस जिणे थोसामि खेमंकरे ||१|| चरम जलहि णीरं जोमिणिज्जंजलीहिं, खय-समय-समीरं जो जिणिज्जा गईए। सयल णहयलं वा लंघए जो पएहिं, अजिअ महव संतिं सो समत्थो थुणे ॥२|| तहवि हु बहु माणु Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता लास-भत्तिब्मरेण, गुण-कणमवि कित्तेहामि चिंतामणिव्व । अलमहव अचिंताणंत-सामत्थओसिं, फलिहइ लहु सव्वं वंछिअं णिच्छिअं मे ||३|| सयल जय हिआणं णाम मित्तेण जाणं, विहडइ लहु दुट्ठाणि? दोघट्ट थट्टं। णभिर सुर-किरीडूग्घिट्ट पायारविंदे, सययमजिअ संती ते जिणंदेभिवंदे ॥४|| पसरइ वर-कित्ती वड्डए देहदित्ती, विलसइ . भुवि मित्ती जायए सुप्पवित्ती। फुरइ परमतित्ती होइ संसार-छित्ती, जिण-जुअ-पय-भत्ती ही अचिंतोरु-सत्ती ||५|| ललिय-पय-पयारं भूरि-दिव्वंग-हारं, फुड-गण-रस भावोदार-सिंगार-सारं। अणि-मिसं-रमणिज्जं दंसणच्छेयभीया, इव पुण मणिबन्धाकासणट्टोवयारं ||६|| थुणह अजिअ संती ते कयासेस संती, कणय रय पिसंगा छज्जए जाणि मुत्ती । सरमस-परिरंभारंभि-णिव्वाण-लच्छो, घण-थण-घुसिणिक्कुप्पंक-पिंगीकयव्व |७|| बहुविह-णय मंगं वत्थु णिच्चं अणिच्चं सदसदणमिलप्पा लप्पमेगं अणेगं। इय कुणय विरुद्धं सुप्पसिद्ध तु जेसिं, वयणमवयणिज्जं ते जिणे संभरामि ||८|| पसरइ तिय लोए ताव मोहंधयारं, भमइ जयमसण्णं ताव मिच्छत्त-छण्णं । फुरइ फुड फलंताणंत णाणंसुपूरो, पयडमजिअ-संतिज्झाण सूरो ण जाव ॥९॥ अरि-करि-हरि-तिण्हुण्हंबु-चोराहि वाही,. समर-डमर-मारी-रुद्द-खुद्दोवसग्गा | पलयमजिअ संती कित्तणे झत्ति जंती, णिविडतर तमोहा भक्खरा लुंखिअव्व Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लघु अजित-शान्ति-स्तोत्र |१०|| णिचिअ-दुरिअ-दारूदित्त-झाणग्गि-जाला-परिगयमिव गोरं, चितिअं जाण रूवं । कणय-णिहस-रेहाकंति-चोरं करिज्जा, चिर-थिर-मिहलच्छि गाढ संथंभि अव्व ||११|| अडवि-णिवडियाणं पत्थिवुत्तासिआणं, जलहि लहरि-हीरं ताण गुत्ति-ट्ठियाणं। जलिअ-जलण-जाला लिंगिआणं च झाणं, जणयइ लहु संति संतिणाहाजिआणं ||१२|| हरि-करि-परिकिण्णं पक्क-पाइक्क-पुण्णं, सयलपुहवि-रज्जं छड्डिउं आणसज्जं। तणमिव पडिलग्गं जे जिणा मुत्तिमग्गं, चरण मणुप्पवण्णा इंतु ते मे पसण्णा ॥१३|| छण-ससि-वयणाहिं फुल्ल णित्तुप्पलाहिं, थण-भरणमिरीहिं मुट्टि गिज्झोदरीहिं। ललिअ-भुअलयाहिं पीण सोणित्थणाहिं, सय सुर-रमणीहिं वंदिया जेसि पाया ||१४|| अरिसकिडिम कुठ्ठ-गंठि-कासाइसार, खय-जरवण-लूआ-सास-सोसोदराणि। णह-मुह-दसणच्छिकुच्छि-कण्णाइ-रोगे, मह जिणजुअ-पाया सुप्पसाया हरंतु ||१५|| इअ गुरु-दुह-तासे पक्खिए चाउमासे, जिणवर-दुग-थुत्तं वच्छरे वा पवित्तं । पढह सुणह सिज्झाएह झाएह चित्ते, कुणह मुणह विग्धं जेण घाएह सिग्धं ||१६|| इय विजया-जिअसत्तु-पुत्त ! सिरि अजिअ जिणेसर ! तह अइरा-विससेण-तणय ! पंचम-चक्कीसर ! तित्थंकर सोलसम ! संति ! 'जिणवल्लह' संथुअ ! कुरु मंगल मम हरसु दुरिय मखिलंपि थुणंतह ||१७|| Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता श्री पार्वजिनस्तुति गर्मित णमिऊण-स्तोत्र णमिऊण पणय-सुर-गण, चूडामणि-किरण-रंजिअं मुणिणो। चलण-जुअलं महामय, पणासणं संथवं वुच्छं ||१|| सडिय-कर-चरण-नह-मुह,-निवुड्ड-नासा विवन्न-. लावण्णा । कुट्ठमहा-रोगानल-फुलिंग-दिद्दड्व-सव्वंगा ||२|| ते तुह चलणा-राहण-सलिलंजलिसेअ-वुड्डिअच्छाया । वण-दव-दड्डा गिरि-पायवव्वपत्ता पुणो लच्छिं ॥३|| दुव्वायखुभिय-जलनिहि, उन्मड-कलोल-भीसणारावे संमंत-भयविसंठुल,-निज्जामय-मुक्क-वावारे ॥४|| अविदलियजाणवत्ता, खणेण पावंति इच्छिअं कूलं । पासजिण-चलणजुअलं, निच्च-चिअ जे नमति नरा ||५|| खरपवणुद्धय वण-दव, जालावलिमिलिय-सयलदुम-गहणे। डज्झंत-मुद्धमियवहु, -भोसण-रव-भीसणम्मि वणे ॥६|| जग-गुरुणो कम-जुअलं निव्वाविय-सयल-तिहुअणामोअं। जे संमरंति मणुआ, न कुणइ जलणो भयं तेसिं ||७|| विलसंत-भोग-भीसणफुरिआरुण-नयण-तरल-जीहालं । उग्गभुअंगं नवजलयसच्छहं मीस-णायारं ||८|| मन्नंति कीड-सरिसं, दूर-परिच्छूढ-विसम-विसवेगा ! तुह नामक्खर-फुडसिद्ध-मंत गुरुआ नरा लोए ||९|| अडवीसु मिल्ल-तक्कर-पुलिंदसद्द लसद्दमीमासु। मय-विहुर-वुन्नकायर-उल्लूरिअ-पहिअ-सत्थासु ।१०। अविलुत्तविहवसारा, तुह नाह ! पणाम-मत्त-वावारा । ववगय Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वजिनस्तुति गर्भित णमिउण-स्तोत्र विग्घा सिग्धं, पत्ता हिय-इच्छियं ठाणं ||११|| पज्जलिआ नल- नयणं, दूर विआरिय मुहं महा-कायं । नह-कुलिसघाय-विअलिअ, इंद-कुंभत्थलाभो अं ॥ १२ ॥ पणयससंभमपत्थिव-नह-र्माणमाणिक्क पडिअ-पडिमस्स । तुह-वयण -पहरणधारा, सीहं कुद्धपि न गणंति ॥ १३॥ ससि-धवलदंतमुसलं, दीह - करुल्लाल वुड्दिउच्छाहं । महु-पिंग नयण जुअलं, ससलिल नव-जलहरारावं ||१४|| भीमं महागइंदं, अच्चा-सन्नंपि ते नवि गणंति । जेतुम्ह चलण-जुअलं, मुणिवइ ! · तुंगं सम्मलीणा ||१५|| समरम्मि तिक्ख-खग्गा,भिग्घाय-पविद्धउद्धय कबंधे। कुंत विणिग्भिन्न करि-कलहमुक्कसिक्कार - पउ - रमि ||१६|| निज्जियदप्पुद्ध, ररिउ, नरिंद- निवहा भडा जसं धवलं । पावंति पाव पस-मिण ! पास -जिण ! तुहप्पभावेण ||१७|| रोगजलजलण-विसहर-चोरारि-मइंद-गयरण-भयाइं । पास- जिणनाम-संकित्तणेण पस-मंति सव्वाइं १८॥ एवं महाभयहरं, पास जिणि दस्स संथवमुआरं । भविय-जणाणं-दयरं, कल्लाण-परंपर-निहाणं ||१९|| राय भय-जक्ख-रक्खस,-कुसुमिण दुस्सउण- रिक्ख पीडासु । संझासु दोसु पंथे, उवसग्गे तह य रयणीसु ||२०|| जो पढइ जो अ निसुणइ, ताणं कइणो य माणतुंगस्स । पासो पावं पसमेउ, सयल भुवणचित्र चलणो ॥२१॥ उवसग्गते कमठासुरम्म झाणाओ जो न संचलिओ । सुरनरकिन्नरजुवइहिं संथुओ जयउ पास जिणो ॥२२॥ एअस्स मज्झयारे, - - ११ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता अढारस अक्खरेहिं जो मंतो । जो जाणइ सो झायइ परम पयत्थं फुडंपासं ||२३|| पासह समरण जो कुणइ संतुठे हिअएण, अठठुत्तर सय वाहिभय, नासइ तस्स दूरेण ॥२४॥ गणधरदेव-स्तुतिरूप तंजयउ-स्तोत्र तं जयउ जए तित्थं, जमित्थ तित्थाहिवेण वीरेण । सम्म पवत्तियं भव्व-सत्त-संताण-सुह-जणयं || नासियसयल-किलेसा, निहय-कुलेसा, पसत्थसुह-लेसा । सिरिवद्धमाण-तित्थस्स मंगलं दिन्तु ते अरिहा ॥२॥ निद्दड्ढकम्मबीआ, बीआ परमेट्ठिणो गुण-समिद्धा । सिद्धा तिजय-पसिद्धा, हणन्तु दुत्थाणि तित्थस्स ॥३॥ आयारमायरंता पंच-पयारं सया पयासन्ता । आयरिया तह तित्थं, निहयकुतित्थं पयासन्तु ||४|| सम्म-सुअ-वायगा वायगा य सिअवाय-वायगा वाए। पवयण-पडिणीय-कए वणिंतु सव्वस्स संघस्स || निव्वाण-साहणुज्जय-साहूणं जणिय-सव्वसाहज्जा। तित्थप्पभावगा ते हवंतु परमेट्ठिणो जइणो ॥६॥ जेणाणुगयं णाणं निव्वाणफलं च चरणमवि हवइ । तित्थस्स दंसणं तं मंगुलमवणेउ सिद्धियरं ॥७॥ निच्छम्मो सुअ-धम्मो, समग्ग-भव्वंगि-वग्ग-कय-सम्मो। गुण-सुट्ठिअस्स संघस्स, मंगलं सम्ममिह दिसउ ||८|| Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधरदेव-स्तुतिरूप तंजयउ-स्तोत्र रम्मो चरित्त-धम्मो, संपाविअ-मव्व सत्त-सिव-सम्मो । नोसेस-किलेसहरो, हवउ सया सयल-संघस्स ||९|| गुणगण-गुरुणो गुरुणो, सिव-सुह-मइणो कुणंतु तित्थस्स । सिरि-वद्धमाण-पहुपय-डिअस्स कुसलं समग्गस्स ||१०|| जिय-पडिवक्खा जक्खा, गोमुह-मायंग-गयमुह-पमुक्खा। सिरि-बंभसंति-सहिआ, कय-नय-रक्खा सिवं दितु ||११|| अंबा पडिहय-डिंबा, सिद्धा सिद्धाइया पवयणस्स । चक्केसरि-वइरुट्टा, संति-सुरा दिसउ सुक्खाणि ||१२|| सोलस विज्जा-देवीओ, दितु संघस्स मंगलं विउलं । अच्छुत्तासहिआओ, विस्सुअ-सुयदेवयाउ समं ||१३|| जिणसासण-कयरक्खा, जक्खा चउवीस सासणसुरा वि । सुहमावा संतावं, तित्थस्स सया पणासन्तु ||१४|| जिण-पवयणम्मि निरया, विरया कुपहाउ सव्वहा सव्वे । वेयावच्च-करावि अ तित्थस्स हवन्तु सन्तिकरा ||१५|| जिण-समय-सिद्ध-सुमग्गवहिय-भव्वाण जणिय-साहज्जो। गीयरई गीअजसो, सपरिवारो सिवं दिसउ ||१६|| गिहगुत्त-खित्त-जल-थलवण-पव्वयवासी देवदेवीओ। जिणसासण-ट्ठिआणं, दुहाणि सव्वाणि निहणंतु ||१७|| दस-दिसिवाला सक्खित्तवालयानवग्गहा स नक्खत्ता । जोइणिराहुग्गह-काल-पासकुलिअद्धपहरेहिं ॥१८॥ सहकाल-कंटएहिं सविट्टि वच्छेहि कालवेलाहिं। सव्वे सव्वत्थ सुह, दिसन्तु सव्वस संघस्स |१९|| भवणवइ वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया य जे देवा । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ स्तोत्र-रास-संहिता धरणिन्द-सक्क-सहिआ, दलन्तु दुरियाई तित्थस्स ||२०|| चक्कं जस्स जलंतं, गच्छइ पुरओ पणासिय-तमोहं । तं तित्थस्स भगवओ, नमो नमो वदमाणस्स ||२१|| सो जयउ जिणो वीरो, जस्सज्ज वि सासणं जए जयइ। सिद्धि-पहसासणं कुपह-नासणं सव्वभयमहणं ||२२|| सिरि-उसमसेणपमुहा, हय-भय-निवहा दिसंतु तित्थस्स । सव्वजिणाणं गणहारिणोऽणहं वंच्छिअं सव्वं ॥२३|| सिरि-वद्वमाणतित्थाहिवेण तित्थं समप्पियं जस्स । सम्मं सुहम्म-सामी, दिसउ सुहं सयलसंघस्स ||२४|| पयंइए मदिया जे, भद्दाणि दिसंतु-सयलसंघस्स । इयर-सुरा वि हु सम्म जिण-गणहरकहिय-कारिस्स ||२५|| इय जो पढइ तिसंझं, दुस्सज्झं तस्स नत्थि किंपि जए । जिणदत्ताणायट्टिओ, सुनिट्ठिअट्ठो सुही होई ॥२६॥ गुरुपारतंत्र्य-स्तोत्र मय-रहियं गुण-गण-रयण, सायरं सायरं पणमिऊणं । सुगुरु-जण-पारतंतं, उवहिव्व थुणामि तं चैव ॥१|| निम्महिय-मोह-जोहा,.निहय-विरोहा पण?-संदेहा। पणयंगिवग्ग-दाविअ सुह-संदोहा सुगुण-गेहा ||२|| पत्त-सुजइत्तसोहा, समत्थ-पर-तित्थ जणिय-संखोहा। पडिभग्ग-मोहजोहा, दंसिय-सुम-हत्थ-सत्थोहा ||३|| परिहरिअ-सत्थ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतंत्र्य-स्तोत्र १५ वाहा, हय दुहदाहासिवंब-तरु-साहा । संपाविअ - सुह-लाहा, खीसेदहिणुव्व अग्गाहा ||४|| सुगुण-जण-जणिय- पुज्जा सज्जो निरवज्ज - गहिय-पव्वज्जा । सिवव - सुह-साहण-सज्जा, भव-गुरु- गिरि चूरणे वज्जा ||५|| अज्ज - सुहम्म-पमुहा, गुणगण निवहा सुरिंद-विहिअ महा ताण तिसंझं नामं नामं न पणास जिया ||६|| पडिवज्जिअ जिण देवो, देवायरिओ दुरंत - भवहारी । सिरिनेमिचंदसूरि, उज्जोयण - सूरिणोसुगुरु ॥७॥ सिरि-वद्धमाण-सूरी, पयडीकय-सूरि-मंतमाहप्पो । पडिहय- कसाय पसरो, सरय ससंकुव्व सुह-जणओ ॥८॥ सुह- सील- चोर-चप्परण-पच्चलो निञ्चलो जिण-मयम्मि | जुगपवर - सुद्ध-सिद्धंत जाण-ओ पणय-सुगुणजणो ||९|| पुरओ दुल्लह-महिव, -ल्लहस्स अणहिल्लवाडए पयडं । मुक्काविआ रिऊणं, सीहेणव दव्व- लिंगि गया ||१०|| दसमच्छेरयनिसि - विप्फु-रंतसच्छंद सूरि-मय- तिमिरं । सूरेणव सूरि-जिणे, सरेण हय- महिअ-दोसेण ॥११॥ सुक इत्तपत्तकित्ति, पयडिअगुत्ती पसंत - सुहमुत्ती । पहय-परवाइदित्ती, जिणचंदजईसरो मंती ॥१२॥ पयडिअ नवंग-सुत्तत्थ, - कोसो पणासिअ -पओसो । भव-भीय भविअ जण मण, - कय संतोसो विगय-दोसो ॥१३॥ जुग-पवरागम-सार,प्परूवणा-करण-बंधुरो धणि अं । सिरिअभयदेव सूरी, मुणिपवरो परम-पसमधरो ॥१४॥ कय- सावय- संतासो, हरिव्व . सारंग भग्ग - संदेहो । गयसमय-दप्प-दलणो, आसाइअ-पवर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता कव्व-रसो ||१५|| भीम-भव-काणणम्मि, दंसिअ-गुरु वयण रयणसंदोहो। नीसेस-सत्तगुरुओ, सूरी जिणवल्लहो जयइ ||१६|| उवरिट्ठिअ-सच्चरणो, चउरणु-ओग-प्पहाणसच्चरणो । असम-मयराय महणो, उढ-मुहो सहइ जस्स करो ॥१७॥ दंसिअ-निम्मल-निच्चल, दन्त-गणोगणिअ-सावओत्थ-मओ। गुरु-गिरि-गुरुओ सरहुव्व, सूरी जिण-वल्लहो होत्था ॥१८॥ जुगपवरागमपीऊस-पाण-पीणिय-मणा कया भव्वा । जेण जिण-वल्लहेणं, गुरुणा तं सक्हा वंदे ॥१९|| विप्फुरियपवरपवयण,-सिरोमणी वूढदुव्वह-खमो य । जो सेसाणं सेसुव्व, सहइ सत्ताण ताण करो ||२|| सच्चरिआणमहीणं, सुगुरूणं पारतंतमुव्वहइ जयइ जिणदत्तसूरी, सिरि-निलओ पणय-मुणि-तिलओ ॥२१॥ सिग्घमवहरउ-स्तोत्र सिग्घमवहरउ विग्धं, जिण-वीराणाणु-गामिसंघस्स । सिरि-पास-जिणो थंमणपुर-ट्ठिओ निट्ठिआनिट्ठो ॥१॥ गोयम-सुहम्म-पमुहा, गणवइणो विहिअमव्व-सत्त-सुहा । सिरि-वद्धमाण-जिण-तित्थ-सुत्थयं ते कुणन्तु सया ॥२॥ सक्काइणो सुरा जे, जिण-वेयावच्चकारिणो संति । अवहरिय-विग्घ-संघा, हवन्तु ते संघसन्तिकरा ||३|| सिरिथंभणय-ट्टिय-पास-सामिपय - पउम पणय-पाणीणं । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिग्घमवहरउ-स्तोत्र १७ निद्दलिय-दुरिय-विंदो, धरणिंदो हरउ दुरिआई ||४|| गोमुह-पमुक्ख जक्खा, पडिहय-पडिवक्ख-पक्ख-लक्खा ते। कय-सगुण-संघ-रक्खा, हवंतु संपत्त-सिव-सुक्खा ||| अप्पडिचक्का-पमुहा, जिण-सासण-देवया य जिण पणया। सिद्धा-इया समेया, हवन्तु संघस्स विग्घहरा ||६|| सक्काएसा सच्चउर-पुरठ्ठिओ वद्धमाण-जिण-भत्तो। सिरिबम्भसन्ति-जक्खो, रक्खउ संघं पयत्तेणं ॥७॥ खित्त-गिहगुत्त-सन्ताण-देस-देवाहिदेवया ताओ । निव्वुइ-पुरपहिआणं, भव्वाण कुणंतु सुक्खाणि ||८| चक्केसरिचक्कधरा, विहिपह-रिउच्छिण्ण-कन्धरा धणियं । सिवसरणि-लग्ग-संघस्स, सव्वहा हरउ विग्घाणि ||९|| तित्थवइ-वद्धमाणो; जिणेसरो संगओ सुसंघेण । जिणचन्दोमयदेवो, रक्खउ जिण-वल्लहोपहु मं ॥१०|| सो जयउ वद्धमाणो, जिणेसरो दिणेसरो व्व हय-तिमिरो । जिणचंदाऽभयदेवा, पहुणो जिणवल्लहा जे अ ||११|| गुरुजिणवल्लह-पाए, अभयदेव-पहुत्त-दायगे वंदे। जिणचन्दजिणेसर-वद्धमाण-तित्थस्स वुड्डिकए ||१२|| जिणदत्ताणं सम्म मन्नन्ति कुन्ति जे य कारंति । मणसा वयसा वउसा, जयंतु साहम्मिआ ते वि ||१३|| जिणदत्त गुणे नाणाइणो सया जे धरन्ति धारिन्ति । दंसिअ-सिअ-वायपए, नमामि साहम्मिआ ते वि ||१४|| Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ स्तोत्र-रास-संहिता उवसग्गहर-स्तोत्र उवसग्गहरं पासं,पासं वंदामि कम्म-घण-मुक्का विसहर विस-निन्नासं, मंगल-कल्लाण-आवासं ||१|| विसहरफुलिंग-मंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गहरोग-मारी, दुट्ठ जरा जंति उवसामं ||२|| चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नर-तिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख-दोगच्च ॥३|| तुह सम्मत्ते लढे, चिंतामणिकप्पपाय-वन्महिए । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ||४|| इअ संथुओ महायस !, मत्तिब्मर-निब्मरेण हिअएण। ता देव ! दिज बोहिं, भवे भवे पांस ! जिणचंद ||५|| तिजयपहुत्त-स्तोत्र तिजय-पहुत्त-पयासय-अठ्ठ-महापाडिहेर-जुत्ताणं । समयक्खित्त-ठियाणं, सरेमि चक्कं जिणिंदाणं ||१|| पणवीसा य असीआ, पणरस पन्नास जिणवर समूहो । नासेउ सयल दुरिअं, भविआणं मत्ति-जुत्ताणं ॥२|| वीसा पणयाला वि य, तीसा पन्नहत्तरी जिणवरिंदा । गह-भूअरक्खा-साइणिघोरुवसग्गं पणासंतु ||३|| सत्तरि पणतीसावि य, पंचेव जिणगणो एसो। वाहि-जलजलण-हरिकरि-चोरारिमहामयं Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धनवकार-स्तोत्र १९. हरउ।४ापणपन्ना य दसेव य, पन्नट्ठी तह य चेव चालीसा। रक्खंतु मे सरीरं-देवासुरपण-मिआ सिद्धा ||५|| ॐ हरहुंहः सरसुंसः हरहुंहः तह य चेव सरसुंसः । आलिहिय-नामगन्मं, चक्कं किर सव्वओ भदं ॥६|| ॐ रोहिणि पन्नत्ति, वज्जसिंखला तह य वज्ज-अंकुसिआ |चक्केसरि नरदत्ता,कालि महाकालि तह गोरी ||७|| गंधारी महज्जाला माणवि वइरु? तह य अच्छुत्ता। माणसि महमाणसिआ, विज्जादेवीओ रक्खंतु ॥८॥ पंचदस-कमम्भू मिसु, उप्पन्नं सत्तरी जिणाणं सयं । विविह रयणाइवन्नो-वसोहिअं हरउ दुरिआई ||९|| चउतीस-अइसयजुआ अट्ठमहापाडिहेर-कय-सोहा । तित्थयरा गयमोहा, झाएअव्वा पयत्तेणं ॥१०|| ॐ वरकणय-संख-विद्दम-मरगयघणसन्निहं विगयमोहं । सत्तरिसयं जिणाणं सव्वामर पूइयं वंदे स्वाहा ||११|| ॐ भवणवइ वाणवंतर, जोइसवासी विमाणवासी अ । जे केवि दुट्ठ-देवा, ते सव्वे उवसमंतु ममं स्वाहा |१२|| चंदण-कप्पूरेणं, फलए लिहिऊण खालिअं पीअं। एगंतराइ-गहभूह-साइणिमुग्गं पणासेइ ।।१३|| इय सत्तरिसयं जंतं, सम्मं मंतं दुवारि पडिलिहिअं। दुरिआरि विजयवंतं, निमंतं निच्चमच्चेह ||१४|| वृद्धनवकार-स्तोत्र किं कप्पत्तरु रे अयाण,चिंतउ मण-भिंतरि,किं चिंतामणि कामधेनु आराहो बहुपरि । चित्तावेली काज किसे, देसांतर Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता लंघउ, रयणरासि कारण किसे सायर उल्लंघउ । चवदे पूरव सार, युग लद्धउ ए नवकार, सयल काज महियल सरे दुत्तर तरे संसार ||१|| केवलि भासिय रीत जिके नवकार आराहे,भोगवि सुक्ख अणंत अंत परमप्पय साहे। इण झाणे सुर रिद्धि पुत्त सुह विलसे बहु परि, इण झाणे सुरलोक इंद-पद पामे सुन्दरि । एह मंत्र सासतो जपे अचिंत चिंतामणि एह, समरण पाप सवे टले रिद्धि सिद्धि । नियगेह ||२|| निय सिर ऊपर झाण मज्झ चिंतवे कमल . नर, कंचणमय अठदल सहित तिहां मांहे कनकवर । तिहां बैठा अरिहंतदेव पउमासण फिटकमणिं, सेय वत्थ पहरेवि पढम पय चिते नियमणि । निव्वारय चउ गइ गमण पामिय सासय मुक्ख, अरिहंत झाणे तुम लहो जिम अजरामर सुक्ख ||३|| पनर भेय तिहां सिद्ध बीय पद जे आराहे, राते विद्र मतणे वन्ननिय सोहग साहे। राती धोती पहर जपे सिद्धहिं पुव्व दिसि, सयल लोय तिह नरहि होइ ततखिण सेंवसि । मूल-मंत्र वशीकरण अवर सहू जगधंध, मणिमूली ओषध करे बुद्धिहीण जाचंध ||४|| दक्षिण दिसि पंखड़ी जपे नमो आयरिआणं, सोवन-वन्नह सीस सहित उवएसहिनाणं । रिद्धि-सिद्धि कारणे लाम ऊपर जे ध्यावे, पहरे पीलावत्थ तेह मन वंछिय पावे । इण झाणे नव निधि हुवे ए रोग कदे नवि होय, गय रह हय वर पालखी चामर छत्त सिर जोय ||५|| नीलवन्न Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धनवकार २१ उवझाय सीस पाढंता पच्छिम, आराहिज्जे अंग पुव्व धारंत मणोरम । पच्छिम दिस पंखडीय कमल ऊपर सुहझाण, जोवो परमानंद तासु गयं देवविमाण। गुरु लघु जे रक्खे विदुर तिहां नर बहु फल होइ, मन सूधे विण जे जपे तिहां फल सिद्ध न जोइ ॥६|| सव्व साधु उत्तर विभाग सामला बइठा, जिण धर्म लोय पयासयंत चारित्र गुण जिठा। मण वयण काएहिं जपे जे एके झाणे, पंचवन्न तिहां नाण झाण गुण एह पमाणे। अनन्त चौवीसी जग हुए होसी अवर अनंत, आदि कोइ जाणे नहीं इण नवकारह मंत ||७|| एसो पंच णमुक्कारो पद दिसिअ गणेहिं, सव्व पावप्पणासणो पद जपे-नरेहिं । वायव दिसि झाएह मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ईसाण पएसिं । चिहुं दिसि चिहुं विदिसे मिलिय अठ दल कमल ठवेइ, जो गुरु लघु जाणी जपै सो घण पाव खवेइ |८|| इण प्रभाव धरणिंद हुओ पायालह सामी, समलीकुमर उपन्न भिल्ल सुर-लोयह गामी । संबल कंबल बे बलद पहुता देवा कप्पे, सूली दीधो चोर देव थयो नवकारहिं जप्पे । शिवकुमार मन वंछिय करे जोगी लियो मसाण, सोनापुरसो सीधलो इण नवकार प्रमाण ||९|| छींके बैठो चोर एक आकासे गामी, अहि फिट्टि हुइ फूलमाल नवकारह नामी । वाछरूआ चारंत बाल जल नदी प्रवाहे, बींध्यों कंटही उयर मंत्र जपियो मनमांहे। चित्या काज सवे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ स्तोत्र-रास-संहिता. सरे इरत परत विमास, पालित सूरितणी परे विद्या सिद्ध आकास ||१०|| चोर धाड संकट टले राजा वसि होवे। तित्थंकर सो होइ लाख गुण विधिसुं जोवे । साइण डाइण भूत प्रेत वेताल न पुहवे, आधि व्याधि ग्रहतणी पीडते किमहि न होवे । कुट्ठ जलोदर रोग सवे नासै एणही मंत, मयणासुन्दरितणी परे नवपय झाण करंत ।।११।। एक जीह इण मंत्र तणा गुण किता बखाणं, नाणहीण छउ मत्थ एह गुण पार न जाणूं। जिम सत्तुंजय तित्थराउ महिमा उदयवंतो, सयल मंत्र धुरि एह मंत्र राजा जयवंतो । तित्थंकर गणहर पणिय चवदह पूरव सार, इण गुण अंत न को लहे गुण गिरुवो नवकार ||१२|| अड संपय नवपय सहित इगसठ लहु अक्खर, गुरु अक्खर सत्तैव इह जाणो परमक्खर । गुरु जिण वल्लह ( जिणप्पह.) सूरि भणे सिव सुक्खह कारण, नरय तिरय गइ रोग सोग बहु-दुक्ख निवारण । जल थल महियल वनगहण समरणं हुवै इक चित्त, पंच परमेष्ठि मंत्रह तणी सेवा देज्यो नित्त||१३|| जयतिहुअण-स्तोत्र जय तिहुअण-वरकप्परुक्ख ! जय जिण धण्णंतरि ! जय तिहुअण-कल्लाण-कोस ! दुरअक्करि-केसरि । तिहुअण जण-अविलंघियाण ! भुवणत्तय-सामिअ, ! कुणसुसुहाई जिणेस पास थंभणय-पुरहिअ ||१|| तइ समरंत लहंति Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयतिहुअण-स्तोत्र २३ झत्ति वर पुत्त-कलत्तइ, धण्ण सुवण्ण हिरण्ण पुण्ण जणमुंजहि रजहि । पिक्खहि मुक्ख असंखसुक्ख तुह पास पसाइण, इय तिहुअण वरकप्परुक्ख सुक्खहि कुण महजिण ॥२॥ जरजज्जर परिजुण्ण कण्णनट्ठट्ठ सुकुट्टिण, चक्खुक्खोणखएणखुण्ण नर-सल्लिय सूलिण । तुह जिण सरणरसायणेण लहु हुंति पुणण्णव, जय धण्णंतरि पास महवि तुह रोगहरो भव ॥३|| विज्जा-जोइस-मंत-तंत-सिद्धिउ अपयत्तिण, भुवणब्भुअ अट्ठविह सिद्धि सिज्झइ तुह नामिण । तुह नामिण अपवित्तओवि जण होइ पवित्तउ, तं तिहुअण कल्लाणकोस तुह पास निररुत्तउ ||४|| खुद्द पवत्तई मंत-तंत-जंताईविसुत्तइ, चर-थिर-गरल-गहुग्ग-खग्गरिउवग्ग विगंजइ। दुत्थिय-सत्थ-अणत्थ-घत्थ-नित्थारइ दयकरि,दुरिअइ हरउ सपासदेव दुरिअक्करि-केसरि॥शातुह आणाथंभेइ भीम-दप्पुद्ध र-सुरवर, रख्खस-जक्स-फणिंद विंद-चोरानल-जलहर। जल-थलचारि-रउद्द-खुद्द-पसु-जोइणि जोइय, इय तिहुअणअंविलंघिआण जय पास सुसामिअ ||६|| पत्थिअ अत्थ अणत्थ तत्थ भत्तिब्मर-निब्मर, रोमंचंचिअ-चारुकाय किण्णरनरसुरवर । जसुसेवहि कमकमलजुअल पक्खालिअ कलिमलु, सो भुवणत्तयसामि पास महमद्दउ रिउबलु ||७|| जय जोइअ-मण-कमल-मसलभयपंजर कुंजर !, तिहुअणजण-आणंदचंद ! भुवणत्तयदिणयर ! | जय मइमेइणि वारिवाह जयजंतु पिआमह, थंभण Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ स्तोत्र-रास-संहिता यट्ठिअपासनाह ! नाहत्तण-कुणमह||८|बहुविहु वण्णु-अवण्णु सुण्णु वण्णिउ छप्पण्णिहि, मुक्खधम्म कामत्थकाम नर नियनिय-सत्थिहि । जं झायइ बहु दरिसणत्थ बहु नाम पसिद्धउ, सो जोइअ-मण-कमल-मसल-सुहुपास! पवद्धउ ।९। भय विन्मल रणझणिरदसण थरहरिअ सरीरय, तरलिअ नयण-विसण्णुसुण्णु-गग्गरगिर-करुणय । तइ सहसत्तिसरंति हुंति नरनासिअ गुरुदर, महविज्झवि सज्झसइ पास मयपंजर कुंजर ॥१०|| पइं पासि वियसंत-नित्त-पत्तंत-पवित्तिय, बाहपवाह-पवूढरूढ दुहदाह सुपुलइय। मण्णहि मण्णूसउण्णु पुण्णुअप्पाणं सुरनर, इअ तिहुअण-आणदचंद ! जय पास जिणेसर! ||११|| तुह कल्लाण-महेसु-घंट-टंकारवपिल्लिअ, वल्लिरमल्ल-महल्लमत्ति-सुरवर गंजुल्लिअ । हल्लुप्फलिअ पवत्तयंति भुवणे वि महूसव, इय तिहुअण आणंदचंद जय पास सुहुन्भव ||१२|| निम्मल-केवल-किरण-नियर-विहुरिअ तमपहयर, दंसिअ-सयल-पयत्थ-सत्थ-वित्थरिअ-पहामर । कलि-कलुसिअ-जण-घूअलोय-लोयणह-अगोयर, तिमिरइ निरुहर पासनाह ! भुवणत्तय-दिणयर ॥१३|| तुह समरणजलवरिससित्त माणव-मइमेइणि, अवरावरसुहुमत्थबोह कंदलदलरेहिणि । जायइ फलमरमरिय हरिय दुहदाह अणोवम, इयमइ मेइणि वारिवाह दिसि पास मई मम ||१४|| कय अविकल कल्लाण-वल्लि-उल्लूरिय-दुहवणु दाविअ सग्गपवग्गमग दुग्गइगम-वारणु । जय जंतुह-जण Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयतिहुअण स्तोत्र एणतुल्लजंजणियहियावहु, रम्मु धम्मु सो जयउ पास जय जंतु पियामहु ॥१५|भुवणारण्णनिवास दरिअपरदरिसणदेवय, जोइणिपूअणखित्तवाल खुद्दासुर पसुवय । तुह उत्तट्ठ सुनट्ठ सुट्ठ अविसंठुल चिट्ठहि, इय तिहुअणवणसीह पास पावाइं पणासहि ||१६|| फणिफणफारफुरंतरयण कर रंजिअ नहयल फलिणी कंदलदलतमाल निल्लुप्पलसामल । कमठासुर उवसग्गवग्ग संसग्ग अगंजिअ, जय पच्चक्खजिणेस पास थंमणय-पुर8िअ ॥१७॥ महमणुतरलुपमाणनेय वायावि विसंठुलु, नियतणुरवि अविणयसहावु आलसविहिलंघलु । तुहमाहप्पुपमाणुदेव कारुण्ण पवित्तउ, इय मइमाअवहीरिपासपालहिविलवंतउ ॥१८॥ किं किं कप्पिउणेयकलुणु किं किं वनजंपिउ, किं वनचिट्ठिउकिट्टदेवदीणयमविलंबिउ । कासुनकियनिप्फल्ललल्लिअह्न हिंदुहत्तई, तहवि न पत्तउताणु किंपि पइं पहु परिचत्तइं ॥१९|| तुहं सामिह तुहं माय बप्पु तुहुं मित्तपियंकरु, तुहुँ गइतुहं मइ तुहिंज ताण तुहुं गुरु खेमकरु। हठं दुहभरमारिअ वराउ राउलनिब्भग्गह, लीणउ तुह कमकमल सरणजिणु ! पालहि चंगउ ॥२०॥ पइंकिविकयनीरोयलोयकिविपावियसुहसय, कि वि मई मंतमहंत केवि किविसाहियसिवपय । किवि गंजिअरिउवग्गकेविजसधवलिअ भूअल, मई अवहीरहिकेणपाससरणागयवच्छल ! ॥ २१ ॥ पच्चुवयारनिरीहनाहनिफ्फण्ण Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता पओयण तुहुं जिण पासपरोवयार करणिकपरायण । सत्तुमित्त सम चित्तवित्तिनयनिदिअसममण, मा अवहीरिअजुग्गओविमइं पासनिरंजण |२२|| हउँ बहुविहिदु हतत्तगत्तुतुहं दुहनासणपर, हउं सुयणह करुणिक्क ठाणु तुहुं निरुकरुणाकरु । हउं जिण पासअसामिसालु तुहं. तिहुअणसामिअ, जं अवहीरहि मई झखंत इय पास ! न सोहिअ ॥२३|| जुग्गाजुग्ग विभागनाहनहुजोयहितुहसम, भुवणुवयारसहावभाव करुणारससत्तम । समविसमहकिं घणु नियइ भुविदाहुसमंतउ, इय दुहबंधव पासनाह मइं पाल थुणंतउ ||२४|| नयदीणहदीणय मुएवि अण्णुविकिविजुग्गय, जं जोइविउवयारुकरहिउवयारसमुज्जय । दीणह दीणुनिहीणुजेणतुहनाहिण चत्तउ, तो जुग्गउअहमेव पासपालहिमइं चंगउ ||२५|| अहअण्णुविजुग्गयविसेसुकिविमण्णहि दीणह, जं पासिविउवयारुकरइ तुहनाह समग्गह । सुच्चिअकिल कल्लाणुजेण जिण तुम्ह पसीयह, किं अण्णिण तं चेव देव मा मइं अवहीरह ||२६|| तुह पत्थण नहु होइ विहलु जिण ! जाणउ किं पुण, हउं दुक्खिउ निरुसत्तचत्तदुक्कहु उस्सुयमण । तं मण्णउ निमिसेण एउ एउविजइ लब्मइ, सच्चं जं भुक्खियवसेण किं उंबरु पच्चइ ! |२७|| तिहुअणसामिअ पासनाह मई अप्पुपयासिउ, किज्जउ, जं नियरूवसरिसु न मुणउबहु जंपिउ । अण्णु ण जिणजग्गितुहसमोविदक्खिन्नु दयासउ, जइ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयतिहुअण-स्तोत्र अवगिण्णसि तुंहजिअहहकिहोसु हयासउ ॥२८॥ जइ तुहरूविणकिणविपेअ पाइणवेलवियउ, तुविजाणउजिणपासतुम्ह हउंअंगीकरिअयउ। इयमहइच्छिउ जं न होइ सातुहओहावणु, रक्खंतह निकित्तिणे य जुज्जइअवहीरणु ॥२९|| एहमहारिहजत्तदेवइहुन्हवणमहूसउ,. जं अणलिय गुणगहण तुम्ह मुणिजणअणिसिद्धउ । एम पसीहसु पासनाहथंभणयपुरट्ठिअ, इय मुणिवरुसिरि अमयदेउ विण्णवइ अणिदिअ ॥३०॥ नवग्रह स्तुतिगर्मित दोसावहार-स्तोत्र ... दोसावहारदक्खो, नालियायार, वियासि गोपसरो। रयणतयस्स जणओ, पासजिणो जयउ चयचक्खू ||१|| कयकुवलय पडिबोहो, हरिणंकिय विग्गहो कलानिलओ। विहियारविंदमहणो, दियराओ जयउ पासजिणो ॥२॥ कंतीइ निजिणंतो, सिंदूरं पुहविणंदणो कूरो। जयजंतु अमयवक्को, सुमंगलो जयउ पहुपासो ||३|| उप्पलदल नीलरूई, हरिमंडल संथुओ इलाणंदो। रयणीयर दारओ मह, बुहो पसीय ( ए ) ज पासजिणो ||४|| नाहियवायदियड्ढो नायत्थो णायराय-कयपूओ। सिरिपासनाहदेवो, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ स्तोत्र-रास-संहिता देवायरिओ सुहं दिसउ ||५|| रायावट्ट समुज्जल-तणुप्पह मंडलो महाभूई। असुरेहिं नमिज्जतो, पासजिणिंदो कवी जयउ ||६|| तिमिरासि समारूढो, संतो दुक्खावहो जयम्मि थिरो। बहुलतमा सरि सरीरो, जयचक्खुसुओ जयउ पासो ||७|| कवलीकय दोसायर मायंडरह अहो । तणुविमुक्कं । लोयाभरणीभूयं, पासजिणं सत्तमं सरह IICII दुरिआई पासनाहो, सिहावमाली नहोमवणकेऊ। . दूरं तमरासीओ, सत्तमट्ठाणट्टिओ हरउ |९|| इय नवगह-. थुइगम, जिणपहसूरिहिं गुंफिअं थवणं । तुह पास ! . पढइ जो तं, असुहावि गहा न पीडति ॥१०॥ . संतिकर-स्तोत्र संतिकरं संतिजिणं, जगसरणं जय सिरीइ दायारं । समरामि भत्त पालग, निव्वाणी गरुडकय सेवं . ||१|| ॐ सनमो विप्पोसहि पत्ताणं संति सामिपायाणं, झौं स्वाहा मंतेणं, सव्वासिव दुरिअ हरणाणं ॥२॥ ॐ संति नमुक्कारो, खेलोसहिमाइलद्धि पत्ताणं । सौं ह्रीं नमो सव्वोसहि पत्ताणं च देइसिरीं ॥३|| वाणी तिहुअणसामिणि, सिरिदेवी जक्खराय गणिपिडगा । गह-दिसिपाल सुरिंदा, सयावि रक्खंतु जिणभत्ते ॥४|| रक्खंतु मम रोहिणी, पन्नत्ती वज्जसिखलाय सया। वज्जंकुसि चक्के Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतिकर-स्तोत्र सरि, नरदत्ता कालि-महकाली || गोरी तह गंधारी, महज्जाला माणवीय वइरुट्टा। अच्छुत्ता माणसिया, महामाणसियाओ देवीओ ||६|| जक्खा-गोमुह-महजक्ख, तिमुह-जक्खे-तूंबरू कुसुमो । मायंग विजया ऽजिआ, बंभो मणुओ सुरकुमारो ||७|| छम्मुह पयाल किन्नर, गरुडो गंधव्व तहय जक्खिदो। कुबेर वरुणो भिउडी, गोमेहो पासमायंगो ||८|| देवीओ चक्केसरि, अजिआ दुरिआरी कालि महकाली। अच्चुअ संता जाला, सुतारया ऽसोअ सिरिवच्छा ||९|| चंडा विजयंकुसि, पन्नइत्ति निव्वाणि अच्चुआ धरणी । वइरुट्ट छुत्तगंधारि, अंब पउमावई सिद्धा ||१०|| इअ तित्थरक्खण रया, अन्नेवि सुरासुरीय. चउहावि। वंतर जोइणी पमुहा, कुणंतु रक्खंसया अम्हं ||११|| एवं सुद्दिट्टि सुरगण, सहिओ संघस्स संति जिणचंदो। मज्झवि करेउ रक्खं, मुणिसुन्दरसूरि थुअमहिमा |१२|| इअ संतिनाह सम्म,-दिट्टि रक्खं सरइतिकालं जो। सव्वोवद्दवरहिओ स लहइ सुहसंपयं परमं ||१३|| तवगच्छगयण दिणयर, जुगवर सिरि सोमसुन्दरगुरूणं । सुपसाय लद्धगणहर, विज्जासिद्धिंभणइसीसो ॥१४|| Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता चन्द्रप्रभ-स्तोत्र चंदप्पह ! चंदप्पह !, पणमिय चरणारविंदजुयलं ते। मविय सवणामयपवं मणामि तुह चेव चरियलवं ॥१॥ धायइसंडे दीवे अहेसि तं मंगलावईविजए । मुणिरयण ! रयणसंचयपुरम्मि सिरिपउमनरनाहो ||२|| सुगुरुजुगंधरपासे निक्खमिउ चिणिय तित्थयरनामं । तुममुप्पन्नो पुन्ननिहि ! वेजयंते विमाणम्मि ||३|| तत्तो इह भरहद्धे चविउं चंदाणणाइ नयरीए। महसेनराय-पणयिणि-लक्खणदेवीइ कुच्छंसि |४|| चित्ताऽसियपंचमि निसि तं चउदससुमिणसूइओ नाह !। अवयरिओ तिन्नाणी सयलिंदनिवेइयवयारो ||| पोसाऽसियबारसि · निसि विच्छियरासिंमि सामि ! सोमंको। कासवगुत्ते जाओ तं सारयससहरच्छाओ ||६|| छप्पन्नदिसाकुमारी-चउसट्टिसुरिंदविहियसक्कारो। उज्जोइय-भुवणयलो तुह जम्ममहो य सक्कउहो ||७|| जणणी पइ गब्मगए अकासि जं चंदपाणदोहलयं । चंदप्पहु त्ति तं तुह विक्खायं तिहुयणे नामं |८|| सदृधणुसयपमाणो अढाइय पुव्वलक्खकुमरत्तं । सढे छपुव्वलक्खे चउवीसंगे य रजसिरिं ||९|| परिवालिय लोयंतिय-विवोहिओ वरिसकयमहादाणो। सिविया मणोरमाए सहसंबवणम्मि छट्टेणं|१०|| नरवइसहस्ससहिओ चरमवए चरणमेगदूसेण । पोसस्स बहुलतेरसि अवरण्हे Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रभ-स्तोत्र ३१ ते पवज्जेसि ||११|| तक्खणमणनाणजुओ अकासि तं पउमसंडनयरम्मि । वयबीयदिणे परमन्न-पारणं सोमदत्तघरे ॥१२॥ वोसठ्ठचत्ततणुणो नानादेसेसु विहरमाणस्स भयवं ते मासतिगं अहेसि छउमत्थपरियाओ ||१३|| सहसंबवणे पडिमाठियस्स छट्टेण नागतरुहिढे । तुह फग्गुणाइसत्तमि पुवण्हे केवलं जायं ॥१४|| अहसदृदुल्लक्खमुणी वीससहस्सूण-लक्खचउ समणी । तिनवइ गणा गणहरा अढाइयलक्खवरसट्टा ॥१५|| इगणवइसहस्सअहिया लक्खा चउरो गुणसढीणं । इय गुणरयणमहाघो जाओ तुह चउव्विहो संघो ॥१६|| दो-दस-चउदससहसा चउदसपुव्वधर-केवलि-विउव्वी। अट्ठसहस्सा पत्तेय-मोहि-मणपज्जवंनाणी ||१७||. वाईणसत्तसहसा छसयग्गा एस तुब्म परिवारो। तह तुच्छे दुच्छयरा विजओ जक्खो सुरा मिउडी ||१८|| अणुराहरिक्ख चउकयकल्लाण गएसु चउजमं धम्मं । चउवीसंगूण मय पज्जाउपुव्वलक्ख ते ।१९। दसपुव्वलक्खसव्वाउ पालिउं मुणिसहस्ससहिओ तं । करिउ णवोपगमं मासियमत्तेण सम्मेए ||२०|| उदहीणं नवकोडी सएसु विगएसु जिणसुपासाओ । भद्दवयकसिणसत्तमि सिवं गओ सवणरिक्खम्मि ||२१|| इय तुह सुचरियलेसं थो ऊं पत्थेमि तुममिमं चेव । कुण गुणनिहि ! चंदप्पह ! जिणप्पमत्ताण परमपयं ॥२२|| Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ स्तोत्र-रास-संहिता तीर्थमाला-स्तोत्र चउवीसंपि जिणिंदे सम्मं नमिऊणाइसरणत्थं । जत्ताऽऽराहिय तित्थं नाम संकित्तणं कुणमह ||१|| सेत्तुंजरेवय-ब्बुय तारण-सच्चउर-थंभणपुरेसु । संखेसर-फलवद्धी भरूयच्छाएसु जिणा णमिया ॥२॥ साकेय सत्ततित्थी रयणपुरे नागमहिय धम्मजिणो । उज्जेणी खउहंसे चक्केसरि उवरि रिसहजिणो ||३|| सावत्थिसंभवपहु कोसंबिपुरि पउमपहसामी। सीयलकुंथु-पमागे पासजिणो कन्नतित्थंमि ||४|| पास-सुपासा वाणा-रसीय पाडलपुरम्मि नेमिजिणो | चंदापुरीय चंदप्पहो य गंगानईतीरे ॥५॥ काकंदि पुप्फदंतो कंपिल्लपुरम्मि विमलजिणचंदो । वैभार नग य देवा मुणिसुव्वयवद्धमाणाई ॥६|| खत्तियकुंडग्गामे पावा नालिंद जंभियग्गामे । सूयरगामि अवज्झा विहार नयरीय वीरजिणो ||७|| मिहिलाए मल्लिनमी उसमजिणो पुरिमतालदुग्गम्मि | चंपाइ वासुपूज्जो नेमिजिणो सोरियपुरम्मि ||८| सिरिसंतिकुंथुअरमल्लि-सामिणो गयउरंमिपुरमहिया । अहिछत्त महुर पासो बहुविहमाहप्पमावा सो ||९|| मद्दिलपुर सीहपुरट्ठावय सम्मेयसेलपमुहाई। तित्थाई वंदियाइं निक्केवलभावजत्ताई। ||१०|| एए तित्थविसेसा जिणपहसूरिहिं वंदिया विहिणा। सव्वेवि निरुवसग्गं दितु सुहं सयलसंघस्स ||११|| जो धारइ रसणग्गे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्गहरं वृहद्-स्तोत्र थवणमिणं भावसिद्धिसंजणणं । ठाणविउ वि पाव सुतित्थजत्ताफलं विऊलं ||१२|| उपसर्गहरं वृहद्-स्तोत्र उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघण-मुक्क । क्सिहर विस-निन्नासं, मंगल-कल्लाण-आवासं ||१|| विसहर फुल्लिग मंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गहरोगमारी, दुट्ठ जरा जंति उवसामं ||२|| चिट्ठ दूरे मंतो तुज्झ, पणामोवि बहुफलो होइ । नरतिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख दोहग्गं ॥३॥ ॐ अमरतरु कामधेणु, चिंतामणि कामकुम्म माइया। सिरिपासनाह सेवा, गहाण सव्वेवि दासत्तम् ||४|| ॐ ह्रीं श्री ऐं तुह दंसणेण सामिय, पणासेइ रोग-सोग-दुक्ख-दोहग्गं । कप्पतरुमिव जायइ, ॐ तुह दंसणेण सव्व-फलहेउ स्वाहा ||५|| ॐ ह्रीं नमिउण विग्घनासय, मायाबीएण धरण नागिंदं । सिरि कामराज कलियं, पासजिणंदं नमसामि ||६|| ॐ ह्रीं श्री सिरि पास विसहर, विज्जामंतेण झाण झाएजा । धरण पउमावइ देवो, ॐ ही म्ल्यु स्वाहा ||७|| ॐ जयउ धरणिंद पउमावइ य नागिणी विज्जा । विमल झाण सहियो, ॐ ह्रीं क्षम्ल्व्यु स्वाहा ||८|| ॐ थुणामि पासनाहं, ॐ ह्रीं पणमामि परमभत्तीये । अट्ठक्खर धरणेन्दो, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ स्तोत्र-रास-संहिता पउमावइ पयडिया कित्ती |९|| जस्स पयकमलमज्ञ, सया वसइ पउमावइ य धरणिंदो। तस्स नामइ सयलं, विसहरं विसं नासेइ ||१०|| तुह सम्मत्ते लढे, चिंतामणि कप्पपाय वब्महिये । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ||११|| ॐ नट्टट्ठ भयठाणे, पणट्ट कम्मट्ठ नट्ठ संसारे। परमट्ठ निट्ठि अटे, अट्ठ गणाधीसरं वंदे ||१२|| ॐ गरुडो . विनता पुत्रो, नागलक्ष्मी महाबलः । तेण मुच्चंति मुसा, तेण मुच्चंति पन्नगाः ॥१३॥ स तुह नाम सुद्धमंतं, सम्म जो जवेइ सुद्धभावेण । सो अयरामरं ठाणं, पावइ न य दोग्गईं दुक्खं वा ||१४|| ॐ पंडु भगंदर दाहं, कासं सासं च सूलमाइणि । पास पहु पमावेण, नासंति सयल रोगाइं ह्रीं स्वाहा ||१५|| ॐ विसहर दावानल, साइणि वेयाल मारि आयंका। सिरि नीलकंठ पासस्स, सुमरण मित्तेण नासंति ॥१६!! पन्नासं गोपीडां कूरगह, तुह दंसणं मयंकाये। आवि न हुंति ए तह वि, तिसंझं जं गुणिज्जासो ||१७|| पौंड जतं भगंदर खास, सास सूल तह निव्वाह । सिरि सामल पास महंतं, नाम पउरपउलेण ||१८|| ॐ ह्रीं श्रीं धरण संजुतं, विसहर विज्जं जवेइ सुद्ध मणेणं। पावइ इच्छियं सुह, ॐ ह्रीं श्रीं म्यूँ स्वाहा 1१९॥ ॐ रोग-जल-जलण-विसहरण, चौरारि मईद गय रण भयाइं । पास-जिण-नाम-संकित्तणेण, पसमंति सव्वाई ह्रीं स्वाहा ||२०|| ॐ जयउधरणिंद नमंसिय, पउमावइ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्गहरं बृहद्-स्तोत्र ३५ पमुह निसेविय पाया । ॐ क्लीं ह्रीं महासिद्धिं करेइ पास जगनाहो ॥२१।। ॐ ह्रीं श्रीं तं नमः पासनाहं, ॐ ह्रीं श्रीं धरणेन्द्र नमंसियं दुहविणासं। ॐ ह्रीं श्रीं जस्स पभावेण सया, ॐ ह्रीं श्रीं नासंति उवद्दवा बहवे ||२२|| ॐ ह्रीं श्रीं पइ समरंताण मणे, ॐ ह्रीं श्रीं नहोइ वाहि न तं महा दुक्खं ॐ ह्रीं श्रीं नामंपि हि मंतसमं, ॐ ह्रीं श्रीं पयडं नत्थीत्थ संदेहो ॥२३॥ ॐ ह्रीं श्रीं जल-जलण-भय, तह सप्पसिंह, ॐ ह्रीं श्रीं चोरारि संभवे खिप्पं'। ॐ ह्रीं श्रीं जो समरेइ पास पहुं, ॐ ह्रीं क्लीं पुहविकयावि किं तस्स ||२४|| ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रीं इह लोगट्ठी परलोगट्ठी, ॐ ह्रीं श्रीं जो समरेइ पासनाहं ॐ ह्रां ह्रीं ह ह गाँ गी गुं गैं, तं तह सिज्झइ खिप्पं ॥२५|| इह नाह स्मरह भगवंत, ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ग्राँ नीj | क्लीं क्ली, श्री कलिकुंड स्वामिने नमः ॥२६|| इह संथुओ महायस, भत्तिब्भर निब्मरेण हियएण। ता देव दिज्ज बोहिं, भवे-भवे पास जिणचंद ॥२७॥ आदिदेव-स्तोत्र सिरि रिसहनाह तुह पयनहकंतीओ जयंतु तिजयस्स। जंतीओ वज्जपंजरभाव भावारिभीयस्स ||१|| तुह कमकमलं विमलं दटुं दुराउ देव पइदिवसं । धन्ना Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता कलिमल-मुक्का रायमरालुव्व धावंति ||२|| असरिसमव-दुहदंदोलिघोलियाण जियाण जयनाह । तं चिय इक्को सरणं सीयत्ताणं व दिणनाहो ॥३|| तिहुयणपहु ! अमयं पिव सम्मं तुह पवयणे परिणयंमि । अजरामरभाव खलु लहंति लहु लहुय कम्माणो ||४|| देव ! वरनाण-दंसण-'. दुहावि तुह दंसणेण देहीणं । नीरेणं चीवराणं खणेण खयमेइ मालिन्नं ||५|| तुहसमरणेण सामिय ! किलिट्ठ- . कम्मोवि सिज्झए जीवो । किं न हु जायइ कणगं लोहंपि. रसस्स फरिसेणं ||६|| पहु ! तुह गुणथुणणेणं विसुद्धचित्ताण भवियसत्ताणं । घणनीरेण व जंबूफलाई विगलंति पावाई ||७|| दंसण-पवणे नयणे भालं नालं हवइ तुह नेमणे । ता पच्चक्खीमावं लहु मह तिजईस ! वियरेसु ||८|| इय संथुओसि देविंदविंदवंदिय ! जुगाइजिणचंद ! मह देसु निप्पकपं भवे-भवे नियपए भत्ति ॥९|| महावीर-स्तोत्र जइजा समणो, भयवं, महावीरे जिणुत्तमे। लोगनाहे सयंबुद्धे, लोगंतिविबोहिए ||१|| वच्छरं दिण्णदाणोहे, संपूरियजणासए । नाणत्तयसमाउत्ते, पुत्ते सिद्धत्थराइणो |२|| चिच्चा रज्जं च रठं च, पुरं अंतेउरं तहा। निक्खमित्ता आगाराओ, पव्वइए अणगारियं ||३|| परी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहावीर स्तोत्र ३७ सहाण नो भीए, भेरवाण खमाखमे। पंचहा समिए गुत्ते, बंभयारी अकिंचणे ॥४|| निमम्मे निरहंकारे, अकोहे माणवज्जिए । अमाए लोमनिम्मुको, पसंते छिन्नबंधणे ||| पुक्खर व अलेवे य, संखो इव निरंजणे । जीवे वा अप्पडिग्घाए, गयणं व निरासए ॥६|| वाए वा अपडिबद्धे, कुम्मो वा गुत्तइंदिए । विप्पमुक्को विहंगुव्व, खग्गिसिंगव्व एगगे ||७|| भारंडे वाऽपमत्ते य, वसहे वा जायथामए । कुंजरो इव सोंडीरे, सीहो वा दुद्धरिस्सए |८|| सागरो इव गंभीरे, चन्दो व सोमलेसए । सूरो वा दित्ततेउल्ले, हेमं वा जायरूवए ||९|| सव्वंसहे धरित्ति व्व, सायरिंदु व्व सच्छहे। सुठ्ठ हुयहुआस व्व, जलमाणे य तेयसा ॥१०॥ वासी - चंदणकप्पे य, समाणे लेढुकंचणे । समे पूयावमाणेसु समे मुक्खे भवे तहा ||११|| नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेणमणुत्तरे। आलएणं विहारेणं, मद्दवेणऽज्जवेण य ||१२|| लाघवेणं च खंतीए, गुत्ती मुत्ती अणुत्तरे । संजमेण तवेणं च, संवरेणमणुत्तरे ॥१३|| अणेगगुणगणाइण्णे, धम्मसुक्काण झायए । घाइक्खएण संजाए अणंतवरकेवली ||१४|| वीयराए य निग्गंथे, सव्वन्नू सव्वदंसणे। देविंद-दाणविदेहि, निव्वत्तिय-महामहे ॥१५॥ सव्वमासाणुगाए य, मासाए सव्वसंसए । जुगव सव्वजीवाणं, छिदिउं भिंतगोयरे ||१६|| हिए सुहे य निस्सेसकारए सव्वपाणिणं । महन्वयाणि पंचे व पणवित्ता समावणे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ स्तोत्र-रास-संहिता ॥१७|| संसारसायरे बुड्ड-जंतु - संताण तारए । जाणव्व देसियं तित्थं, संपत्ते पंचमि गई ॥१८|| से सिवे अयले निच्चे, अरुए अयरामरे । कम्मप्पवंचनिम्मुक्के, जए वीरे जए जिणे ||१९|| से जिणे वद्धमाणे य, महावीरे महायसे। असंखदुक्ख-खिण्णाणं, अम्हाणं देउ निव्वुइं ॥२०|| इय. परमपमोआ संथुओ वीरनाहो, परमपसमदाणा देउ तुल्लतणं मे। असमसुहदुहेसु सग्गसिद्धीमवेसुं, कणय-कय-. वरेसुं सत्तुमित्तेसु वावि |२१|| पयडी व सइ पहाणं, सीसेहिं जिणेसराण सुगुरूणं । वीरजिण-थवं एयं, पढउ कयं. अभयसूरी हिं ॥२२॥ भक्तामर स्तोत्र भक्तामरप्रणत-मौलि-मणि-प्रमाणा- मुद्योतकं दलितपाप-तमो-वितानम्। सम्यक् प्रणम्य जिन ! पाद-युगं युगादा-वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥१।। यः संस्तुतः सकलवाङ्मय-तत्त्व-बोधा, दुइभूत-बुद्धि-पटुमिः सुरलोकनाथैः। स्तोत्रैर्जगत्रितयचित्त-हरैरुदारैः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ||२|| बुद्ध्या विनापि विबुधार्चितपादपीठ ! स्तोतुं समुद्यत-मति-विंगत-त्रपोऽहम् बालविहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब, मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३|| वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभक्तामर स्तोत्र ३९ शाशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या कल्पान्तकाल-पवनोद्धतनक्र-चक्र, को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ||४|| सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश !, कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम् ? ||५|| अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत् कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारु-चाम्र-कलिका-निकरैकहेतुः ।६। त्वत्संस्तवेन भव-संतति-संनिबद्धं, पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर-माजाम् । आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्यांशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ||७|| मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद, मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलद्य तिमुपैति ननूद-बिन्दुः ॥८| आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्र-किरणः कुरुते प्रभव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाञ्जि ||९|| नात्यद्भुतं भुवन-भूषण ! भूतनाथ ! भूतैर्गुणैर्मुवि भवन्तममिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रितं य इह नात्म-समं करोति ? ||१०|| दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशि-कर-द्य ति दुग्धसिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेरशितुं क इच्छेत् ? ||११॥ यः शान्तराग Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० स्तोत्र-रास-संहिता रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललामभूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं न हि रूप-मस्ति ॥१२॥ वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरगनेत्रहारि, निःशेष-निजितजगत्रितयोपमानम् । बिम्ब कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डु पलाशकल्पम् ॥१३॥ सम्पूर्ण-मण्डल-शशांककलाकलाप,-शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति । ये संश्रितास्त्रि-जगदीश्वर-नाथमेकं, कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ||१४|| चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्हतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन, किं मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित् ? |१५|| निर्धूमवर्तिरपज्जिततैलपूरः, कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिता-चलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ॥१६|| नास्त कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोदर-निरुद्धमहाप्रभावः, सूर्यातिशायि-महिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके ॥१७|| नित्योदयं दलितमोह-महान्धकारं, गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प-कान्ति, विद्योतयज्जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम् ॥१८|| किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमस्सुनाथ ! निष्पन्न-शालि-वनशालिनि जीव-लोके, कार्य कियजल Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभक्तामर स्तोत्र धरैर्जल-भारनम्रः ॥१९॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥ मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भूवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥ २१ ॥ स्त्रीणांशतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्यासुतं त्वदुपमं जननी-प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानु सहस्ररश्मिं, प्राच्येवदिग जनयति स्फुरदंशुजालम् ||२२|| त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस, - मादित्य-वर्णममलं तमसः परस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यं, नान्यः शिवः शिव पदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः ॥२३|| त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्य, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४ ॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्, त्वं शंकरोऽसिभुवनत्रयशंकरत्वात्। धाताऽसि धीर ! शिवमार्ग विधेविधानाद्, व्यक्त त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोसि ॥२५|| तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ । तुभ्यं नमः क्षितितलामल-भूषणाय ।तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-शोषणाय ॥२६॥ को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेष, स्त्वंसंश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वे, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ स्तोत्र-रास-संहिता स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिद-पीक्षितोऽसि ॥ २७ ॥ उच्चैरशोक-तरुसंश्रितमुन्मयूख,-माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्। स्पष्टोल्लसत्किरण-मस्ततमो-वितानं, बिम्ब रवेरिव पयोधर-पार्श्ववति ॥ २८ ॥ सिंहासने मणि-मयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिम्बं वियद्विलसदंशुलता-वितानं, तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥ २९ ॥ कुन्दावदात-चलचामर-चारुशोभ, विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कान्तम् । उद्यच्छशाङ्कशुचि-निर्झरवारिधार-मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०|| छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्त, ,मुच्चैःस्थितं स्थगित-भानुकर-प्रतापम् । मुक्ताफल प्रकरजालविवृद्धशोमं, प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१|| उन्निद्र-हेम-नव-पङ्कज-पुञ्ज-कान्ति, पर्युल्लसन्नखमयूख-शिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३२॥ इत्थं यथा तव विभूतिरभूजिनेन्द्र ! धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य । यादृक् प्रमा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, ताक् कुतो ग्रह-गणस्य विकाशिनोऽपि ।३३। ३च्योतन्मदाविलविलोलकपोल-मूल, मत्त-भ्रमद्-भ्रमरनाद-विवृद्धकोपम् । ऐरावताममिममुद्धतमापतन्तं, दृष्ट्वा . भयं भवति नो भवदा श्रितानाम् ||३४|| भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वल - शोणिताक्त, - मुक्ताफल-प्रकर भूषित Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभक्तामर स्तोत्र ४३ भूमिमागः । बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥३५॥ कल्पान्त-काल-पवनोद्धतवहिकल्पं, दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम् । विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ||३६|| रक्त क्षणं समदकोकिल-कण्ठनीलं, क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् । आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशङ्कस-त्वन्नामनाग-दमनी हृदि यस्य पुंसः ॥३७|| वलगत्तुरंङ्ग-गजगर्जित-भीम-नाद, -माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम् उद्यद्दिवाकर-मयूख-शिखा-पविद्धं, त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥३८|| कुन्ताग्रभिन्न-गज-शोणित-वारिवाह, वेगाव-तार-तरणातुरयोधमोमे । युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-त्वत्पादपङ्कजवनायिणो लभन्ते ॥३९|| अम्मोनिधौ क्षुभितभीषणनचक्रं, पाठीनपीठ-भयदोल्वण-वाडवाग्नौ रङ्गत्तरङ्ग शिखर स्थित-यानपात्रा,-स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥४०|| उद्भत भीषण-जलोदर-भार भुग्नाः , शोच्यां दशामुपगताश्च्युत-जीविताशाः । त्वत्पाद-पङ्कजरजोऽमृतदिग्धदेहा, मा भवन्ति मकरध्वज-तुल्य रूपाः ॥४१|| आपाद-कण्ठ-मुरु-शृंखल-वेष्टितांगा, गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्टजंघाः । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-मया भवन्ति ॥४२॥ मत्तद्विपेन्द्रमृगराज - दवानलाहि, - संग्राम-वारिधिमहोदर Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता बन्धनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं मियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४३|| स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र ! गुणैर्निबद्धां, भक्तया मया रुचिर-वर्ण विचित्रपुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्र, तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४४|| - कल्याणमन्दिर-स्तोत्र - कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदि, भीता भयप्रदमनिन्दितमङ्घ्रिपद्मम्। संसारसागर-निमजदशेष - जन्तु, पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ||१|| यस्य स्वयं सुरगुरुगरिमाम्बुराशेः, स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो, स्तस्याहमेषकिल संस्तवनं करिष्ये ॥२॥ सामान्यतोऽपि तव वर्ण यितुं स्वरूप-मस्मादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः ! | धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्य दि वा दिवान्धो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मे ? ||३|| मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मर्यो, नूनं गुणान् गणयितुं न तव क्षमेत । कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मान्मीयेत केन जलधेननु रत्न-राशिः ? ||४|| अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जड़ाशयोऽपि, कर्तुंस्तवलसदसंख्यगुणाकरस्य । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिर-स्तोत्र बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाऽम्बुराशेः? |५|| ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश ! वक्तुं कथंभवति तेषु ममावकाशः ? । जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं, जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि !|६|| आस्ताम-चिन्त्यमहिमा जिन ! संस्तवस्ते, नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्थ-जनानिदाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ||७|| हृत्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः। सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग, - मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य |८|| मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र ! , रौद्ररुपद्रव-शतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे, चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥९॥ त्वं तारको जिन ! कथं भविनां ! त एव, त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तरति यजलमेष नून-,मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः||१०|| यस्मिन् हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः, सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाऽथ येन पीतं, न किं तदपि दुर्धरवाडवेन ! ||११|| स्वामिन्ननल्पगरि माणमपि प्रपन्ना,-स्त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः। जन्मोदधिं प्रति-तरन्त्यति लाघवेन, चिन्त्यो न हंत महतां यदि वा प्रभावः ॥१२॥ क्रोधस्त्वया यदि विभो! प्रथमं निरस्तो, ध्वस्तास्तदा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता वत कथं किल कर्मचौराः ! । प्लोषत्यमुत्र यदि वा. शिशिराऽपि लोके, नीलद्र माणि विपिनानि न कि हिमानी ! ||१३|| त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप,-मन्वेषयंति हृदयाम्बुजकोशदेशे। पूतस्य निर्मलरुचेर्यदि वा किमन्य, दक्षस्य संभवि पदं ननु कर्णिकायाः ! ||१४|| ध्यानाजिनेश ! भवतो भविनः क्षणेन, देहं विहाय. परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके, चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥ १५ ॥ अंतः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं, भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् ! । एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि, यद्विग्रहं प्रशमयंति महानुभावाः ॥ १६ ॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्या, ध्यातो जिनेन्द्र ! मवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचित्यमानं, किं नाम नो विषविकारमपा-करोति ! ॥ १७ ॥ त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि, नूनं विभो ! हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । किं काचकामलिमिरीश ! सितोऽपि शङ्खो, नो गृह्यते ? विविधवणीवपर्ययेण ||१८|| धर्मोपदेशसमये सविधानुभावादास्तां जनो भवति.ते तरुरप्यशोकः। अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि, किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ? ||१९|| चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुखवृतमेव, विष्वक् पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश !, गच्छंति नूनमध एव हि बंधनानि Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण मन्दिर-स्तोत्र 86 • ||२०|| स्थाने गभीरहृदयोदधिसंभवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परमसंमदसंगमाजो, भव्या जंति तरसाऽप्यजरामरत्वम् ||२१|| स्वामिन् ! सुदूरमवनम्य समुत्पतंतो, मन्ये वदंति शुचयः सुरचामरौघाः। येऽस्मै नतिं विदधते मुनि-पुंगवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धमावाः ॥२२॥ श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्न, सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम् । आलोकयंति रमसेन नदंतमुच्चे, - श्चामी-करादिशिरसीव नवांबुवाहम् ।।२३|| उद्गच्छता तव शितिद्य तिमण्डलेन, लुप्तच्छदच्छ-विरशोकतरुर्बभूव । सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग !, नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ! ||२४|| भो भोः प्रमादमव-धूय भजध्वमेन, मागत्य निवृतिपुरी प्रति सार्थवाहम् । एतन्निवेदयति देव ! जगत्त्रयाय, मन्ये नदन्नभिनमः सुरदुन्दुभिस्ते ॥ २५ ॥ उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ !, तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः। मुक्ताकलापकलितोच्छ्वसितातपत्र, व्याजास्त्रिधा धृततनु-ध्रवमभ्युपेतः ॥२६|| स्वेन प्रपूरितजगत्त्रय-पिण्डितेन, कांतिप्रतापयशसामिव सच्चयेन । माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन, सालत्रयेण भगवन्नभितोविमासि ॥२७॥ दिव्यस्रजो जिन ! नमत्त्रिदशाधिपाना, मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबंधान | पादौ अयंन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमन्त Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता एव ||२८|| त्वं नाथ ! जन्मजलधेविपरांमुखोऽपि, यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठ लग्नान् । युक्त हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव, चित्रं विभो ! यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥२९॥ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं, किंबाऽक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश ! | अज्ञानवत्यपि सदेव कथञ्चिदेव, ज्ञानं त्वयि स्फुरतिविश्वविकाशहेतुः ||३०|| प्रारभारसंभृतनभांसि रजांसि रोषा-दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापिऽतैस्तव न नाथ ! हता हताशो, ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥ ३१ ॥ यद्ाजदूजितघनौघमदभ्रमीम, भ्रश्यत्तंडिन्मुसलमांसलघोरधारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दध्र, तेनैव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् ॥३२|| ध्वस्तोर्ध्वकेशरिकृताकृतिमय॑मुण्ड-प्रालम्बभृद्धयदवक्त्रविनियंदग्निः प्रेतवूजः प्रति भवंतमपीरितो यः, सोऽस्यामवत्प्रतिमवं भवदुःखहेतुः ॥३३|| धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसंध्य-मारा-धयंति विधिवद्विधान्यकृत्यैः । भक्त्योल्ल-सत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशाः, पादद्वयं तव विभी! भुवि जन्ममाजः ॥३४|| अस्मिन्नपारामववारिनिधौ मुनीश ! मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि । आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमंत्रे किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति! |३५|| जन्मांतरेऽपि तव पाद युगं न देव !, मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतन महं Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिर-स्तोत्र 88 मथिताशयानाम् ॥३६|| नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि ! मर्माविधो विधुरयंति हि मामनर्था, प्रोद्यत्प्रबंधगतयः कथमन्यथते ? ३७ आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, न्नं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव! दुःखपात्रं, यस्मात्क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८|| त्वं नाथ ! दुःखिजनवत्सल हे शरण्य, कारुण्यपुण्यवसते वशिनां वरेण्य । भक्त या नते मयि महेश ! दयां विधाय दुःखांकुरोद्दलनतत्परतां विधेहि ॥३९|| निसङ्ख्यसार शरणं शरणं शरण्य-मासाद्य सादितरिपुप्रथितावदातम् । त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधान बंध्यो, वध्योऽस्मि चेद् भुवनपावन ! हा. हतोऽस्मि ॥४०|| देवेन्द्रवन्ध ! विदिता-खिलवस्तुसार ! संसारतारक विभो ! 'भुवनाधिनाथ । त्रायस्व देव ! करुणाहृद मां पुनीहि, सीदन्तमद्य मयंद व्यसनाम्बुराशेः ॥४१|| यद्यस्ति नाथ ! भवन्दङिघसरोरुहाणां, भक्तः फलं किमपि संततिसंचितायाः । तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः, स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ||४२|| इत्थं समाहितधियो विधिवजिनेन्द्र!, सान्द्रोल्लसत्पुलककञ्चुकितांगमागाः । त्वद्विम्बनिर्मलमुखाम्बुजबद्धलक्षघ्या,ये संस्तवं तव विमो!रचयन्तिभव्याः ॥४३|| जननयनकुमुदचन्द्र!प्रभास्वराः स्वर्गसंपदो भुक्त्वा । ते विगलित-मलनिचया, अचिरान्मोक्षप्रपद्यते ॥४४|| Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० स्तोत्र-रास-संहिता वृहद् शान्तिः भो भो मव्याः ! शृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्वमेतद्, ये यात्रायां त्रिभुवनगुरोराहतामक्तिमाजः । तेषां शान्तिर्मवतु भवतामहदादि-प्रमावा, दारोग्य श्रीधृति-मतिकरी क्लेशविध्वंस-हेतुः ॥१॥ मो मो भव्यलोका ! इह हि भरतैरावतविदेहसम्भवानां, समस्त-तीर्थकृतां जन्मन्यासन-प्रकम्पानन्तर-मवधिना विज्ञाय सौधर्माधिपतिः सुघोषाघण्टाचालनानन्तरं सकल-सुरासुरेन्द्रः सह समागत्य सविनयमहद्भट्टारकं गृहीत्वा गत्वा कनकाद्रि,गे विहितजन्माभिषेकः शान्ति-मुद्घोषयति, ततोऽहं कृता नुकारमिति कृत्वा-महाजनो येन गतः स पंथाः' इति भव्य जनैः सह समागत्य, स्नात्रपीठे स्नात्रं विधाय शान्तिमुद्घोषयामि । तत्पूजायात्रा-स्नात्रादि-महो त्सवानन्तरम्, इति कृत्वा कर्ण दत्त्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा । ॐ पुण्याहं पुण्याहं प्रीयन्तां प्रोयन्तां भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः त्रैलोक्यनाथाः त्रैलोक्य महिताः, त्रैलोक्य-पूज्याः, त्रैलोक्येश्वराः त्रैलोक्योद्योतकराः । ॐ श्री केवलज्ञानी-निर्वाणी सागर, महायश, विमल, सर्वानुभूति, श्रीधर,दत्त, दामोदर, सुतेज, स्वामी, मुनिसुव्रत, सुमति, शिवगति, अस्ताघ, नमीश्वर, अनिल, यशोधर, कृतार्थ, जिनेश्वर, शुद्धमति, शिवकर, स्यन्दन, संप्रति, एते अतीतचतुर्विशति, तीर्थङ्कराः। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहद् शान्तिः-स्तोत्र .५१ ॐ श्रीऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रम, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि मुनिसुव्रत,नमि, नेमि, पार्व, वर्द्धमान एते वर्तमान जिनाः। - ॐ श्रीपद्मनाभ, शूरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रम,सर्वानुभूति देवश्रुत, उदय, पेढाल, पोट्टिल, शतकीर्ति, सुव्रत, अमम, निष्कषाय, निष्पुलाक, निर्मम, चित्रगुप्त, समाधि, संवर, यशोधर, विजय, मल्लि, देव, अनन्तवीर्य्य, भद्रं कर, एते भावि-तीर्थंकराः जिनाः शान्ताः शान्तिकरा भवन्तु । ॐमुनयो मुनिप्रवरा रिपुविजय-दुर्भिक्षकान्तारेषु दुर्ग-मार्गेषु रक्षन्तु वो नित्यम् । ॐ श्रीनामि, जितशत्रु, जितारि, संवर, मेघ, धर, प्रतिष्ठ, महसेन, सुग्रीव, दृढरथ, विष्णु, वसुपूज्य, कृतवर्म, सिंहसेन, मानु, विश्वसेन, सूर, सुदर्शन, कुम्भ, सुमित्र, विजय, समुद्रविजय, अश्वसेन, सिद्धार्थ, इति वर्तमान-चतुर्विंशति-जिन-जनकाः । ___ ॐ श्री मरुदेवी, विजया, सेना, सिद्धार्था, सुमंगला, सुसीमा, पृथ्वीमाता, लक्ष्मणा, रामा, नन्दा, विष्णु, जया, श्यामा, सुयशा, सुव्रता, अचिरा, श्री, देवी, प्रभावती, पद्मा, वप्रा, शिवा, वामा, त्रिशला, इति वर्तमान-जिनजनन्यः । ___ॐ श्री गोमुख, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षनायक, तुम्बुरु Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ स्तोत्र-रास-संहिता कुसुम, मातंग, विजय, अजित, ब्रह्मा, यक्षराज, कुमार, षण्मुख, पाताल, किन्नर, गरुड, गन्धर्व, यक्षराज, कुबेर वरुण, भृकुटी, गोमेध, पाश्र्व, ब्रह्मशान्ति, इति वर्तमानजिनयक्षाः । ॐ चक्रेश्वरी, अजितबला, दुरितारि, काली; महाकाली, श्यामा, शान्ता, भृकुटि, सुतारका, अशोका, मानवी, चण्डा, विदिता, अंकुशा, कन्दर्पा, निर्वाणी, बला, . धारिणी, धरणप्रिया, नरदत्ता, गान्धारी, अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका, इति वर्तमान-चतुर्विंशतितीर्थंकरशासनदेव्यः । ॐ ह्रीं श्रीं धृतिमति-कीर्ति-कान्ति-बुद्धि-लक्ष्मी-मेधाविद्या साधन-प्रवेश-निवेशनेषु सुगृहीतनामानो जयन्तु ते जिनेन्द्राः। ॐ रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला, वज्रांकुशा, चक्रेश्वरी, पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, गान्धारी सर्वास्त्रमहाज्वाला, मानवी, वैरोट्या, अच्छुप्ता, मानसी, महामानसी. एताः षोडश विद्यादेव्यो रक्षन्तु मे स्वाहा । ॐ आचार्योपाध्यायप्रभृति चातुर्वर्णस्य श्रीश्रमण-संघस्य शान्ति-भवतु तुष्टिर्मवतु पुष्टिर्मवतु । ॐ ग्रहाश्चंद्र-सूर्यांऽ गारकबुध-बृहस्पति - शुक्र-शनैश्चर-राहु - केतु - सहिताः सलोकपालाः सोम-यम-वरुण-कुबेर-वासवादित्य स्कन्दविनायकोपेता ये चान्येऽपि ग्राम-नगर-क्षेत्रदेवतादयस्ते Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहद् शान्तिः-स्तोत्र ५३ सर्वे प्रीयन्तां प्रीयन्तां अक्षीण-कोश-कोष्ठागारा नरपतयश्च भवन्तु स्वाहा । ॐ पुत्रमित्रभ्रातृ-कलत्र-सुहृत्-स्वजनसम्बन्धि-बन्धु-वर्गसहिताः नित्यं चामोद-प्रमोद-कारिणो भवन्तु। अस्मिश्च भूमण्डले आयतन-निवासिनां साधुसाध्वी-श्रावक-श्राविकाणां रोगोपसर्ग-व्याधि-दुःख-दुर्मिक्षदौर्मनस्योपशमनाय शान्तिर्भवतु । ॐ तुष्टि-पुष्टि ऋद्धिवृद्धि-मांगल्योत्सवा भवन्तु । सदा प्रादुर्भूतानि दुरितानि पापानि शाम्यन्तु, शत्रवः पराङ्मुखा भवन्तु स्वाहा । श्रीमते शान्तिनाथाय नमः शान्तिविधायिने । त्रैलोक्यस्यामराधीश मुकुटाभ्यचिंताङघ्रये ||१|| शान्तिः शान्तिकरः श्रीमान्, शान्ति दिशतु मे गुरुः । शान्तिरेव सदा तेषां येषां शान्ति हे गृहे ||२|| ॐ उन्मृष्टरिष्ट-दुष्टग्रह-गति दुःस्वप्न-दुनिमित्तादि । सम्पादित-हित-संपन्नामग्रहणं जयतु शान्तेः ॥३॥ श्रीसंघ-पौर जन-पद, राजाधिप-राजसंन्निवेशानाम् । गोष्ठिक-पुरमुख्याणां, व्याहरणैाहरेच्छान्तिम् ॥४|| श्रीश्रमणसंघस्य शान्तिभवतु, श्रीपौर-लोकस्य शान्तिमवतु, श्री जनपदानां शान्तिर्भवतु, श्रीराजाधिपानां शान्तिर्भवतु श्रीराजसन्निवेशानां शान्तिर्मवतु, श्रीगोष्ठिकानाम् शान्तिर्भवतु । ॐ स्वाहा ॐ स्वाहा ॐ ह्रीं श्रीं पार्श्वनाथाय स्वाहा । एषा शान्तिःप्रतिष्ठा-यात्रा-स्नात्राद्यवसानेषुशान्तिकलशंगृहीत्वा कुंकुम-चन्दन-कर्पूरा-गुरु-धूप वास कुसुमाञ्जलि-समेतः Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ स्तोत्र-रास-संहिता स्नात्रपीठे श्रीसंघसमेतः शुचिः शुचिवपुः पुष्पवस्त्रचन्दनामरणालंकृतः, चन्दनतिलकं विधाय पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा शान्तिमुद्घोषयित्वा शान्ति-पानीयं मस्तके दातव्यमिति । नृत्यन्ति नृत्यं मणिपुष्प-वर्ष, सृजन्ति गायन्ति च मंगलानि | स्तोत्राणि गोत्राणि पठन्ति. मन्त्रान्, कल्याणमाजो हि जिनाभिषेके ॥१|अहं तित्थयर-माया, सिवादेवी तुम्ह-नयर-निवासिनी अम्ह.. सिवं तुम्ह सिवं, असिवोवसमं सिवं भवतु स्वाहा ||२|| शिवमस्तु सर्वजगतः, परहित-निरता भवन्तु भूत-गणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवन्तु लोकाः ||३|| उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे ||४|| सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् ||५|| जिनपञ्जर-स्तोत्र ॐ हो श्री अहँ अर्हद्भ्यो नमोनमः । ॐ हो श्री अहं सिद्धेभ्यो नमोनमः । ॐ ह्रीं श्रीं अहं आचार्येभ्यो नमोनमः । ॐ ह्रीं श्री अहं उपाध्यायेभ्यो नमोनमः । ॐहों श्रीं अहं श्री गौतमस्वामिप्रमुखसर्वसाधुभ्यो नमोनमः ||१|| एष पंच-नमस्कारः, सर्व-पापक्षयंकरः । मंगलानां Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनपञ्जर-स्तोत्र ५५ च सर्वेषां, प्रथमं भवति मंगलम् ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री जये विजये, अहं परमात्मने नमः | कमल-प्रभसूरीन्द्रो, भाषते जिनपञ्जरम् ॥३॥ एकभक्तोपवासेन, त्रिकालं यः पठेदिदम् । मनोऽभिलषितं सर्व, फलं स लमते ध्र वम् ||४|| भूशय्याब्रह्मचर्येण, क्रोधलोमविवर्जितः । देवताग्रे पवित्रात्मा, षण्मासैलभते फलम् ॥५|| अहंतं स्थापयेद् मूटिन, सिद्धं चक्षुर्ललाटके । आचार्य श्रोत्रयोर्मध्ये, उपाध्यायं तु घाणके ||६|| साधुवृन्दं मुखस्याने, मनः शुद्धं विधाय च । सूर्य-चन्द्र-निरोधेन, सुधीः सर्वार्थसिद्धये ||७|| दक्षिणे मदन-द्वेषी, वाम-पार्वे स्थितो जिनः । अंगसंधिषु सर्वज्ञः, परमेष्ठी शिवङ्करः ||८|| पूर्वाशां श्री जिनो रक्षे,दाग्नेयीं विजितेन्द्रियः । दक्षिणाशां परब्रह्म, नैऋती च त्रिकालवित् ||९|| पश्चिमाशां जगन्नाथो, वायवीं परमेश्वरः। उत्तरां तीर्थकृत् सर्वामीशानी च निरंजनः ||१०|| पातालं भगवानहन्नाकाशं पुरुषोत्तमः । रोहिणीप्रमुखा देव्यो, रक्षन्तु सकलं कुलम् • ||११|| ऋषमो मस्तकं रक्षे-दजितोऽपि विलोचने । संभवः कर्ण-युगलं, नासिकां चाभिनन्दनः ॥१२|| ओष्ठौ श्रीसुमती रक्षेद्, दन्तान् पद्मप्रभो विभुः जिह्वां सुपार्श्वदेवोऽयं, तालु चन्द्रप्रभो विभुः ॥१३|कण्ठं श्रीसुविधि रक्षेद्, हृदयं श्रीसुशीतलः । श्रेयांसो बाहुयुगलं, वासुपूज्यः कर-द्वयम् ||१४|| अंगुलीविमलो रक्षेद्, अनन्तोऽसौ स्तनावपि । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता सुधर्मोऽप्युदरास्थीनि, श्रीशान्ति भि-मण्डलम् ||१५|| श्रीकुन्थुर्गुह्यकं रक्षे-दरो रोम-कटी-तटम् । मल्लिरूरू पृष्ठिवंशं जंघे च मुनिसुव्रतः ||१६|| पादाङ्गुलीनमी रक्षेत्, श्रोनेभिश्चरणद्वयम् । श्रीपार्श्वनाथः सर्वांगं, वर्धमानश्चिदात्मकम् ॥१७|| पृथिवीजलतेजस्क-वाय्वाकाशमयं. जगत् रक्षेदशेष-पापेभ्यो, वीतरागो निरंजनः ||१८|| राजद्वारे श्मशाने वा, संग्रामे शत्रुसंकटे । व्याघूचोराग्निसर्पादिभूत-प्रेत-मयाश्रिते ||१९| अकाले-मरणे-प्राप्ते, . दारिद्रद्यापत्समाश्रिते । अपुत्रत्वे महादोषे, मूर्खत्वे रोगपीडिते ॥२०|| डाकिनी-शाकिनी-ग्रस्ते, ' महा-ग्रहगणादिते । नद्य तारेध्व-वैषम्ये, व्यसने चापदि स्मरेत् ||२१|| प्रातरेव समुत्थाय, यः स्मरेजिनपञ्जरम् । तस्य किञ्चिद्भयं नास्ति, लमते सुखसंपदम् ॥२२॥ जिनपञ्जरनामेदं, यः स्मरत्यनुवासरम् । कमलप्रमराजेन्द्र, श्रियं सलमते नरः ||२३|| प्रातः समुत्थाय पठेत् कृतज्ञो, यः स्तोत्रमेतज्जिनपञ्जराख्यम् । आसादयेत्स कमलप्रमाख्या, लक्ष्मी मनोवांच्छित पूरणाय ॥२४|| श्रीरुद्रपल्लीय-वरेण्यगच्छे, देवप्रभाचार्य-पदाब्जहंसः । वादीन्द्र-चूडामणिरेष जैनो जीयाद् गुरुः श्रीकमलप्रमाख्यः ॥२५॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीऋषिमण्डल-स्तोत्र ५७ श्री ऋषिमण्डल-स्तोत्र आद्यन्ताक्षर-संलक्ष्य, मक्षरं व्याप्य यत् स्थितम् । अग्नि-ज्वाला-समं नाद-बिन्दु-रेखा-समन्वितम् ॥१॥ अग्नि-ज्वाला समाक्रान्तं, मनोमल-विशोधकम् । देदीप्यमानं हृत्पद्म, तत्पदं नौमि निर्मलम् ||२|| अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणिदध्महे ||३|| ॐ नमोऽर्हदम्य ईशेभ्यः ॐ सिद्धेभ्यो नमोनमः। ॐ नमः सर्वसूरिभ्य उपाध्यायेभ्यः ॐ नमः ||४|| ॐ नमः सर्वसाधुभ्यः ॐ ज्ञानेभ्यो नमोनमः । ॐ नमस्तत्त्वदृष्टिभ्यश्चारित्रेभ्यस्तु ॐ नमः ||५|| श्रेयसेस्तु श्रियेस्त्वे-तंदर्हदाद्यष्टकं शुभम् । स्थानेष्वष्ट सुविन्यस्तं, पृथग्बीजसमन्वितम्' ||६|| आद्य पदं शिखां रक्षेत्, परं रक्षेत्तु मस्तकम् । तृतीयं रक्षेने त्रे द्वे, तुर्यरक्षेच्चनासिकाम् ॥७॥ पंचमं तु मुखं रक्षेत्, षष्ठरक्षेच्च घण्टिकाम् । नाभ्यन्तं सप्तमं रक्षेद्, रक्षेत् पादान्तमष्टमम् ||८|| पूर्वप्रणवतः सान्तः सरेको द्यब्धिपञ्चषान् । सप्ताष्टदशसूर्याकान्, श्रितो बिन्दुस्वरान् पृथक्|९|| पूज्यनामाक्षरा आद्या पंचते ज्ञानदर्शने-चारित्रेभ्यो नमो मध्ये, ही सान्तसमलंकृतः ॥१०॥ ॐ हाँ, ही, ह, हू, हे, है, हौं, हः, असिआउसासम्यकज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यो हीं नमः जम्बू-वृक्षधरो द्वीपः, क्षारोदधिसमावृतः । अर्ह Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता दाद्यष्टकैरष्टकाष्ठाधिष्ठरलंकृतः ॥११॥ तन्मध्य-संगतो मेरुः, कूटल:रलंकृतः । उच्चै रुच्चैस्तरस्तार,-स्तारामण्डलमण्डितः ॥१२॥ तस्योपरि सकारान्तं, बीजमध्यस्य सर्वगम् । नमामि बिम्बमार्हन्त्यं, ललाटस्थं निरंजनम् ||१३|| अक्षयं निर्मलं शान्तं, बहुलं जाड्यतोज्झितम् । निरीहं निरहङ्कारं, सारं सारतरं घनम् ||१४|| अनुद्धतं शुमं स्फीतं, सात्त्विकं राजसं मतम् । तामसं चिरसंबुद्धं तैजसं शर्वरीसमम् ॥१५|| साकारं च निराकारं, सरसं विरसं परम् । परापरं परातीतं, परंपरपरापरम् ॥१६॥ एकवण द्विवर्णं च त्रिवर्णं तुर्यवर्णकम् । पञ्चवर्णं महावर्ण, सपरं च परापरं ||१७|| सकलं निष्कलं तुष्टं, निवृतं भ्रान्तिवर्जितम् । निरंजनं निराकार, निर्लेप वीतसंश्रयम् ||१८|| ईश्वरं ब्रह्मसंबुद्धं, बुद्धं सिद्धं मतं गुरुम् । ज्योतीरूपं महादेवं, लोकालोकप्रकाशकम् ||१९|| , अर्हदाख्यस्तु वर्णान्तः, सरेको बिन्दुमण्डितः । तुर्य-स्वरसमायुक्तो, बहुधा नादमालितः ॥२९|| अस्मिन् बीजे स्थिताः सर्वे, वृषमाद्या जिनोत्तमाः । वर्णनिजैनिजैर्युक्ता, ध्यातव्यास्तत्र संगताः ॥२१|| नादश्चन्द्र-समाकारो, बिन्दुर्नीलसमप्रम, । कलारुण-समासान्तः स्वर्णामः सर्वतोमुखः ॥२२॥ शिरः संलीन ईकारो, विनीलो वर्णतः स्मृतः । वर्णानुसार-संलीनं, तीर्थकृन्मण्डलं स्तुमः ॥२३॥ चन्द्रप्रम-पुष्पदन्तौ, नादस्थिति-समाश्रितौ । बिन्दुमध्यगतौ नेमि, सुव्रतो जिनस Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीऋषिमण्डल-स्तोत्र ५९ त्तमौ ॥२४|| पद्मप्रम-वासुपूज्यौ, कलापदमधिष्ठितौ । शिर-ई-स्थितिसंलीनौ, पार्श्व-मल्ली जिनेश्वरौ ॥२५॥ शेषास्तीर्थकृतः सर्वे, हरस्थाने नियोजिताः । माया बीजाक्षरंप्राप्ता,---३चतुर्विंशतिरहताम् ।।२६।। गत-राग-द्वेषमोहाः, सर्व-पाप-विवर्जिताः । सर्वदा सर्वकालेषु, ते भवन्तु जिनोत्तमाः |२७|| देवदेवस्य यच्चक्र, तस्य चक्रस्य या विभा'। तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मामां हिनस्तु डाकिनी॥२८॥ देवदेवस्य यच्चक्र', तस्य चक्रस्य या विमा । तयाच्छादित सर्वाङ्ग,मा. मां हिनस्तु राकिनी ॥२९|| देवदेवस्य यच्चक्र, तस्य चक्रस्य या विमा । तयाच्छादित सर्वाङ्ग मा मां हिनस्तु लाकिनी ॥३०|| देवदेवस्य यच्चक्र', तस्य चक्रस्य या विमा। तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिनस्तु लाकिनी ॥३१॥ देवदेवस्य यच्चक्र, तस्य चक्रस्य या विभा। तयच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिनस्तु काकिनी |३२|| देवदेवस्य यच्चक्र, तस्य चक्रस्य या विमा। तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिनस्तु हाकिनी ॥३३।। देवदेवस्य यच्चक्र, तस्य या विभा। तयाच्छादितमर्वाङ्ग मा मां हिनस्तु याकिनी ॥३४॥ देवदेवस्य यच्चक्र, तस्य चक्रस्य या विमा । तयाच्छादितसर्वाङ्ग मामां हिंन्सतु पन्नगाः ॥ ३५ ॥ देवदेवस्य यच्चक्र', तस्य चक्रस्य या विमा । तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिंसन्तु हस्तिनः ॥३६।। देवदेवस्य यच्चक्र तस्य चक्रस्य या विभा । तया Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता च्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिंसन्तु राक्षसा ||३७il देवदेवस्य यच्चक्र, तस्य चक्रस्य या विमा । तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिंसन्तु वह्नयः॥३८॥ देवदेस्य चच्चक्र तस्य चक्रस्य या विमा। तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिंसन्तु सिंहकाः ॥३९|| देवदेवस्य यच्चक्र, तस्य चक्रस्य या विमा । तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिंसन्तु दुर्जनाः ॥४०|| देवदेवस्य यच्चक्र, तस्य चक्रस्य या विमा । तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिंसन्तु भूमिपा : ॥४०॥ श्री गौतमस्य या . मुद्रा, तस्या या भुवि लब्धयः । तामिरभ्युद्यतज्योतिरहं सर्व निधीश्वरः ॥४२॥ .पांतालवासिनो देवा, देवा भूपीठवासिनः । स्वर्वासिनोऽपि ये देवाः, सर्वे रक्षन्तु मामितः ॥४३|| येऽवधिलब्धयो ये तु, परमावधिलब्धयः ते सर्वे मुनयो देवा, मां संरक्षन्तु सर्वदा ॥४४|| दुर्जना भूतवेतालाः, पिशाचा मुद्गलास्तथा । ते सर्वेऽप्युपशाम्यन्तु, देवदेवप्रभावतः ||४५|| ॐ ह्रीं श्रीश्च धृतिलक्ष्मी, गौरी चण्डी सरस्वती । जयाम्बा विजया नित्या क्लिन्ना जिता मद-द्रवा ॥४६॥ कामांगा कामबाणा च, सानन्दा नन्दमालिनी । माया मायाविनी रौद्री, कला काली कलिप्रिया ॥४७॥ एताः सर्वा महादेव्यो, वर्तन्ते या जगत्त्रये । मह्य सर्वाः प्रयच्छन्तु, कान्तिंकीत्ति धृति मतिम् ||४|| दिव्यो गोप्यः सुदुष्प्राप्यः, श्रीऋषिमण्डलस्तवः । भाषितस्तीर्थनाथेन, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीऋषिमण्डल-स्तोत्र ६१ जगत्त्राणकृतेऽनघः ॥४९|| रणे राजकुले वह्रौ, जले दुर्गे गजे हरौ । श्मशाने विपिने घोरे, स्मृतो रक्षति मानवम् ॥५०|| राज्य-भ्रष्टा निजं राज्यं, पद-भ्रष्टा निजं पदम् । लक्ष्मी-भ्रष्टा निजां लक्ष्मी, प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥५१॥ भार्यार्थी लभते मार्या, पुत्रार्थी लभते सुतम् । वित्तार्थी लभते वित्तं, नरः स्मरण-मात्रतः ॥५२|| स्वर्णे रूप्ये पटे कांस्ये, लिखित्वा यस्तु पूजयेत् । तस्येवाष्टमहासिद्धि हे वसति शाश्वती ॥५३|| भूर्जपत्रे लिखित्वेदं, गलके मूनि वा भुजे । धारितं सर्वदा दिव्यं, सर्व-भीति-विनाशकम् ॥५४॥ भूतैः प्रेतैर्ग्र हैर्यक्षः पिशाचै-मुद्गलैः खलः । वातपित्तकफोद्र कैर्मुच्यते नात्र संशयः ॥५५|| भूर्भुवःस्वस्त्रयीपीठवर्तिनः शाश्वता जिनाः। ते स्तुतैर्वन्दितैदष्टैर्यत् फलं तत्फलं श्रुतौ ॥५६॥ एतद्गोप्यं महास्तोत्रं, न देयं यस्य कस्यचित् । मिथ्यात्ववासिने दत्ते, बालहत्या पदेपदे ॥५७|| आचाम्लादि तपः कृत्वा, पूजयित्वा जिनावलीम् । अष्टसाहसिको जापः कार्यस्तत्सिद्धिहेतवे ||२८|| शतमष्टोत्तरं प्रातये पठन्ति दिने-दिने। तेषां न व्याधयो देहेप्रभवन्ति न च चापदः ॥५९|| अष्टमासावधिं यावत्, प्रातः प्रातस्तु यः पठेत् । स्तोत्रमेतद् महातेजो, जिनबिम्बं स पश्यति ॥६०|| दृष्टे सत्यऽहतो बिम्बे, भवे सप्तमके ध्र वम् । पदं प्राप्नोति शुद्धात्मा, परमानन्दनन्दितः ॥६१|| विश्व-वंद्यो भवेद् ध्याता, कल्याणानि च सोऽश्नुते Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता गत्वा स्थानं परं सोऽपि, भूयस्त न निवर्त्तते ॥६२॥ इद स्तोत्रं महास्तोत्रं स्तुतीनामुत्तमं परम् । पठनात्स्मरणाज्जापाल्लभ्यते पदमुत्तमम् ॥६३|| लघुजिनसहस्रनाम स्तोत्र नमस्त्रिलोकनाथाय, सर्वज्ञाय महात्मने । वक्ष्ये तस्यैव नामानि, मौक्षसौख्याभिलाषया ॥१|| निर्मलः शाश्वतः शुद्धो, निर्विकल्पो निरामयः । निःशरीरी निरातंकः, सिद्धः सूक्ष्मो निरंजनः ||२|| निष्कलंको निरालंबो, निर्मोहो निर्मलोत्तमः । निर्भयो निरहंकारो, निर्विकारोऽथ निष्क्रियः ||३|| निर्दोषी नीरुजः शान्तो, निर्मेद्यो निर्ममः शिवः । निस्तरंगो निराकारो, निष्कर्मा निष्कलः प्रभुः ॥४|| निर्वादोऽनुपमज्ञानो, नीरागो निरघो जिनः । निःशब्दःप्रतिमश्लेष्ठ, उत्कृष्ठो ज्ञानगोचरः ||५|| निःसंगात्प्राप्तकैवल्यो, नैष्ठिकः शब्दवर्जितः । अनिंद्यो महपूतात्मा, जगच्छिखरशेखरः ||६|| निःशब्दो गुणसंपन्नः पापतापप्रणाशनः । सोऽपि योगाच्छुमं प्रातः, कर्मद्योतिबलावहः ||७|| अजरश्चामरः सिद्ध,-स्त्वचिंतश्चा क्षयो विभुः । अमूर्तस्त्वच्युतो ब्रह्म, विष्णुरीशः प्रजापतिः ॥८॥ विश्वनाथस्त्वगिंद्यश्चा, जननोऽनुपमो भवः । अप्रमेयो जगन्नाथो, बोधरूपो जिनात्मकः ॥९|| अव्ययः सकला Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु जिनसहस्रनाम स्तोत्र राघ्यो, निष्पन्नो ज्ञानलोचनः । अच्छेद्यो निर्मलो नित्यः सर्वशल्यविवर्जितः ||१०|| अजेयः सर्वतोभद्रो, निष्कषायो भवान्तकः । विश्वनाथः स्वयंबुद्धो, वीतरागो जिनेश्वरः ||११|| अंतकः सहजानन्द, स्त्ववाङ्मनसगोचरः । असाध्यः शुद्धश्चैतन्योऽकर्मण्यो कर्मवर्जितः ||१२|| अनन्तो विमलज्ञानी, निस्पृह निष्प्रकाशकः । कर्माजितो महात्मा च लोकत्रयशिरोमणिः ||१३|| अव्याबाधो वरः शंभुर्विश्ववेदी पितामहः । सर्वभूतहितो देवः सर्वलोकशरण्यकः ॥१४॥ आनन्दरूपश्चैतन्यो भगवांस्त्रिजगद्गुरुः । अनंतानंतधीशक्तिः सत्यव्यक्तोऽव्ययात्मकः ||१५|| अष्टकर्म विनिर्मुक्तः, सप्तधातुविवर्जितः । गौरवादित्रयाद्दूरः, सर्वज्ञानादिसंयुतः ||१६|| अभयः प्राप्तकैवल्यो, निर्मानो निरपेक्षकः । निष्कलः केवल ज्ञानी, मुक्तिसौख्यप्रदायकः ॥१७|| अनामयो महाराध्यो, वरदो ज्ञानपावकः । सर्वेशः सत्सुखावासो, जिनेन्द्रो मुनिसंस्तुतः ||१८|| अन्यूनः परमज्ञानी, विश्वतत्त्वप्रकाशकः । प्रबुद्धो भगवन्नाथः प्रस्तुतः पुण्यकारकः ||१९|| शंकरः सुगतो रौद्रः सर्वज्ञोमदनांतकः । ईश्वरो भुवनाधीशः, सच्चित्तः पुरुषोत्तमः ||२०|| सद्योजातमहात्मा च विमुक्तो मुक्तिवल्लभः । योगीन्द्रोऽनादिसंसिद्धो, निरीहो ज्ञानगोचरः ||२१|| सदाशिवश्चतुर्वक्त्रः, सत्सौख्यस्त्रिपुरान्तकः । त्रिनेत्रस्त्रिजगत्पूज्यः, कल्याणकोष्टमूर्तिकः ||२२|| सर्वसाधुजनेर्वन्द्यः सर्वपापविवर्जितः ६३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र - रास-संहिता सर्वदेवाधिको देवः सर्वभूतहितंकरः ॥२३॥ स्वयंविद्यो महात्मा च प्रसिद्धः पापनाशनः । तनुमात्रचिदानंद, रचैतन्य चैत्यवैभवः ॥२४॥ सकलातिशयो देवो. मुक्तिस्थो महतामहः । मुक्तिकार्याय संतुष्टी, नीरोगः परमेश्वरः ||२५|| महादेवो, महावीरो, महामोहविनाशकः महाभावो महादर्शी, महामुक्तिप्रदायकः ॥ २६ ॥ महाज्ञानी महायोगी, महातपो महात्मक- । महद्धिको महावीर्यो, महान्तिकपदस्थितः ||२७|| महापूज्यो महावंद्यो, महा-: विघ्नविनाशकः । महासौख्यो महापुरसो, महामहिम अच्युतः ||२८|| मुक्तोमुक्तिजसंबोध, एकोऽनेको विनिश्चलः । सर्वबंधविनिर्मुक्तः सर्वलोकप्रधानकः ||२९|| महाशूरो महाधीरो, महादुःखविनाशकः । महामुक्तिप्रदो धीरो, महाहृद्येो महागुरुः ||३०|| निर्मारो मारविध्वंसो निष्कामो विषयच्युतः । भगवांश्च महाभ्रांत, शांन्तिकल्याणकारकः ||३१|| परमात्मा परंज्योतिः परमेष्ठी - परेश्वरः । परमात्मा परानन्द, परश्च परमात्मकः ॥३२॥ प्रस्तुतानंतविज्ञानी, सौख्यनिर्वाणसंयुतः । नाकृतिरक्षरो वर्णो, व्योमरूपो जितात्मकः ॥३३॥ व्यक्तोऽव्यक्तजसंबुद्धः, संसारच्छेदकारणः । निरवद्यो महाराध्यः कर्म जिद्धर्मनायकः ||३४|| बोधिसत्वो जगद्वन्द्यो, विश्वात्मा नरकांतकः । स्वयंभूः पापहृत्पूज्यः, पुनीतो विभवः स्तुतः ॥३५॥ वर्णातीतो महातीतो, रूपातीतो निरंजनः । अनंतज्ञानसं 883 ६४ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्राधिराज-स्तोत्र पूर्णो, देवदेवेशनायकः ॥३६॥ वरेण्यो भवविध्वंसी, योगिनां ज्ञानगोचरः जन्ममृत्युजरातीतः, सर्व विघ्नहरो हरः ॥३७il विश्वदृग्मव्यसम्बन्धः, पवित्रो गुणसागरः । प्रसन्नः परमाराध्यो, लोकालोकप्रकाशकः ॥३८॥ रत्नगर्भो जगत्स्वामी, शक्रवंद्यः सुराचितः । निष्प्रपंचो निरातंको, निःशेषक्लेशनाशकः ॥३९|| लोकेशो लोकसंसेव्यो, लोकालोकविलोकनः । लोकोत्तमस्त्रिलोकेशो, लोकाग्रशिखरस्थितः ॥४०|| नामाष्टकसहस्राणि ये पठन्ति पुनः पुनः। ते निर्वाणपदं यांति, प्राणिनो नात्र संशयः ॥४१॥ मन्त्राधिराज-स्तोत्र - श्रीपार्श्वः पातु वो नित्यं, जिनः परमशङ्करः । नाथः परमशक्तिश्च, शरण्यः सर्वकामदः ॥१॥ सर्व विघ्नहरः स्वामी सर्वसिद्धिप्रदायकः । सर्वसत्त्वहितो योगी, श्रीकरः परमार्थदः ॥२॥ देवदेवः स्वयंसिद्धश्चिदानन्दमयः शिवः । 'परमात्मा परब्रह, परमः परमेश्वरः ॥३॥ जगन्नाथः सुरज्येष्ठो, भूतेशः पुरुषोत्तमः । सुरेन्द्रो नित्यधर्मश्च, श्रीनिवासः शुभार्णवः ||४|| सर्वज्ञः सर्वदेवेशः सर्वदः सर्वगोत्तमः । सर्वात्मा सर्वदर्शी च, सर्वव्यापी जगद्गुरुः ||५|| तत्त्वमूर्तिः परादित्यः, परब्रह्म प्रकाशकः । परमेन्दुः Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता परप्राणः परमामृतसिद्धिदः ||६|| अजः सनातनः शम्भुरीश्वरश्च सदाशिवः । विश्वेश्वरः प्रमोदात्मा, क्षेत्राधीशः शुभप्रदः ||७|| साकारश्च निराकारः, सकलो निष्कलोऽव्ययः । निर्ममो निर्विकारश्च, निर्विकल्पो निरामयः ||८|| अमरश्चाजरोऽनन्त, एकोऽनन्तः शिवात्मकः । . अलक्ष्यश्चैव वामेयो, ध्यानलक्ष्यो निरंजनः ॥९॥ ॐ काराकृतिरव्यक्तो, व्यक्तरूपस्त्रयीमयः। ब्रहृदयप्रकाशात्मा, निर्मयः परमाक्षरः ॥१०|| दिव्यतेजोमयः शान्तः परामृतमयोऽच्युतः । आढ्योऽनाढ्यः परेशानः, परमेष्ठी परः पुमान् ||११|| शुद्धस्फटिकसंकाशः, स्वयंभूः परमाच्युतः । व्योमाकारस्वरूपश्च, लोकालोकावमासकः 1|१२|| ज्ञानात्मा परमानन्दः, प्राणारूढो मनःस्थितिः । मनःसाध्यो मनोध्येयो, मनोदृश्यः परापरः ॥१३|| सर्वतीर्थमयो नित्यः, सर्वदेवमयः प्रभुः ।, भगवान् सर्वतत्त्वेशः शिवश्रीसौख्यदायकः ||१४|| इतिश्री पार्श्वनाथस्य, सर्वज्ञस्य जगद्गुरोः । दिव्यमष्टोत्तरंनाम, शतमत्र प्रकीर्तितम् ||१५|| पवित्रं परमं ध्येयं, परमानन्ददायकम् । भुक्तिमुक्तिप्रदं नित्यं, पठते मंगलप्रदम् ||१६|| श्रीमत् परमकल्याण-सिद्धिदः श्रेयसेऽस्तु वः । पार्श्वनाथजिनः श्रीमान्, भगवान् परमः शिवः ||१७|| धरणेन्द्रफणछत्रालंकृतो वः श्रियं प्रभुः । दद्यात् पद्मावतीदेव्या, समधिष्ठितशासनः ||१८|| ध्यायेत् कमलमध्यस्थं, श्रीपावं Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्राधिराज-स्तोत्र जगदीश्वरम् । ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं समायुक्तम्, केवलज्ञानभास्करम् ॥१९|| पद्मावत्यान्वितं वामे, धरणेन्द्रण दक्षिणे । परितोऽष्टदलस्थेन मंत्रराजेन संयुतम् ||२०|| अष्टपत्रस्थितैर्यस्य, नमस्कारैस्तथा त्रिभिः । ज्ञानाद्यर्वेष्टितं नाथं, धर्मार्थकाममोक्षदम् ॥२१॥ शतषोडशदलारूढं, विद्यादेवीभिरन्वितम् । चतुर्विंशतिपत्रस्थं, जिनं मातृसमावृतम् ॥२२॥ माया वेष्ट्यत्रयाग्रस्थं, क्रौंकारसहितं प्रभुम् । नवग्रहावृतं देवं, दिक्पालैर्दशभिवृतम् ॥२३॥ चतुष्कोणेषु मंत्राद्यचतुर्बीजान्वितैजिनः । चतुरष्टदशद्वीति द्विधाङ्कसंज्ञकैयुतम् ||२४|| दिक्षुक्षकारयुक्तेन, विदिक्षु लांकितेन च । चतुस्रण वज्राङ्क-क्षितितत्त्वे प्रतिष्ठितः ।।२५।। श्री पार्श्वनाथमित्येव, यः समाराधयेञ्जिनम् । तं सर्वपापनिर्मुक्तम्, मजते श्रीः शुभप्रदा ॥२६|| जिनेशः पूजितो भक्त्या, संस्तुतः प्रस्तुतोऽथवा । ध्यातस्त्वं यः क्षणं वापि सिद्धिस्तेषां महोदयः ॥२७॥ श्रीपार्वमन्त्रराजान्ते चिन्तामणिगुणास्पदम् । शान्तिपुष्टिकरं नित्यं, क्ष द्रोपद्रवनाशनम् ।२८। ऋद्धिसिद्धिमहाबुद्धि-धृतिश्रीकान्तिकीर्तिदम् । मृत्युञ्जयं शिवात्मानं जपन्नानन्दितो जनः ॥२९|| सर्वकल्याणपूर्णः स्यात्, जरामृत्युविवर्जितः । अणिमादिमहासिद्धिं लक्षजापेन चाप्नुयात् ||३०|| प्राणायाममनोमंत्र-योगादमृतमात्मनि।तमात्मानं शिवंध्यात्वात, स्वामिन् सिध्यन्ति जन्तवः ||३१|| हर्षदः कामदश्चेति Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता रिपुघ्नः सर्वसौख्यदः। पातु वः परमानन्द-लक्षणः संस्मृतो जिनः ॥३२॥ तत्त्वरूपमिदं स्तोत्रं सर्वमंगलसिद्धिदम् । त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं, प्राप्नोति च स हि श्रियम् ॥३३॥ आत्मरक्षा-स्तोत्र ॐ परमेष्ठी नमस्कार, सारं नवपदात्मकं । आत्मरक्षाकरं वज्रपिंजरामं स्मराम्यहम् ||१|| ॐ णमो अरिहंताणं, शिरस्कं शिरसिस्थितं। ॐ णमो सव्व सिद्धाणं, मुखे मुखपटंबर ॥२।। ॐ णमो आयरियाणं, अंगरक्षातिशायिनी। ॐ णमो उवज्झायाणं आयुधं हस्तयोढम् ||३|| ॐ णमो सव्वसाहूणं मोचके पादयोः शुभे । एसो पंच णमोक्कारो शिलावजूमयीतले ||४|| सव्वपावप्पणासणो वप्रोवजूमयोबहिः । मंगलाणं च सव्वेसिं, खादिरांगारखातिका ||५|| स्वाहांतं च पदं ज्ञेयं पढमं हवइ मंगलं । वप्रोपरि वजूमयं पिधानं देहरक्षणे ||६|| महाप्रभावारक्षेयं, क्ष द्रोपद्रवनाशिनी । परमेष्ठिपदोभूता, कथिता पूर्वसूरिभिः ||७|| यश्चैवं कुरुते रक्षां, परमेष्ठिपदैः हृदा । तस्य न स्याद्भयं व्याधिराधिश्चापि कदाचन ॥८॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचषष्ठियंत्रगर्मित श्रीचतुर्विंशतिजिन-स्तोत्र पंचषष्ठियंत्रगर्भित श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तोत्र आदौ नेमिजिनं नौमि संभवं सुविधि तथा । धर्मनाथं " महादेवं शान्तिः शान्तिकरं सदा ॥१॥ अनंतं सुव्रतं भक्त्या, नमिनाथं जिनोत्तमं । अजितं जितकंदर्प, चन्द्र चन्द्रसमप्रभम् ||२|| आदिनाथं तथा देवं, सुपार्श्वविमलं जिनं । मल्लिनाथं गुणोपेतं धनुषां, पंचविंशतिम् ||३|| अरनाथं महावीरं, सुमति च जगद्गुरु श्रीपद्मप्रभनामानं, वासुपूज्यं सुरैर्नतम् ||४|| शीतलं शीतलं लोके, श्रेयांसं श्रेयसे सदा । कुन्थुनाथं च वामेयं विश्वाभिनन्दनं विभुम् ॥५॥ जिनानां नामभिर्बद्धः पंचषष्ठिसमुद्भवः । यन्त्रोयं राजते यत्र तत्र सौख्यं निरन्तरम् ||६|| यस्मिन्गृहे महाभक्तंचा, यन्त्रोयं पूज्यते बुधैः । भूतप्रेतपिशाचादि भयं तत्र न विद्यते ॥७॥ सकलगुणनिधानं यंत्रमेतद्विशुद्ध हृदयकमलकोशे धीमतां ध्येयरूपम् । जयतिलकगुरोः श्रीसूरिराजस्य शिष्यो वदति सुखनिधानं मोक्षलक्ष्मीनिवासः ||८|| > ६९ " Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ . स्तोत्र-रास-संहिता ग्रहशान्ति-स्तोत्र जगद्गुरु नमस्कृत्य, श्रुत्वा सद्गुरुमाषितम्। ग्रहशान्ति प्रवक्ष्यामि, लोकानां सुखहेतवे ||१|| जिनेन्द्राः खेचरा ज्ञयाः, पूजनीया विधिक्रमात् । पुष्पैविलेपनेधूपैर्ने वेद्यस्तुष्टिहेतवे ॥२॥ पद्मप्रमस्य मार्तडश्चंद्रश्चंद्रप्रभस्य च । वासुपूज्यो भूमिपुत्रो, बुधोप्यष्टजिनेश्वराः ॥३|| विमलानन्तधर्माराः शान्तिकुन्थुन मिस्तथा । वर्द्धमानो जिनेन्द्राणां पादपद्मे बुधं न्यसेत् ||४|| ऋषभाजितसुपाश्र्वाश्चाभिनंदनशीतलो । सुमतिः संभवः स्वामी, श्रेयांसश्च बृहस्पतिः ।।३।। सुविधेः कथितः शुक्रः, सुव्रतस्य शनैश्चरः । नेमिनाथो मवेद्राहुः, केतुः श्रीमल्लिपाश्र्वयोः । जन्मलग्ने च राशौ च, यदा पीड्यन्ति खेचराः । तदा संपूजयेद्धीमान् खेचरैः सहितान् जिनान् ७il पुष्पगंधादिमियूं पैनैवेद्य फलसंयुतैः । वर्णसदृशदानैश्च, वासोमिदक्षिणान्वितैः ॥८॥ ॐ आदित्यसोममंगलबुधगुरुशुक्रशनश्चरोराहुः । केतुप्रमुखाः खेटा, जिनपतिपुरतोऽवतिष्ठन्तु |९|| जिननामकृतोच्चारा देशनक्षत्रवर्णकः । स्तुताश्च पूजिता भक्त्या, ग्रहाः संतु सुखावहाः ||१०|| जिनानामग्रतः स्थित्वा, ग्रहाणां तुष्टिहेतवे । नमस्कारशतं भक्त्या जपेदष्टोत्तरंशतम्॥११|| भद्रबाहुरुवाचेदं पंचमः श्रुतकेवली विद्याप्रवादतः पूर्वाद् ग्रहशान्तिर्विनिर्मितः ॥१२॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-स्तोत्र ७१ मंगल-स्तोत्र अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र-महिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः । आचार्या जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः । श्रीसिद्धान्त-सुपाठका मुनिवरा, रत्नत्रयाराधकाः । पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ||१|| अर्हन्तो ज्ञान-भाजः सुरवर-महिताः, सिद्धिसौधस्थ-सिद्धाः । पंचाचारप्रवीणाः प्रगुणगणधराः, पाठकाश्चागमानाम् । लोके लोकेश-वन्द्याः सकल-यतिवराः साधु-धर्मामिलीनाः । पंचाऽप्येते सदाऽप्ता विदधतु कुशलं, विघ्न-नाशं विधाय ||२|| वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो, वीरं बुधाः संश्रिताः । वीरेणामिहतः स्वकर्मनिचयो, वीराय नित्यं नमः | वीरात् तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य धोरं तपो। वीरे श्री-धृतिकीर्ति-कान्तिनिचय, हे वीर ! भद्र दिश ||३|| संसार-दावानल-दाहनीरं, सम्मोह-धूलीहरणे समीरम् । मायारसादारण-सारसीरं, नमामि वीरं गिरिसार-धीरम् ||४|| भावावनामसुर-दानव-मानवेन-चूला-विलोल - कमलावलि-मालितानि, सम्पूरिताभिनत-लोक-समीहितानि, कामं नमामि जिनराज-पदानि तानि ||५|| बोधागाधं सुपदपदवीनीरपूराभिरामं, जीवाहिंसाऽविरललहरीसंगमा-गाहदेहं । चूलावेलं गुरुगम-मणीसंकुलं दूरपारं, सारं वीरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे ||६|| आमूलालोल Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ स्तोत्र-रास-संहिता धूलीबहुलपरिमलालीढलोलालिमालाझंकारारावसारामलदलकमलागारभूमिनिवासे! छायासंभारसारे ! वरकमलकरे ! तारहाराभिरामे ! वाणीसंदोहदेहे ! भवविरहवर देहिमे देवि ! सारम् ||७|| बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित-बुद्धिबोधात्, त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय-शंकरत्वात् । धाताऽसि धीर ! शिवमार्ग-विधेविधानात् व्यक्त त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ||८|| तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ ! तुभ्यं नमः क्षितितलामल-भूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन ! मवोदधि-शोषणाय ||९|| त्वं नाथ ! दुःखिजनवत्सल ! हे शरण्य ! कारुण्य-पुण्य-. वसते ! वशिनां वररेण्य ! भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय, दुःखांकुरोद्दलन-तत्परतां विधेहि ॥१०॥ देवेन्द्रवन्द्य ! विदिताखिलवस्तु-सार ! संसारतारक ! विभो ! भुवनाधिनाथ ! त्रायस्व देव ! करुणाहृद.! मां पुनीहि, सीदन्तमद्य मयदः व्यसनाम्बु-राशेः ||११|| तज्जयति परं ज्योतिः, समं समस्तैरनन्त-पर्यायैः । दर्पणतलं इव सकला, प्रतिफलति पदार्थ-मालिका यत्र ||१२|| मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म-भूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्-गुण-लब्धये ||१३|| दिक्-कालाद्यनवच्छिन्नाऽनन्त-चिन्मात्र-मूर्तये । स्वानुभूत्येक-मानाय, नमः शान्ताय तेजसे ॥१४|| अपवित्रः पवित्रो वा, सुस्थितो. दुःस्थितोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानं, स बाह्याभ्यन्तरे Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-स्तोत्र शुचिः ||१५|| नमः समय-साराय, स्वानुभूत्य चकासते । चत्स्वभावाय भावाय, सर्वभावान्तर-च्छिदे ॥१६|| अनन्त - धर्मणस्तत्त्वं, पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूर्तिर्, नित्यमेव प्रकाशताम् ॥१७॥ एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण अन्तेन जयति जैनी, नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥१८॥ नमः श्रीवर्द्धमानाय, निर्द्ध त-लिकलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ।१९। यत्र तंत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया ! वीतदोषकलुषः स चेद् भवाम् एक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥२०॥ भवबीजांकुर जनना, रागानाः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥२१॥ तव पादौ मम हृदये, महृदयं तवपदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावद्, सावन् निर्वाण-सम्प्राप्तिः ॥२२॥ ब्राही चंदन-बालिका भगवती, राजीमती द्रौपदी । कौशल्या च मृगावती च सुलसा, सीता सुभद्रा शिवा । कुन्ती शीलवती नलस्य ददिता, चूला-प्रभावत्यपि । पद्मावत्यपि सुन्दरी दिनमुखे, कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥२३|| शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः, संगतिः सर्वदाऽऽयः । सत्साधूनां गुण-गण-कथा, दोष-वादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितवचो, भावना चात्मतत्त्वे । सम्पद्यन्तां मम भव-भवे, यावदेतेऽपवर्गः ॥२४॥ शवमस्तु सर्वजगतः, परहित-निरता भवन्तु भूतगणाः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुरवीभवतु लोकः ॥२५॥ सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाग् भवेत् ॥२६॥ दुर्जनः सज्जनो भूयात् सज्जनः शान्तिमाप्नुयात् । शान्तो मुच्येत बन्धेभ्यो, मुक्तश्चान्यान् विमोचयेत् ॥२७॥ मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमः प्रभुः । मंगलं स्थूलभद्राद्या, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥२८॥ सर्व-मंगलमांगल्यं सर्व-कल्याण-कारणम् । प्रधानं सर्व-धर्माणां जैन जयतु शासनम् ||२९|| उपसर्गाः क्षयं यान्ति छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति पुज्यमाने जिनेश्वरे ॥३०॥ महावीराष्टक स्तोत्र यदोये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदर्चितः, समं मान्ति ध्रौव्य-व्यय-जनि-लसन्तोऽन्तरहिताः । जगत्-साक्षी मार्गप्रकटनपरो भानुरिव यो, महावीरस्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ||१|| अताम्र यच्चक्षुः-कमल-युगलं स्पन्दरहितं जनान् कोपापायं प्रकटयति वाऽभ्यन्तरमपि । स्फुट मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वाति विमला, महावीरस्वामी । नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥२॥ नमन्नाकेन्दाली-मुकुट Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीराष्टक स्तोत्र . मणिमा-जाल-जटिलं, लसत्पादाम्भोजद्वयमिह यदीयं तनु-भृताम् । भवज्ज्वाला-शान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि महावीरस्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ||३|| यदर्चामावेन प्रमुदितमना ददुर इह, क्षणादासीत् स्वर्गी गुण-गणसमृद्धः सुख-निधिः । लभन्ते सद्भक्ता शिव-सुख-समाज किमु तदा ? महावीरस्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ||४|| कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगततनुर् ज्ञान-निवहो, विचित्रात्माऽप्येको नृपतिवर-सिद्धार्थ-तनयः । अजन्माऽपि श्रीमान् विगत भवरागोऽभुतगतिर, महावीरस्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥५|| यदीया वाग गंगा विविध-नय-कल्लोलविमला, बृहज्ज्ञानाम्मोमिर्जगति जनतां या स्नपयति । इदानीमप्यता बुधजन-मरालैः परिचिता, महावीरस्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ||६|| अनिर्वारोद्रेकस्त्रिभुवनजयी काम-सुभटः, कुमारावस्थायामपि निजबलाद्यन विजितः । स्फुरन्नित्यानन्द-प्रशमपदराज्याय स जिनः, महावीरस्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ||७|| महामोहातंक-प्रशमनपराऽऽकस्मिकं-भिषग, निरापेक्षो बन्धुर् विदितमहिमा मंगल करः । शरण्यः साधूनां भव-भयभृतामुत्तम-गुणो, महावीरस्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ||८|| महावीराष्टकं स्तोत्रं, भक्त्या मागेन्दुना कृतम् । यः पठेच्छृणुयान्चापि, स याति परमां गतिम् ||९|| Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ-स्तोत्र किं कर्पूर-मयं सुधारसमयं किं चन्द्ररोचिर्मयं, किं लावण्यमयं महामणिमयं कारुण्यकेलीमयम् । विश्वानन्दमयं महोदयमयं शोमामयं चिन्मयं, शुक्लध्यानमयं वपुजिनपतेभूयाद् भवालम्बनम् ||१|| पातालं कलयन् धरां धवलयन्नाकाशमापूरयन्, दिक्चक्र क्रमयन् सुरासुरनरश्रेणिं च विस्मापयन् । ब्रह्मांडं सुखयन् जलानि जलधेः फेनच्छलाल्लोलयन् श्रीचिन्तामणि-पार्श्वसंभवयशोहंसश्चिरं राजते ॥२॥ पुण्यानां · विपणिस्तमोदिनमणिः कामेभकुम्भे सृणिः मोक्षे निस्सरणिः सुरद्र करिणी ज्योतिः प्रकाशारणिः । दाने देवमणि तोत्तमजनश्रेणिः 'कृपासारिणिः, विश्वानंदसुधाघृणिर्मवभिदे श्रीपाश्र्वचिन्तामणिः ॥३॥ श्रीचिन्तामणिपार्श्व विश्वजनतासंजीवनस्त्वं मया दृष्टस्तात ! ततः श्रियः समभवन्नाशक्रमाचक्रिणम् । मुक्तिः क्रीडति हस्तयोर्बहुविधं सिद्धं मनोवांछितं, दुर्दैवं दुरितं च दुर्दिनमयं कष्टं प्रणष्टं मम ||४|| यस्य प्रौढतमप्रतापतपनः प्रोद्दामधामा जगज, जंघालः कलिकालकेलिदलनो मोहान्धविध्वंसकः । नित्योद्योतपदं समस्तकमलाकेलीगृहं राजते, स श्रीपार्वजिनो जने हितकरश्चिन्तामणिःपातु माम् ||५|| विश्वव्यापितमो हिनस्ति तरणिलोपि कल्पांकुरो, दारिद्रयाणि गजावली हरिशिशुः Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तोत्र ७७ काष्ठानि वढेकणः । पीयूषस्य लवोऽपि रोगनिवहं यद्वत्तथा ते विमो, मूर्तिः स्फूर्तिमती सती त्रिजगतीकष्टानि हतु क्षमा ||६|| श्री चिन्तामणिमन्त्रमोंकृतियुतं होकारसाराश्रितं, श्रीमहं नमिऊणपासकलितं त्रैलोक्यवश्यावहम् द्वेधाभूतविषापहं विषहरं श्रेयः-प्रभावाश्रयं, सोल्लासं वसहांकितं जिनफुलिंगानन्ददं देहिनाम् ॥७|| ह्रीं श्रींकारवरं नमोऽक्षरपरं ध्यायन्ति ये योगिनो,हृत्पद्म विनिवेश्य पार्वमधिपं चिन्तामणीसंज्ञकम् । भाले वामभुजे च नाभिकरयोर् भूयो भुजे दक्षिणे, पश्चादष्टदलेषु ते शिवपदं द्वित्रैर्मवैर् यान्त्यहो |८|| नो रोगा नैव शोका, न कलहकलना, नारिमारिप्रचारा। नैवाधि समाधिर् न च दरदुरिते दुष्टदारिद्रता नो । नो शाकिन्यो ग्रहा नो, न हरिकरिगणा, व्यालवैतालजालाः । जायन्ते पार्श्व चिन्तामणि-नतिवशतः प्राणिनां भक्तिभाजाम . ||९|| गीर्वाणद्र मधेनु-कुम्भमणयस्तस्यांगणे रिंगिणो, देवा दानवमानवाः सविनयं तस्मै हितध्यायिनः। लक्ष्मीस्तस्य वशाऽवशेव गुणिनां ब्रह्माण्डसंस्थायिनी, श्रोचिंतामणिपार्श्वनाथमनिशं संस्तौति यो ध्यायति ।१०। इति जिनपति-पावः पार्श्वपाख्यियक्षः, प्रदलितदुरितौघः प्रीणित-प्राणिसार्थः । त्रिभुवन-जनवाञ्छादान चिन्तामणीकः, शिवपद-तरुबीज बोधिबीजं ददातु ॥११|| Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ स्तोत्र-रास-संहिता श्रीपद्मावती अष्टक-स्तोत्र श्रीमद्-गीर्वाणचक्रस्फुट - मुकुटतटी- दिव्य-माणिक्यमाला । ज्योतिषलाकरालस्फुरित-मुकुरिका-घृष्ठपादारविन्दे । व्याघ्रोरोल्का-सहस्र-ज्वलदनलशिखा, लोलपाशांकुशाढ्ये ! ॐ क्रीं ह्रीं मंत्ररूपे ! क्षपित-कलिमले, रक्ष मां देवि ! पद्मे ||१|| भित्त्वा पातालभूल चलचलचलिते ! व्याल-लीला-कराले ! विद्य इदण्ड-प्रचण्ड-प्रहरणसहिते, सद्भुजैस्तर्जयन्ती । दैत्येन्द्र क्रू रदंष्ट्राकटकटघटित-स्पष्ट-भीमाट्टहासे ! मायाजीमूतमालाकुहरितगगने ! रक्ष मां देवि ! पद्म ||२|| कूजत्कोदण्डकाण्डोड्डमर-विधुरित-क्र र-घोरोपसर्ग | दिव्यं वज्रातपत्रं प्रगुणमणिरणत्-किङ्किणी - क्वाण-रम्यम् । मास्वद् वैडूर्य-दण्डं मदनविजयिनो, विभ्रतो . पाव-भर्तुः ! सा देवो पद्महस्ता विघटयतु महाडामरं मामकीनम् ॥३। भृङ्गो काली कराली पंरिजनसहिते ! चण्डि ! चामुण्डि । नित्ये ! क्षां क्षी क्ष क्षों क्षणार्द्ध क्षतरिपुनिवहे ! हौं महामन्त्रवश्ये ! भ्रां प्री भृङ्ग-सङ्ग भ्रकुटि-पुटतटत्रासितोद्दामदैत्ये ! स्रां प्री सूत्रों प्रचण्डे ! स्तुतिशतमुखरे ! रक्ष मां देवि ! पद्म ! ||४|| चञ्चत् काञ्ची-कलापे ! स्तनतटविजुठत्तारहारावलीके ! प्रोत्फुल्लत्पारिजात मकुसुममहामञ्जरी-पूज्यपादे ! हां ह्रीं क्लीं ब्लू समेतैव Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मावती अष्टक स्तोत्र नवशकरी क्षोभिणी द्राविणी त्वं ! आँ इओं पद्महस्ते कुरु कुरु घटने रक्ष मां देवि । पद्म ! ||५|| लीलाव्यालोल - नीलोत्पलदलनयने - प्रज्वलद् - वाडवाग्नित्रुट्यज्ज्वालास्फुलिङ्गस्फुरदरुणकणो - दग्र-वज्रांग्रहस्ते ! हां ही हूँ ह्रौं हरन्ती हरहरहर हु-कारमीमैकनादे ! पद्मे ! पद्मासनस्थे ! अपनय दुरितं देवि ! देवेन्द्रवन्धे ! |६|| कोपं वं झं सहंसः कुवलयकलितोद्-दामलीलाप्रबन्धे ! हां ही हूँ, पक्षबीजेः शशिकरधवले ! प्रक्षरत्क्षीरगौरे !! व्याल-व्याबद्धकूटे ! प्रबलबलमहा-कालकूट हरन्ती हा हा हुंकारनादे ! कृतकरमुकुलं-रक्ष मां देवि ! पद्मे ॥७॥ प्रातर्बालार्क-रश्मिच्छुरितघनमहा-सान्द्रसिन्दूरधूली ! सन्ध्यारागारुणाङ्गी त्रिदशवर-वधू-वन्द्य-पादारविन्दे ! चञ्चच्चण्डासिधारा-प्रहतरिपुकुले ! कुण्डलोघृष्टगल्ले । श्रां श्रीं श्रृं श्रौं स्मरन्ती मदगजगमने ! रक्ष मां देवि ! पद्म ! |८|| दिव्यं स्तोत्र पवित्रं पटुतरपठतांभक्ति-पूर्वं त्रिसन्ध्यं । लक्ष्मी-सोभाग्यरूपं दलितकलिमलंमङ्गलं मङ्गलानाम् । पूज्यं कल्याणमालां जनयति सततं, पार्श्वनाथ-प्रसादात् । देवी-पद्मावतीतः प्रहसितवदना या स्तुता दानवेन्द्रः ॥९॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता श्रीरत्नाकर-पंचविंशतिका-स्तोत्र श्रेयः श्रियां मंगल-केलिसद्म, नरेन्द्र-देवेन्द्र-नताङ् घ्रिपदा ! सर्वज्ञ ! सर्वातिशय ! प्रधान, चिरंजय ज्ञानकला-निधान ! ||१|| जगत्त्रयाधार ! कृपावतार, दुर्वारसंसार-विकार-वैद्य ! श्रीवीतराग ! त्वयि मुग्धभावाद् विज्ञ ! प्रभो ! विज्ञपयामि किंचित् ।।२।। किं बाललीलाकलितो न बालः, पित्रोः पुरो जल्पति निर्विकल्पः ? तथा यथार्थं कथयामि नाथ, निजाशयं सानुशयस्तवाने ||३|| दत्त न दानं, परिशीलितं च न शालि शीलं, न तपोऽमितप्तम् । शुमो न भावोऽप्यमवद भवेऽस्मिन् विभो ! मया भ्रान्तमहो ! मुधैव ॥४॥ दग्धोऽग्निना क्रोधमयेनदष्टो, दुष्टेन लोमाख्य-महोरगेण । प्रस्तोऽभिमानाजगरेण माया-जालेन बद्धोऽस्मि कथं भजे त्वाम् ? | कृतं मयाऽमुत्र हितं न चेह, लोकेऽपि लोकेश ! सुखं न मेऽभूत् । अस्मादृशां केवलमेव जन्म, जिनेश ! जज्ञ भव-पूरणाय |६|| मन्ये मनो यन्न मनोज्ञवृत्त ! त्वदास्यपीयूष-मयूखलामात् । द्रुतं महानन्दरसं कठोरमस्मादृशां देव ! तदश्मतोऽपि ||७|| त्वत्तः सुदुष्प्राप्यमिदं मयाप्तं । रत्नत्रयं भूरि-भव-भ्रमेण । प्रमाद-निद्राक्शतो गतं तत्, कस्याग्रतो नायक ! पूत्करोमि ? ||८|| वैराग्यरंगः पर-वञ्चनाय, धर्मोपदेशो जन-रञ्जनाय । वादाय विद्या Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नाकरपंचविंशतिकास्तोत्र ध्ययनं च मेऽभूत्, कियद् ब्रुवे हास्यकरं स्वमीश ! ॥९॥ परापवादेन मुखं सदोषं, नेत्रं परस्त्रीजन-वीक्षणेन । चेतः परापाय-विचिन्तनेन, कृतं भविष्यामि कथं विमोऽहम ? ||१०|| विडम्बितं यत् स्मर-घस्मराति-दशावशात् स्व विषयान्धलेन । प्रकाशितं तद भवतो हियैव, सर्वज्ञ ! सर्व स्वयमेव वेत्सि ॥११॥ ध्वस्तोऽन्य-मंत्रैः परमेष्ठिमंत्रः, कुशास्त्रवाक्यैर् निहतागमोक्तिः । कतु वृथा कर्म कुदेवसंगा-दवाञ्छि ही नाथ ! मतिभ्रमो मे ||१२|| विमुच्य दृगलक्ष्यगतं.भवन्तं,ध्याता मया मूढधिया हृदन्तः। कटाक्षवक्षोज-गमीर-नाभि-कटीतटीयाः सुदृशां विलासाः ॥१३॥ लोलेक्षणावक्त्र-निरीक्षणेन, यो मानसे रागलवो विलग्नः। न शुद्धसिद्धान्त-पयोधि-मध्ये, धौतोऽप्यगात् तारक ! कारणं किम् ||१४|| अंगं न चंगं न गणो गुणानां, न निर्मलः कोऽपि कला-विलासः । स्फुरत्प्रमा न प्रभुता च काऽपि, तथाऽप्यहंकार-कथितोऽहम् ॥१|| आयुर्गलत्याशु न पापबुद्धिर्, गतं वयो नो विषयाभिलाषः । यत्नश्च भैषज्य-विधौ न धर्मे, स्वामिन् ! महामोहविडम्बना मे ||१६|| नात्मा न पुण्यं न भवो न पापं, मया विटानां कटुगीरपीयम् । नाधारि कर्णे त्वयि केवलार्के, परिस्फुटे सत्यपि देव ! धिङ् माम् ॥१७॥ न देवपूजा न च पात्रपूजा, न श्राद्धधर्मश्च न साधुधर्मः | लब्ध्वाऽपि मानुष्यमिदं समस्तं, कृतं मयाऽरण्य Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता विलापतुल्यम् ॥१८|| चक्र मयाऽसत्स्वपि कामधेनुकल्पद्रुम-चिन्तामणिषु स्पृहार्तिः। न जैनधर्मे स्फुटशमंदेऽपि, जिनेश ! मे पश्य विमूढभावम् ॥१९|| सद्मोगलीला न च रोगकीला, धनागमो नो निधनागमश्च। दारा न कारा नरकस्य चित्ते, व्यचिन्ति नित्यं मयकाऽधमेन ||२०|| स्थितं न साधोर् हृदि साधुवृत्तात् परोपकारान्न यशोऽजितं च। कृतं न तीर्थोद्धरणादि कृत्यं, मया मुधा हारितमेव जन्म ||२१|| वैराग्यरंगो न गुरूदितेषु, न दुर्जनानां वचनेषु शान्तिः । नाऽध्यात्मलेशो मम कोऽपि देव, तार्यः कथंकारमयं भवाब्धिः ? ||२२|| पूर्वे मवेऽकारि मया न पुण्य-मागामि-जन्मन्यपि नो करिष्ये । यदीदृशोऽहं मम तेन नष्टा, भूतोद्भवद्भाविभव-त्रयीश ! ||२३|| किं वा मुधाऽहं बहुधा सुधामुक्-पूज्य ! त्वदने चरितं स्वकीयम् ? जल्पामि यस्मात् त्रिजगत्स्वरूप-निरूपकस्त्वं कियदेतदत्र ? ॥२४॥ दीनोद्धारधुरंधरस्त्वदपरो, नास्ते मदन्यः कृपा-पात्रं नाऽत्र जने जिनेश्वर ! तथाऽप्येतां न याचे श्रियम् । किंत्वहन्निदमेव केवलमहो, सद्बोधि-रत्नं शिवं, श्रीरत्नाकरमंगलैकनिलय ! श्रेयस्करं प्रार्थये ||२५|| Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री परमानन्द - पंचविंशतिका-स्तोत्र श्री परमानन्द - पंचविंशतिका-स्तोत्र ८३ परमानन्द संयुक्तं, निर्विकारं निरामयम् । ध्यानहीना न पश्यन्ति निजदेहे व्यवस्थितम् ॥ १॥ अनन्तसुख-सम्पन्न', ज्ञानामृत पयोधरम् । अनन्तवीर्य सम्पन्नं दर्शनं परमात्मनः ||२|| निर्विकारं निराधारं सर्वसंगविवर्जितम् । परमानन्द-संपन्नं शुद्धचैतन्य-लक्षणम् ॥३॥ उत्तमाऽध्यात्मचिन्ता च, मोहचिन्ता च मध्यमा । अधमा कामचिन्ता च, परंचिन्ताऽधमाधमा ||४|| निर्विकल्पसमुत्पन्नं, ज्ञानमेव सुधारसम् । विवेकमंजलि कृत्वा, तं पिबन्ति तपस्विनः ||५|| सदानंदमयंजीवं, यो जानाति स पण्डितः । स सेवतें निजात्मानं, परमानन्द - कारणम् ||६|| नलिन्यां च यथा नीरं, 'भिन्नं तिष्ठति सर्वदा । अयमात्मा स्वभावेन, देहे तिष्ठति सर्वदा ॥७॥ द्रव्यकर्म विनिर्मुक्तं, भावकर्म-विवर्जितम् । नोकर्म-रहितं विद्धि, निश्चयेन चिदात्मनम् ||८|| अनन्तब्रह्मणो रूपं निजदेहे व्यवस्थितम् । ध्यानहीना न पश्यन्ति, जात्यन्धा इव भास्करम् ||९|| तद्ध्यानं क्रियते भव्येर्, येन कर्म विलीयते । तत्क्षणं दृश्यते शुद्धं, चिच् चमत्कारलक्षणम् ॥१०॥ चिदानंदमयं शुद्धं, निराकार निरामयम् । अनंत सुखसम्पन्नं, सर्व संगविवर्जितम् ||११|| लोकमात्रप्रमाणो हि निश्चये न हि संशयः । व्यवहारे देहमात्रं, कथयन्ति मुनीश्वराः ||१२|| Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र - रास-संहिता 7 यत्क्षणं दृश्यते शुद्धं तत्क्षणं गतविभ्रम | स्वस्थचित्तं स्थिरीभूतं, निर्विकल्पं समाधिना ॥१३॥ स एव परमं ब्रह्म, स एव जिनपुंगवः । स एव परमं तत्त्वं स एव परमो गुरुः || १४ || स एव परमं ज्योतिः, स एव परमं तपः । स एव परमं ध्यानं, स एव परमात्मकम् ||१५|| . स एव सर्वकल्याणं, स एव सुखभाजनम् । स एव शुद्धचिद्रूपं स एव परमं शिवम् ॥ १६ ॥ स एव ज्ञानरूपो हि स एवात्मा न चाऽपरः । स एव परमा शान्तिः, स एव भवतारकः ||१७|| स एव परमानंदः, स एव सुखदायकः । स एव घन-चैतन्यं, स एव गुण - सागरः ||१८|| परमाह्लादसंपन्नं, राग-द्वेषविवर्जितम् । सोऽहं तु देहमध्यस्थो, यो जानाति स पण्डितः ||१९|| आकार-रहितं शुद्धं, स्वस्वरूपे व्यवस्थितम् । सिद्धमष्टगुणोपेतं, निर्विकारं निरंजनम् ||२०|| तत्समं तु निजात्मानं, यो जानाति स पण्डितः । सहजानंद - चेतन्यं, प्रकाशयति महीयसे ||२१|| पाषाणेषु यथा हेमं, दुग्ध-मध्ये यथा घृतम् । तिल - मध्ये यथा तेलं देह-मध्ये तथा शिवः ||२२|| काष्ठमध्ये यथा वह्निः, शक्तिरूपेण तिष्ठति । अयमात्मा शरीरेषु, यो जानाति स पण्डितः ||२३|| आनन्द-रूपं परमात्मतत्त्वं, समस्तसंकल्पविकल्प- मुक्तम् । स्वभावलीना निवसन्ति नित्यं, जानाति योगी स्वयमेव तत्त्वम् ॥२४॥ ये धर्मशीला मुनयः प्रधानास्, ते दुःखहीना नियतं भवन्ति । संप्राप्य 58 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री परमात्म-द्वात्रिंशिका शीघ्र परमात्मतत्त्वं, व्रजन्ति मोक्षं क्षणमेकमध्ये ॥२५|| श्रीपरमात्म द्वात्रिंशिका-स्तोत्र सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीत-वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ! ||१|| शरीरतः कर्तुमनन्तशक्ति, विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र ! कोषादिव खड्गयष्टि, तव प्रसादेन ममाऽस्तु शक्तिः ॥२|| दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भवने वने वा । निराकृताशेषममत्वबुद्धेः, समं मनो मेऽस्तु सदाऽपि नाथ ॥३|| मुनीश ! लोनाविव कीलिताविवः स्थिरौ निखाताविव विम्बिताविव । पादो त्वदीयौ' मम तिष्ठतां सदा, तमो धुनानौ हृदि दीपकाविव ||४|| एकेन्द्रियाद्या यदि देव ! देहिनः, प्रमादतः संचरता यतस्ततः । क्षता विभिन्ना मलिता निपीडिता, ममाऽस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तद् ॥|| विमुक्तिमार्गप्रतिकूल-वर्तिना, मया कषायाक्षवशेन दुधिया । चारित्रशुद्धर्यदकारि लोपनं, तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं विभो ! |६|| विनिन्दनालोचन-गहणैरह, मनोवचःकाय-कषायनिमितम् । निहन्मि पापं भवदुःखकारणं, भिषग् विषं मंत्रगुणैरिवाखिलम् ||७|| अतिक्रमं यं यमपि व्यतिक्रम, जिनातिचारं स्वचरित्र-कमणः । व्यधामनाचारमपि Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता प्रमादतः प्रतिक्रम तस्य करोमि शुद्धये ||८|| क्षतिं मनःशुद्धि विधेरतिक्रमां, व्यतक्रिमं शीलवृतेविलंघनम । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं, वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ॥९|| यदर्थमात्रा-पद-वाक्यहीनं, मया प्रमादाद् यदि किंचनोक्तम । तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी, सरस्वती केवल- . बोधलब्धिम् ॥१०॥ बोधिः समाधिः परिणामशुद्धिः, स्वात्मोपलब्धिः शिवसौख्यसिद्धिः । चिन्तामणि चिन्तितवस्तुदाने । त्वां वन्द्यमानस्य ममास्तु देवि ! ||११|| यः स्मर्यते सर्व-मुनीन्द्र-वृन्दैर, यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः । यो गीयते वेद-पुराणशास्त्रैः, स देवदेवो हृदये ममाऽस्ताम् ||१२|| यो दर्शन-ज्ञान-सुखस्वभावः, समस्त संसार-विकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्म-संज्ञः, स देवदेवो. हृदये ममास्ताम् ॥१३|| निषूदते यो भवदुःखजालं, निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गतो योगि-निरीक्षणीयः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१४|| विमुक्तमार्ग-प्रतिपादको यो, यो जन्ममृत्युन्सनाद् व्यतीतः । त्रिलोकलोकी सकलो - कलंकः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ||१५|| क्रोडीकृताशेषशरीरिवर्गा, रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः। निरीन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम ||१६|| यो व्यापको विश्वजनीन-वृत्तिः, सिद्धो विबुद्धो धुतकमबन्धः। स्यातो धुनीते सकलं विकारं, स देवदेवो हृदये ममास्ताम ||१७|| न स्पृश्यते कर्मक Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री परमात्मा-द्वात्रिंशिकास्तोत्र ८७ लंकदोषैर, यो ध्वान्तसंधैरिव तिग्मरश्मिः । निरंजनं नित्यमनेकमेकं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्य ॥१८|| विभासते यत्र मरीचिमालि-न्यविद्यमाने भुवनावमासि । स्वात्मस्थितं बोधमय-प्रकाशं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्य ||१९|| विलोक्यमाने सति यत्र विश्वं, विलोक्यते स्पष्टमिदं विविक्तम् । शुद्धं शिवं शान्तमनाद्यनन्तं, तं देवमाप्त शरणं प्रपद्य |२०|| येन क्षता मन्मथ-मान-मूर्छाविषाद-निद्रा-भय-शोक-चिन्ताः । क्षय्योऽनलनेव तरुप्रपंचस, तं देवमाप्त शरणं प्रपद्ये ॥२१।। न संस्तरोऽश्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मितः । यतो निरस्ताक्ष-कषायविद्विषः, सुधीमिरात्मैव सुनिर्मलो मतः ॥२२॥ न संस्तरो भद्र ! समाधि-साधनं, न लोकपूजा न च संघमेलनम् यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं, विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनाम् ||२३|| न सन्ति बाह्या मम केचनार्था, भवामि तेषां न कदाचनाऽहम् । इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्य, स्वस्थः सदात्वं भव भद्र ! मुक्त्यै ॥२४|| आत्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्धः, एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र। स्थितोऽपि साधुर्लमते समाधिम् 1|२५|| एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिमलः साधिगमस्वभावः । बहिर्मवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वताः कम भवाः स्वकीयाः ॥२६॥ यस्यास्ति नैक्यं वपुषाऽपि साधं, तस्यास्ति किं पुत्र-कलत्र-मित्रैः ? पृथककृते चर्म णि Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८. स्तोत्र-रास-संहिता रोमकूपाः, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीर-मध्ये ॥२७|| संयोगतो दुःखमने कभेदं, यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी । ततस्त्रिधाऽसौ परिवर्जनीयो, थियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम ॥२८॥ सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं, संसार-कान्तार-निपातहेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो, निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे . |२९|| स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लमते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, . स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ||३०|| निजार्जितं कम : विहाय देहिनो, न काऽपि कस्याऽपि ददाति किंचन । विचारयन्नेवमनन्यमानसः, परा ददातीति विमुंच शेमुषीम् ||३१|| यः परमात्माऽमितगतिवन्द्यः, सर्व विविक्तो भृशमनवद्यः । शश्वदधीतो मनसि लभन्त,, मुक्तिनिकेतं विभववरं ते ॥३२॥ श्री ऋषभदेव-स्तोत्र आदिजिनं वंदे गुणसदनं, सदनन्तामल-बोधं रे। बोधकता-गुणविस्तृतकीति, कीर्तित-पथमविरोधं रे-आदि० ||१|| रोधरहित-विस्फुरदुपयोगं, योगं दधतममंगं रे ! भंग नय-व्रज-पेशलवाचं, वाचंयम-सुख-संगं रे-आदि० ॥२॥ संगतपद-शुचिवचनतरंगं, रंगं जगति ददानं रे। , दानसुरद्र म-मंजुलहृदयं, हृदयंगम-गुण-मानं रे-आदि० ॥३|| मानन्दित - सुर-नर - पुन्नागं, नागर-मानस-हंसं रे । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ऋषभदेव स्तोत्र हंसगति पंचम-गतिवासं, वासव-विहिताशंसं रे-आदि० ॥४|| शंसन्तं नयवचनमनवम नव-मंगल-दातारंरे। तारस्वरमघघनपवमानं, मान - सुमट - जेतारं रे -आदि० ॥५| इत्थं स्तुतः प्रथमतीर्थपतिः प्रमोदात्, श्रीमद्-यशोविजयवाचकपूंगवेन । श्री पुण्डरीक-गिरिराज-विराजमानो, मानोन्मुखानि वितनोतु सतां सुखानि ||६|| . श्री पार्श्वनाथ-स्तोत्र ॐ नमः पार्श्वनाथाय, विश्व-चिन्तामणीयते। ह्रीं धरणेन्द्र-रोट्या-पद्मादेवी-युतायते ॥१॥ शांति-तुष्टिमहापुष्टि-धृतिकीर्तिविधायिने! ॐ हीं द्विड्-व्याल वेतालसर्वाधिव्याधिनाशिने ॥२॥ जया जिताख्या विजयाख्याऽपराजितयान्वितः । दिशां पालैग्रहैर्यक्ष र विद्यादेवीभिरन्वितः ॥३॥ ॐ असिआउसाय नमस-तत्र त्रैलोक्यनाथताम् । चतुःषष्टि-सुरेन्द्रास्ते, भासन्ते छत्र-चामरैः ॥४॥ श्री शंखेश्वरमण्डनपार्वजिन ! प्रणतकल्पतरुकल्प चूरय दुष्टवातं, पूरय मे वाञ्छितं नाथ ! III सर्वजिन-स्तोत्र जयति जंगम-कल्पमहीरहो, जयति दुःखमहार्णवतारकः जयति विश्वसनातनदीपको, जयति भूतल-शीतरुचिर्जिनः Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00 स्तोत्र-रास-संहिता |१|| जयति कोपदवानल-नीरदो, जयति मान-महीरुहकुंजरः । जयति कूटकुडंगि-हिमागमो, जयति लोभमहोदधि-मन्दरः ||२|| विजयते जगदेकविलोचनो, विजयते निरुपाधिक बान्धवः । विजयते भवरोग-चिकित्सको, विजयते शिव-पत्तन-पण्डितः ॥३|| जयति मारविकारनिशाकरप्रसर-संवरणेकदिवाकरः । जयति संसृतिकाननसम्भ्रम-भ्रमण-खिन्नजनकसुधासरः ॥४|| विषयपंकिलमोहजलोल्लसद्-बहुलराग-तरंग-मराकुले । विजयते विपुले भवपल्वले, कमलमेकमहो जिन-पुंगवः ||५|| त्रिकाल चतुर्विंशति जिन-स्तोत्र केवलज्ञानिनं निर्वाणिनं सागरमेव च। महायशोऽमिधं वन्दे भक्त्या विमलनामकम् ॥१॥ सर्वानुभूति , प्रणुमः श्रोधरं दत्तसंज्ञकम् । दामोदरं सुतेजस्कं स्वामिनं मुनिसुव्रतम् ॥२॥ सुमति शिवगत्याख्यमस्ताचं च नमीश्वरम् । अनिलं यशोधराह कृतार्च च नमाम्यहम् ॥३|| जिनेश्वरं शुद्धमति सेवे शिवकर तथा । स्यन्दनं सम्प्रति चेत्यतीताः सन्तु श्रिये जिनाः ॥४॥ ऋषमं चाजितं चैव सम्मवं चामिनन्दनम् । सुमति पद्मप्रमाख्यं सुपार्वं नौम्यहं जिनम् ॥५|| चन्द्रप्रमं च सुविधिं कलये हृदि शीतलम् । श्रेयांसं वासुपूज्यं च विमलानन्तजिज्जिनौ ॥६|धर्मनाथं Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिकाल चतुर्विशति जिन-स्तोत्र ९१ तथा शांतिनाथं कुन्थु तदनन्तरम् । मल्लिं मुनिसुव्रताह पूजयामितमां नमिम् |७|| नेमिनं पार्श्वनाथं च वर्द्धमानममिष्टुमः । इत्यमी वर्तमानास्ते भूयांसुर्मूतये जिनाः |८|| पद्मनाभं सूरदेवं सुपाश्र्वं च स्वयंप्रभम् । सर्वानुभूतिमभितो वंदे देवश्रुताह्वयम् ॥९॥ उदयाख्यं च पेढालं पोट्टिलं शितकीर्तिकम् । सुव्रतं चाममं निष्कषायं हृदि निवेशय ॥१०|| निष्पुलाकं निर्ममाख्यं चित्रगुप्तं तथा श्रये । समाधि-संवर-यशोधरान् विजय-मल्लकौ ॥११। देवं चानन्तवीर्यं च स्तुवे भद्रकरं तथा । इत्येते माविनोऽर्हन्तो विघ्नं निघ्नंतु मेऽन्वहम् ||१२|| इत्याद्यमरतक्षेत्रेऽतीताद्या जिनपुंगवाः । संस्तुता अद्भुतां दद्यः श्रीसंघतिलक-श्रियम् ॥१३॥ श्री गौतमस्वामी-स्तोत्र .. ॐ नमस्त्रिजगन्नेतुर्, वीरस्याग्रिमसूनवे । समग्रलब्धिमाणिक्य-रोहणायेन्द्रभूतये ||१|| पादाम्भोजं भगवतो गौतमस्य नमस्यताम् । वशीभवन्ति त्रैलोक्यसम्पदो विगतापदः॥१२।। तव सिद्धस्य बुद्धस्य पादाम्भोजरजःकणः । पिपर्ति कल्पशाखीव कामितानि तनूमताम् ॥३॥ श्रीगौतमाक्षीणमहानसस्य तव कीर्तनात् । सुवर्णपुष्पां पृथिवीमुच्चिनोति नरश्चिरम् ||४|| अतिशेषेतरां धाम्ना, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता भगवन् ! भास्करो श्रियम् । अतिसौम्यतया चान्द्रीमहो ते भीमकान्तता |५|| विजित्य संसारमायाबीजं मोहमहीपतिम् । नरः स्यान्मुक्तिराजश्रीनायकस्त्वत्प्रसादतः ॥६॥ द्वादशांगीविधौ वेधाः श्रीन्द्रादिसुरसेवितः । अगण्यपुण्यनैपुण्यं तेषां साक्षात् कृतोऽसि यैः ।।७|| नमः स्वाहापतिज्योतिस्तिरस्कारितनुत्विषे । श्रीगौतमगुरो ! तुभ्यं वागीशाय महात्मने ॥८॥ इति श्रीगौतम ! स्तोत्र-मंत्रं ते स्मरतोऽन्वहम् । श्री जिनप्रमसूरेस्त्वं, भव सर्वार्थसिद्धये ॥९|| श्री लघुशान्ति-स्तव शान्ति शान्ति-निशान्तं, शान्तं शान्ताऽशिवं नमस्कृत्य । स्तोतुः शन्ति-निमित्तं, मंत्रपदैः शान्तये स्तौमि ||१|| ओमिति निश्चितवचसे, नमो नमो भगवतेऽहते पूजाम् । शान्तिजिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ॥२|| सकलातिशेषक-महासम्पत्ति-समन्विताय शस्याय । त्रैलोक्यपूजिताय च, नमो नमः शान्तिदेवाय ॥३॥ सर्वामरसुसमूह-स्वामिक-सम्पूजिताय निजिताय । भुवनजनपालनोद्यततमाय, सततं नमस्तस्मै ॥४|| सर्वदुरितौघनाशनकराय, सर्वाऽशिवप्रशमनाय दुष्टग्रहभूतपिशाचशाकिनीनां प्रमथनाय !|| यस्येति नाममंत्र Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लघुशान्ति-स्तोत्र ९३ प्रधान-वाक्योपयोगकृततोषा । विजया कुरुते जनहितमितिच, नुता नमत तं शान्तिम् ॥६॥ भवतु नमस्ते भगवति ! विजये सुजये परापरैरजिते ! अपराजिते ! जगत्यां, जयतीति जयावहे ! भवति ! ||७|| सर्वस्यापि च संघस्य, भद्रकल्याणमंगलप्रददे ! साधूनां च सदा शिवसुतुष्टि-पुष्टिप्रदे जीयाः ||८|| मव्यानां कृतसिद्धे ! निवृत्तिनिर्वाणजननि सत्त्वानाम् । अभयप्रदाननिरते, नमोऽस्तु स्वस्तिप्रदे ! तुभ्यम् ||९|| भक्तानां जन्तूनां शुभावहे, नित्यमुद्यते देवि ! सम्यग्दृष्टीनां, धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानाय ||१०|| जिनशासननिरतानां शान्तिनताना चजगतिजनतानाम् । श्रीसम्पतकीर्तियशोवद्धिनि जय देवि ! विजयस्व ॥११il सलिलानल-विष-विषधर-दुष्टग्रह राज-रोग-रणभयतः । राक्षस-रिपुगण-मारि-चौरेति-श्वापदादिभ्यः ||१२|| अथ रक्ष रक्ष सुशिवं, कुरु कुरु शान्ति च कुरु कुरु सदेति । तुष्टि कुरु कुरु पुष्टि, कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरु त्वम् ॥१३॥ भगवति गुणवति ! शिवशान्ति-तुष्टिपुष्टीः स्वस्तीह कुरु कुरु जनानाम् । ओमिति नमो नमो हाँ ह्रीं हूँ, हः यः क्षः ह्रीं फुटफुट् स्वाहा ।१४|| एवं यन्नामाक्षरपुरस्सरं संस्तुता जया देवी। कुरुते शान्ति नमतां, नमो नमः शान्तये तस्मै ||१५|| इति पूर्वसूरिदर्शितमंत्रपद-विदर्मितः स्तवः शान्ते । सलिलादिमयविनाशी शान्त्यादिकरश्च भक्तिमताम् Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता ॥१६|| यश्चैनं पठति सदा, शृणोति भावयति वा यथायोगम् । स हि शान्तिपदं यायात्, सूरिः श्रीमानदेवश्च ॥१७|| सोलह सती-स्तोत्र आदो सती सुभद्रा च, पातु पश्चात्तु सुन्दरी, ततश्चन्दनबाला च, सुलसा च मृगावती ||१|| राजीमती ततश्चूला, दमयन्ती ततः परम् । पद्मावती शिवा सीता, ब्राह्री पुनश्च द्रौपदी ॥२|| कौशल्या च ततः कुन्ती, प्रमावती सती बरा, सतीनामांक-यंत्रोऽयं चतुस्त्रिशत्-समुद्भवः ॥३॥ यस्य पार्वे सदा यन्त्रो, वर्तते तस्य साम्प्रतम्, भूरि-निद्रा न चायाति, नायान्ति भूतप्रेतकाः ||४|| ध्वजायां नपतेर्यस्य. यन्त्रोऽयं वर्तते सदा, तस्य शत्रुभयं नास्ति संग्रामेऽस्य जयः सदा ॥५॥ गृह-द्वारे सदा यस्य यन्त्रोऽयं ध्रियते वरः, कार्मणादिक तन्त्रैश्च न स्यात् तस्य पराभवः ||६|| स्तोत्रं सतीनां सुगुरुप्रसादात्, कृतं मयोद्योत-मृगाधिपेन । यः स्तोत्रमेतत् पठतिप्रमाते स. प्राप्नुते शं सततं मनुष्यः ||७|| Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमाष्टकम्-स्तोत्र ९५ श्री गौतमाष्टकम् . श्रीइन्द्रभूतिर्वसुभूतिपुत्रं पृथ्वीमनं गौतम-गोत्ररत्नम् । स्तुवन्ति देवाः सुरमानवेन्द्राः स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ||१|| श्रीवर्धमानस्त्रिपदीमवाप्य, मुहूर्तमात्रेण कृतानि येन । अंगानि पूर्वाणि चतुर्दशापि स गौ० ॥२॥ श्रीवीरनाथेन पुरा प्रणीतं, मंत्रं महानंदसुखाय यस्य । ध्यायन्त्यमी सूरिवराः समग्रा, स गौ० ॥३॥ यस्याभिधानं मुनयोऽपि सर्वे, गृह्णन्ति भिक्षां भ्रमणस्य काले । मिष्टान्नपानाम्बर पूर्णकामाः, स गौ० ||४|| अष्टापदाद्रौ गगने स्वशक्त्या, ययौ जिनानां पदवंदनाय । निशम्य तीर्थातिशयं सुरेभ्यः स गौ० ||५|| त्रिपञ्चसंख्याशततापसानां तपः कृशानामपुनर्भवाय । अक्षीणलब्ध्या परमान्नदाता, स गो० ॥६॥ सदक्षिणं भोजनमेव देयं, साध'मिकं संघसपर्ययेति । कैवल्यवस्त्रं प्रददौ मुनीनां स गौ० ||७|| शिवंगते भर्तरि वीरनाथे, युगप्रधानत्वमिहैव मत्वा । पट्टाभिषेको विदधे सुरेन्द्रः, स गौ० ॥८॥ त्रैलोक्यबीज विज्ञानबीजं परमात्मबीजं परमेष्ठिबीजम् । यन्नाममंत्रं विदधे सुरेन्द्रः, स गौ० ॥९॥ श्रीगौतमस्याष्टकमादरेण प्रबोधकाले मुनिपुंगवा ये । पठन्ति ते सूरिपदं सदैवानन्दं लभन्तं सुतरां क्रमेण ||१०|| Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता श्री जिनदत्तसूरि गुर्वष्टक-स्तोत्रम् __नमाम्यहं श्रीजिनदत्तसूरि गुणाकरं किन्नरपूज्यपादम् । यतीश्वरं तुष्टिकरं स्वरूपं लावण्यगात्रं बहुसौख्यकारम् । भूपा नरा ये प्रणमंति नित्यं तेषां मनीषां सफलीकरोति । लक्ष्मीर्यशो राज्यरतिं प्रसूते विद्यावरं श्रीललनासुखानि ||२|| भक्त्या नरा ये तव . पादसेवां कुर्वन्ति सत्पुत्र लमंत एव । न दुःखदौर्भाग्यभयं न मारिः स्मरंति ये श्रीजिनदत्तसूरिम् ॥३|| कविः स्वबुद्धया गुरुसंनिमोपि कस्ते गुणान् वर्ण यितुं समर्थः । तथापि त्वद्भक्तिरतो मुनींन्द्र करोमि किंचिद्गुणवर्णनं ते ॥४|| महार्णवे भूधरमस्तकेपि स्मरंति ये श्रीजिनदत्तसूरिम् । सुखैः सहायांति जनाः स्वधाम्नि ततौ भवंतं प्रणमामि कामम् |||| जैनाब्जसंबोधनपूर्णचन्द्रः सत्सेवके कामितकल्पवृक्षः। युगप्रधानं स्तुतसाधुसूरिं सूरीश्वरं श्रीजिनदत्तसूरिम् ॥६॥ न रोगशोका रिपुभूतयक्षा न वा ग्रहा राक्षसदेवः रोषां न पीडयंते तव नाममंत्रातस्मान्नराणां शिवदायकस्त्वम् ॥७॥ इदं गुरोरष्टक मुत्तमं यः प्रभातकाले पठते सदैव । किं दुर्लभं तस्य जगत्त्रयेपि सिध्यन्ति सर्वाणि समीहितानि |८. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्तसूरि अष्टकम् || जिनदत्तसूरि अष्टकम् ॥ सुरकिन्नरवंदितपत्कमलं सकलं समलंकृतभूमितलम् । गतपापमलं चरितैर्विमलं जिनदलगुरु प्रणताऽविरलम् ||१||भुवनत्रयसारियशः पटलं खलमंडलखंडनतः प्रबलम् । विषमायुधवर्गदलं सरलं जिनदत्तगुरुं प्रणमामि कलम् ||२|| विषमस्थलपातिजनोद्धरणं शरणं महसां भविनां शरणम् । हरणं तमसांकमलाकरणं प्रणमामि गुरुं शरणं प्रबलम् ॥३|| वरपालितदुष्करसच्चरणं सुरमानुषकीर्तितसंच्चरणम् । जितदुर्जयचंचलभृत्करणं सुगुरु प्रणमामि लसत्करणम् ॥४|| नरपैर्महितं मुनिपैर्विनुतं प्रमदैरहितं क्षमया सहितम् । न परैश्चलितं न मयैस्खलितं प्रणमामि गुरु भुवने विदितम् ||५|| परमागमस्वच्छमति प्रथितं रमया ललितं सुजनैमिलितम् । सरसै कथितं रुचिभिर्लसितं प्रणमामि गुरु कविमिर्ध्वनितम् ॥६॥ भवतापहरं शिवशकरं धनधान्यभरं कृतमुत्प्रचुरम् । करुणानिलयं मुनिप्राग्रहरं जिनदत्तगुरु प्रणमामिवरम् ||७|| वरवाछगमंत्रिसुतं सुपदं कृतवाहडदेविमनः प्रमुदम् । विगतव्यसनं हितदं समुदा मुनिराजमहं प्रणमामि सदा ||८|| श्रीमच्छ्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोः कल्याणवल्लीतरोलब्धेरेकनिधेः सुबुद्धिजलधे षांनिधेश्चिन्निधेः । प्रत्यूषे विधिना समर्थमुनिना दृब्धं गुरोरष्टकं ये ध्यायन्ति नरा भवन्ति सततं वागीश्वराः श्रीधराः ॥९|| Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... 85 स्तोत्र-रास-संहिता - || अथ कुशलगुरुदेव-स्तुति || सुखं सर्वा संपद् वसति पदयोर्यस्य वदने विनिद्रावागीशा हृदयकमले संविदधिकम् । विरागः सर्वाङगेष्वपि च भगवद्भक्तिरनिशम् समृद्ध यर्थ वंदे कुशलगुरुदेवस्य चरणौ ॥१॥ निशि स्वपाधीनं निशिदिनमधीनौ समयीनां परं वाणीलक्ष्म्योनिलयमपि तद्दाननिपुणौ। सदा यौ वर्ते ते जयत इव पाथोजयुगलं, समृद्धयर्थः ||२|| क्षिपंतौ तौ प्रेक्षां सरसिरुहयोर्यो मृदुलयो पापुष्पाभासोः किशलयजिताशेषमहसो । लसल्ले खालक्ष्मप्रकटितपरा श्रीसदनयोः समृद्ध यर्थ वंदे० ॥३|| सुरेभ्यः स्वस्थेभ्यः कतिपयदिनैर्यः फलमथो कदाचिद्दत्तेद्राकश्रियमपि दरिद्रायपरमाम् । सुरद्रत्यक्त्वोपासत इति बुधौ यो भुवि गतौ, समृद्ध यर्थं वंदे० ||४|| सुरैरास्वाद्यते परमगुरुधर्मोपदिशतः, सदा कामं पीतामृतरसवरांशैरपि गिरिः । श्रुता यस्य श्रेयः श्रियमपि दिशंति स्थिरधियां, समृद्धयर्थं वंदे० |५|| निधिस्सर्वश्रीणामनधिकरणौ सर्व विपदाम्, मृदुस्निग्धौ शोणावुपचितनखौ गूढघुटिकौ । समानौ प्रोत्तुंगप्रपदपदशाखाविलसतौ, समृद्धयर्थं वंदे० ||६|| ययोरर्चा सूते धनसुखधराधामरमणीः । शरीरारोग्यत्वं विनयनयविद्यानिपुणताम् । गुणानौदार्यादीनपि तनयलक्ष्मीः श्रितनृणां, समृद्धयर्थं वंदे० ॥७|मयंकारागारामयसमर Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ कुलगुरुदेव स्तुति पारीन्द्रफणभृन्महापारावारो द्विरदवनवैश्वानरभवम् । न डाकिन्याद्य ुग्रग्रहगरलजं यत्स्मरणतः समृद्धयर्थं वंदे० ||८|| इत्थं श्रीजिनपद्मसूरिरचितं दिव्याष्टकं सद्गुरोः । पुण्यं मंत्रमयं मनोज्ञफलदं पापौघविध्वंसनम् । भक्त्या यः पठति प्रभातसमये सर्वत्र तस्य ध्र ुवं वश्या भूपतयो भवंति सततं लक्ष्मीश्चिरस्थायिनी ||९|| 11 • ९९ • कुशलसूरि - गुरोरष्टकम् ॥ पद्मा कल्याणविद्या कमलपरिमलस्फूर्तिभानुप्रकाशः । प्रीतिस्फीत्याभिनुत्यक्रमकमलमिलन् मानवा मर्त्यनागे ॥ प्रौढाचार्यावलीभिः सदतिशयकृते ध्येयज्ञ ेयः स्वभाव । स्त्रातादेरावरे श्रीजिन कुशल गुरोस्तूपरूपप्रसादः ॥१॥ संघे ग्रामे पुरे वा सकलजनपदे राजवर्गे कुटुम्बे । गच्छे संघाटके वा प्रमुदितमनसा वासरे वा निशायाम् ॥ यन्नाम स्मर्यमाणं भवति भयहरं सर्वसंपत्तिकारी । श्रीमान् शान्तप्रतापी जिनकुशल गुरुर्नत्वदन्योस्ति लोके ||२|| सर्वक्ष्मापालमालापरिषद् विबुधश्रेणिवेणीसभायां । वादव्याख्यानगोष्ठी सुललितवचनाब्यासत्रिव्यासजन्यम् ॥ सौभाग्यं त्वत्प्रसादाद्विमलशशिकला कान्तिकीर्तिर्यदस्मात् । त्रैलोक्यख्यातिसूरिजिनकुशलगुरो बांछितं मे प्रदेहि ||३|| सामर्थ्यं सर्वशास्त्रे स्ववचनपटुतां तार्कि Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० स्तोत्र-रास-संहिता कत्वं कवित्वम् । निष्णातः शब्दशास्त्रे समयनिपुणतां चारुनैमित्तिकत्वम् ॥ ईहध्वे जागरूकं यदि महिमकरीं निर्मला सर्व विद्याम् । सेवध्वं तत्त्रिशुध्या जिनकुशलगुरु कामिते कल्पवृक्षम् ||४|| अंगे बंगे कलिंगे मगधजनपदे गुज रे मालवे वा सौराष्ट्र मेदपाटे मरुषु किमपरं भूर्भुवःस्वस्त्रयेपि ॥ ग्रीष्मे निर्नीरदेशे ललितवितरणामोष्टदानप्रसूतान् । कीर्तिस्ते विस्तरंती जिनकुशलगुरो । पावयत्येव विश्वम् ||५|| सिद्धिः स्वपाणिपा विलसति हि यया स्वान्यसौख्योदयः स्याद्धाले सौभाग्यलक्ष्मीरधिवसति ययोत्सर्पति श्रीरभीष्टा || बुद्धिः सा कापि चित्ते स्फुटति किल यया कृष्यते सर्वदा त्वं । त्वद्भक्तानां नराणां जिनकुशलगुरो दुर्लभं नैव किंचित् ||६|| वाद्धौं वायुप्रवेगप्रजनितवहनोत्पातसंपातमध्ये ज्वालाजिह्वे कराले ज्वलति चयरतस्तस्करोपद्रवे वा ॥ क्ष्मापाले क्रोधरुद्धे हरिकरिभुजगामोगरोगादियोगे । ध्यायंति' त्वत्प्रमावं जिनकुशल गुरो नैव कष्टं लभन्ते ॥७॥ सूरीन्द्रश्रीसुध प्रिभुपदवितताचार्यवयानुधुर्या । मासाद्योद्यत्प्रभावो विशदखरतरश्लाघ्यगच्छेश्वरत्वं ॥ सम्यगज्ञानक्रियाभ्यां जिनमतमतुलं प्रौढमारूप्य रूपाम् प्राप्तस्वर्गश्रियं श्रीजिनकुशलगुरुर्वा छितं वः पिपर्तुः ||८|| श्रीजिनकुशलगुरूणामष्टकमिष्टसिद्धबुधिकरं । यः पठति गुणात्सततं स स्यामोक्ता च वक्ता च ||९|| Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती-प्रथम-स्तोत्रम् १०१ सरस्वती-प्रथम-स्तोत्रम् नमस्ते शारदादेवि काश्मीरप्रतिवासिनि । त्वामहं प्रार्थये मातर्विद्यादानं प्रदेहि मे ||१|| सरस्वती मया दृष्टा देवी कमललोचना । हंसस्कंधसमारूढा वीणापुस्तकधारिणी ॥२॥ सरस्वतीप्रसादेन काव्यं कुर्वन्ति पण्डिताः । तस्मान्निश्चलभावेन पूजनीया सरस्वती ||३|| प्रथमा भारतीनाम्नी द्वितीया च सरस्वती । तृतीया शारदादेवी चतुर्थी हंसवाहिनी ||४|| पंचमी जगद्विख्याता षष्ठी वागीश्वरी तथा । कुमारी सप्तमी प्रोक्ता अष्टमी ब्रह्मचारिणी ||५|| नवमी त्रिपुरादेवी दशमी ब्राह्मणीसुता । एकादशी तु ब्रह्माणी द्वादशी ब्रह्मवादिनी ॥६|| वाणी त्रयोदशी नाम भाषा चैव चतुर्दशी । पंचदशी श्रुतादेवी षोडशी श्रीनिगद्यते ||७|| एतानि षोडशनामानि प्रातरुत्थायः यः पठेत् । तस्य संतुष्यते देवी शारदा वरदायिनी ||८|| या कुंदेन्दुतुषारहारधवला या चन्द्रबिंबानना। या त्रैलोक्यविभूषणा भगवती या राजहंसप्रिया ॥ या पद्मोदलनेत्रपद्मयुगला या जातिपुष्पप्रिया । सा नक्षत्र ललाटपट्टतिलका सा शारदा पातु माम् ||९|| या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या श्वेतपद्मासना, या वीणावरदंडमंडितकरा या शुभ्रवस्त्रावृता । या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता, सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ||१०|| Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ स्तोत्र-रास-संहिता सरस्वती-स्तोत्रम् त्वं शारदा देवि समस्त शारदा विचित्ररूपा बहुवर्णसंयुता। स्फुरन्ति लोकेषु तवैव सूक्तयः सुधास्वरूपा वचसां महोर्मयः ॥१|| भवद्विलोलम्बकदर्शनादहो मन्दोपि शीघ्र कविरेव जायते। तवैव महात्म्यमखण्डमीक्ष्यते तवार्थवादः पुनरेव गीयते ॥२॥ कर्पूरनीहारकरोज्वलो तनुर्विमाति ते भारति शुक्लनीरजे । कराग्रभागे धृत चारुपुस्तका डिण्डीरहीरामलशुभ्रचीवरा ||३|| मरालवाला मलवामवाहना स्वहस्तविन्यस्त विशालकच्छपी। ललाटपट्टे कृतहेमशेखरा सन्ना प्रसन्ना भवतात्सरस्वती ||४|| सद्विद्याजलराशितारणतरी सद्र पविद्याधरी। जाड्यध्वान्तहरी सुधाब्धिलहरी श्रेयस्करी सुन्दरी॥ सत्या त्वं भुवनेश्वरी शिवपुरी सूर्यप्रभाजित्वरी || स्वेच्छादानविताननिर्जरगवी सन्तापतांछित्त्वरी ||५|| सुरनरसुसेव्या सेवकेनापि सेव्या । भवति यदि भवत्या किं कृपा कामगव्या | जगति सकल सूर्यस्त्वत्समान नभव्या । रुचिरसकलविद्या दायिका त्वं तुनव्या |६|| यो भक्त्या सुरितो नवीति सततं जघ्नन्ति मौढ्य महत्त्वत्सेवा च चरीकरीति तरसा बोमोति संश्रेयसाम् ॥ त्वं मातईरित्ति चेतसि निजे दष्टिरोचिर्मयम् । तस्याने नरिनत्ति योजितकरो भूपो नटीवत्स्वयम् ||७|| आख्यातं Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती-स्तोत्रम् १०३ तव देवि ! कोपिन विभुर्माहात्म्यमामूलतो, नो ब्रह्मा न च शंकरो नहि हरि! वाक्पतिः स्वपतिः । त्वच्छक्तिर्वरिवति विश्वजननी लोकत्रयव्यापिनी । सा त्वं काचिदगम्यरम्यहृदया वाग्वादिनी पाहिमाम् ॥८|| स्तोत्रं पठेद्यः श्रुतदेवतायाः । भक्त्यायुतः शुद्धमनाः प्रमाते ॥ विद्याविलासं विपुलं प्रकाशं, प्राप्नोति पूर्ण कमलानिवासम् ॥९|| || सरस्वती-स्तोत्रम् ॥ कलमरालविहंगमवाहना, सितदुकूलविभूषणभूषिता । प्रणतभूमिरुहामृतसारिणी, प्रवरदेहविभामरधारिणी ॥१॥ अमृतपूर्णकमंडलुधारिणी, त्रिदशदानवमानवसेविता । भगवती परमैव सरस्वती, मम पुनातु सदा नयनांबुजम् ॥२॥ जिनपतिप्रथिताखिलवाङ्मयी, गणधराननमंडपनर्तकी । गुरुमुखांबुजखेलनहंसिका, विजयते जगति श्रुतदेवता ||३|| अमृतदीधितिबिंबसमाननां, त्रिजगतीजननिर्मितमाननां। नवरसामृतवीचिसरस्वती, प्रमुदितः प्रणमामि सरस्वतीं ॥४॥ विततकेतकपत्रविलोचने, विहितसंसृतिदुष्कृतमोचने । धवलपक्षविहंगमलांछिते, जय सरस्वति ! पूरितवांछिते ||| भवदनुग्रहलेशतरंगितास्त्वदुचितं प्रवदंति विपश्चितः। नृपसमासु यतः कमलाबलात्, कुचकलाललनानि वितन्वते ||६|| गतधना अपि हि त्वदनुग्रहात्, कलितकोमलवाक्यसुधोर्मयः । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ स्तोत्र-रास-संहिता चकितबाल कुरंगविलोचना, जनमनांसि हरंतितरां नराः ||७|| करसरोरुहखेलनचंचला, तव विभाति वरा जपमालिका | श्रुतपयोनिधिमध्यविकस्वरो-ज्ज्वलतरंगकलाग्रहसाग्रहा || द्विरद-केसरि-मारि-भुजंगमाऽसहनतस्कर-राज-रुजां मयं । तव गुणावलिगानतरंगिणां, न भविनां भवति श्रुतदेवते ! ||९|| स्रग्धरा---ॐ ह्रीं क्ली ब्लू ततः श्री तदनु हसकलं हीमथो ऐं नमोऽन्ते, लक्षं साक्षाज्जपेद् यः किल शुभविधिना सत्तपा ब्रह्मचारी। निर्याती चंद्रबिंबात् कलयति मनसा त्वां जगच्चंद्रिकामां, सोऽत्यर्थं वह्निकुंडे विहितघृतहुतिः स्याद्दशांशेन विद्वान् ॥१०|| शार्दूल---रे रे लक्षण-काव्य-नाटक-कथा-चम्पू समालोकने, क्वायासं वितनोषि बालिश ! मुधा किं नम्रवक्त्रांबुजः । भक्त्याऽऽराधय मंत्रराजमहसा तेनाऽनिशं भारती, येन त्वं कवितावितानसविताऽद्वतः प्रबुद्धायसे ||११|| चंचच्चंद्रमुखी प्रसिद्धमहिमा स्वच्छंदराज्यप्रदाऽनायासेन सुरासुरेश्वरगणैरभ्यचिंता मावतः । देवी संस्तुतवैभवा मलयजा लेपांगरागद्य तिः, सा मां पातु सरस्वती भगवती त्रैलोक्यसंजीवनी ||१२|| __द्रुतविलंबित--स्तवनमेतदनेकगुणान्वितं, पठति , यो मविकः प्रमुदा प्रगे । स सहसा मधुरैर्वचनामृतैनृपगणानपि रंजयति स्फुटम् ||१३|| Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ श्री शारदाऽष्टकम् १०५ ___|| सरस्वती-स्तोत्रम् ॥ सकललोकसुसेवितपत्कजा वरयशोजितशारदकौमुदी । निखिलकल्मषनाशनतत्परा जयतु सा जगतां जननी सदा ||१|| कमलगर्मविराजितभूघना मणिकिरीटसुशोभितमस्तका । कनककुण्डलभूषितकणिका । जय० ॥२॥ वसुहरिद्गजसंस्नपितेश्वरी विधृतसोमकला जगदोश्वरी । जलजपत्र समानविलोचना । जय० ॥३॥ निजसुधैर्य जितामरभूधरा निहितपुष्करवृदलसत्करा । समुदितार्कसुदक्तनुवल्लिका । जय० ॥४|| विविधवांछितकामदुघाभुता, विशदपाहदान्तरवासिनी । सुमतिसागरवर्धनचन्द्रिका । जय० ॥५॥ इति श्वेतपद्मासनादेवी श्वेतपुष्पामिशोभिता । श्वेताम्बरधरा नित्यं श्वेतगंधानुलेपना ||१|| श्वेताक्षी शुक्लवस्त्रा च श्वेतचंदनचचिता । वरदा सिद्वगंधर्वशशिमि स्तूयसे सदा ||२|| स्तोत्रेण च तथा देवी गीर्धात्री च सरस्वती ये पठन्ति त्रिकालं च सर्वविद्यां लमन्ति ते ||३|| इति ॥ .. . ॥ श्री शारदाऽष्टकम् ॥ चन्द्रानने ! नमस्तुभ्यं वाग्वादिनि ! सरस्वति ! मूढत्वं हर मे मातः ! शारदे ! वरदा भव ||१|| दिव्या म्बरसुशोभाढ्ये ! हंससत्पक्षवाहिनी । ज्ञानं मनोज्ञ मे देहि सौख्यं यच्छ सुरेश्वरि ! ||२|| कर्णावतंससंयुक्त ! Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ स्तोत्र-रास-संहिता हस्तप्रस्तुतपुस्तके ! तुम्बीफलकराऽऽयुक्त सद्वीणावाद्यवादिके ||३|| विकचीकुरु मेधां मे जाड्यध्वान्तमपाकुरु । विशालाक्षीं पामुखीं भारती प्रणमाम्यहम् ॥४॥ वाचस्पतिस्तुते देवि ! गाढाज्ञानप्रणाशिनि ! मां नित्यं कल्मषात् पाहि विद्यासिद्धयै च मे भव ॥५॥ ब्रह्माणी विश्वविख्यातां प्रसन्ना ब्रह्मचारिणी । वाकशुद्धिं कुरु मे मातः ! यया कीर्ति लभेत्तराम् ॥६|| ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं नमोऽन्ते महामन्त्रस्वरूपिणी । एकाग्रचेतसा ध्यात्रे त्रिपुरा परितुष्यति |७|| द्विसहस्रशराब्देऽदोऽलेखि ब्राह्व- . यष्टकं मया । पठेन्नित्यं त्रिसन्ध्यं यो भोक्ता वक्ता मवेच्चसः ||८|| इत्थं मनो-वचन-काय-विशुद्ध भावाः, पुण्यश्रियं । श्रुत-सुवर्ण-मयां स्तुवन्ति-ज्ञान-प्रधान-पदसाधन-सावधानां-कल्याण-कोटि-कलितां कमलां लभन्ते ॥९॥ ॥ श्रीगुरु स्तोत्रम् ॥ यथा प्राणा नराधारास्नथैव सुखसागरः ॥ नित्यं नमामि नाथ त्वां त्वमेव शरणं मम ||१|| चखान दुष्टकर्माणि दिव्यज्ञानदिवाकरः । चारित्ररत्नभण्डारदर्शनं विमलं कृतम् ॥२॥ दानशीलतपोमाव अष्टमातृपरायणः आबालब्रह्मचारी च माविता भावना सदा ॥३|| कषाय Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौड़ीपार्श्वनाथ-स्तोत्रम् १०७ मदनिद्रादि पञ्चेन्द्रियाण्यशेषतः । जितानि हास्यजिन्नूनं वैरिणी विकथाजिता ||४|| निजितौकाममोहौ च रागद्वेष विवर्जितः । धौतं सकलमिथ्यात्वं सम्यक्त्वरागरंजितः ||५|| नयनिक्षेपसंवेत्ता गुणस्थानं विशेषतः । विजानासि गुणग्राहिन् ! स्याद्वादञ्च महारसम् ||६|| पवित्रनामजापेन ज्ञानादिसकलं फलं लभन्ते सर्वधीमन्तो नैवात्र कोपि संशयः ||७|| त्वमेव प्राणकाधारस्त्वमेव हितकारकः । त्वमेव सुखसौन्दर्यस्त्वमेव भवतारकः ॥८॥ त्रैलोक्यसिंधोमवतापहतु गुरोः प्रसादप्रभुतांकितांतः । तस्यैव सानन्दसुखाम्बुराशेः पादौ सदानन्दरसेन नौमि ॥९|| ॥ श्री. गौडीपार्श्वनाथ-स्तोत्रम् ॥ . दोहा । वाणी ब्रह्मावादिनी, जाणेजगविख्यात । पासतणा गुणगावतां मुज मुख वसज्यो मात ||१|| नारंगै अणहलपुरै, अहमदावादे पास । गौडीनो धणी जागतो, सहुनी पूरे आस ॥२॥ सुम बेला सुम दिन घड़ी मुहुरत एक मण्डाण । प्रतिमा ते इह पासनी, थई प्रतिष्ठा जाण ॥३॥ ( ढाल ) गुणहि विशाला मंगलीक माला, वामानो सुत साचोजी । धण कण कंचण मणि माणक दे, गौडीनो धणी जाचौजी (गु० ) ||४|| अणहिलपुर पाटण माँहे प्रतिमा, तुरक तणे घर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ स्तोत्र-रास-संहिता हुंतीजी । अश्वनी भूमि अश्वनी पोडा, अश्वनी वाल विगूती जी (गु०) ||५|| जागंतो जक्ष जेहनै कहिये, सुहणो तुरकर्ने आपे जी । पास जिनेसर केरी प्रतिमा, सेवक तुझ संतापे जी (गु० ) ॥६॥ प्रह ऊठीने परगट करजे, मेघा गोठी ने देजे जी ! अधिको म लेजे ओछो म लेजे, टक्का पांचसै लेजे जी (गु० ) ||७|| नहिं आपिस तो मारीस मुरडीस, मोर बंध बंधास्ये जी । पुत्र कलत्र धन हय हाथी तुझ, लछि ' घणी घर जास्यै जी (गु०) ||८|| मारग पहिलो तुझनें मिलस्यै, सारथ वाह जे गोठी जी । निलवट टीलो चोखा चेड्यो, वस्तु वहै तसु पोठी जी (गु०) |९|| ( दूहा ) || मनसु वोहतो तुरकडो, मानें वचन प्रमाण ! बीबी ने सुहणा तणो, संभलावै सहिनाण ||१०|| बीबी बोले तुरकने, बड़ा देव है कोय । अबसताव परगट करो नहीतर मारै सोय ||११|| पाछली रात परोडीये, पहली वांधै पाज | सुहणा माहे सेठने, संभलावै जक्षराज ||१२|| ( ढाल ) एम कही जक्ष आयो राते, सारथवाहने सुहणे जी । पास तणी प्रतिमा तुं लेजे, लेतो सिर मत धुणे जी .( एम० ) ||१३|| पांचसै टक्का तेहने आपे, अधिको म आपिस वारू जी । जतन करी पहुंचाडे थानिक प्रतिमा गुण संभारेजी (एम० ) ||१४|| तुझने होसी बहु फलदायक, भाई गोठी सुणजे जी । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौडीपार्श्वनाथ-स्तोत्रम् १०९ 'पूजीस प्रणमीश तेहना पाया, प्रह उठीने थुणजे जी ( एम०) ||१५|| सुहणो देईने सुर चाल्यो आपणे थानक पहुंतो जो । पाटण मांहें सारथंबाहु, हीडे तुरकने जोतो जी (एम० ) ||१६|| तुरकै जातां दीठो गोठी, चोखा तिलक लिलाड़े जी । संकेत पहुतो साचो जाणि, बोलावै बहु लाडै जी (एम०) ||१७|| मुझ घरि प्रतिमा तुझनें आपु, पास जिणेसर केरी जी । पांचसै टक्का जो मुझ आपै, मोल न मांगु फेरी जी (ए०) ||१८|| नाणो देई प्रतिमा लेई, थानक पहुंतो रंगै जी । केसर चन्दन मृगमद घोली, विधसुं पूजा रंगै जी (एम०) ||१९|| गादी रूडी रूनी कीधी, ते मांहि प्रतिमा राखै जी । अनुक्रम आव्या परिकर माहें, श्री संघ ने सुर साखै जी (एम०) ||२०|| उच्छव दिन-दिन अधिका थाये, सत्तर भेद सनात्रो जी || ठाम-ठाम ना दरसण करवा, आवै लोक. प्रभातो जी (एम०) ||२१|| (दूहा) ॥ इक दिन देखे अवधिसुं, परिकर पुरनो भङ्ग । जतन करूं प्रतिमा तणो, तीरथ अछ अमङ्ग ॥२२॥ सुहणो आपै सेठने, थल अटवी उज्जाड़ । महिमा थास्यै अति घणि, प्रतिमा तिहां पहुँचाड ||२३|| कुशल खेम तिहां अछे, तुझने मुझने जाणि । संका छोड़ी काम करि, करतो मकर संकाणि ||२४|| (ढाल) ॥ पास मनोरथ पूरा करे, बाहण एक वृषभ जोतरै । परिकरथी परियाणों कर, एक थल Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० . स्तोत्र-रास-संहिता चढि बीजो उतरे ||२५|| बारै कोस आव्या जेतले, प्रतिमा नवि चाले तेतले । गोठी मन विमासण थई, पास भुवन मंडावं सही ॥२६।। आ अटवी किम करू प्रयाण । कटको कोई न दीसै पहाण । देवल पास जिनेसर तणो, मंडावं किम गरथें विणो ॥२७॥ जल विन श्रीसंघ रहस्यै किहां सिलावटो किम आवे इहां । चिन्तातुर थयो निद्रा लहै, यक्षराज आवीने कहै ॥२८॥ गुहली ऊपर नाणो जिहां, गरथ घणो जाणीजे तिहां ।' स्वस्तिक सोपारी ने ठाणि, पाहण तणी उल्लटम्यै खाणि ॥२९|श्रीफल सजल तिहां किल जूओ, अमृत · जलनीरसी कूओ । खारा कुवा तणो इह सैनाण, भूमि पड्यो छै नीलो छाण ||३०|| सिलावटो सीरोही वसै कोड परामवियो किसमिसे । तिहां थकी तुं इहां आणजे, सत्य वचन माहरो मानजे ॥३१॥ गोठीनो मन थिर थापियो, सिलावटने सुहणो दियो ! रोग गमीने पूरू आस, पास तणो मंडे आवास ॥३२॥ सुपन माहे मान्यो ते वेण, हेम वरण देखाड्यो नैंण । गोठी मनह मनोरथ हुआ, सिलावटने गया तेडवा ॥३३|| सिलावटो आवै सूरमो, जिमें खीर खाँड घृत चूरमो । घडै घाट करें कोरणी, लगन मलै पाया रोपणी ॥३४|| थम-थंभ कींधी पुतली, नाटक कौतुक करती रली । रङ्गमंडप रलियामणौ रसै, जोतां मानवनो मन बसै॥३५।। नीपायो पूरो प्रासाद, Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौड़ीपार्श्वनाथ-स्तोत्रम् १११ स्वर्ग समो मेडे आवास । दिवस विचारी इंडो घड्यो ततखिण देवल ऊपर चढ्यो ॥३६|| शुभ लगन शुभ वेला वास, पव्वासण वेठा, श्रीपास । महिमा मोटी मेरु समान, एकलमिल वगड़े रहैवान ॥३७|| बात पुराणी मैं सांमली, स्तवन मांहि सूधी सांकली । गोठी तणा गोतरिया अछ, यात्रा करीने परने पछे ॥३८॥ (दोहा) विघन विडारम् यक्ष जगि, तेहनो अकल सरूप । प्रीत करे श्रीसंघ ने, देखाडै निज रूप ||३९|| गिरुओ गोडी पास जिन, आंपे अरथ मंडार । सांनिध करै श्रीसंघने, आसा पूरणहार ॥४०॥ नील पलाणे नील हय, नीलो थई असवार मारग चूका मानवी, वाट दिखावण हार ॥४१॥ (ढाल) वरण अढार तणो लहै भोग, विघन निवारे टाले रोग । पवित्र थई समरै जे जाप, टाले सगला पाप संताप ||४२|| निरधन ने घरि धन नो सूत, आप अपुत्रीयाने पुत्र | कायर ने सूरापण धरै, पार उतारै लच्छी बरै ॥४३॥ दोभागी ने दे सौभागः पग विणाने आपै पग । ठाम नहीं तेहने द्य ठाम, मनवांछित पूरे अभिराम ॥४४|| निराधार ने ये आधार, भवसागर उतारे पार । आरतियानी आरत मंग, धरै ध्यान ते लहै सुरंग ॥४५|| समय सहाय दीयै यक्षराज, तेहना मोटा अछे दिवाज । बुद्धि हीण ने बुद्धि प्रकाश, गूगाने दे वचन विलास ॥४६|| दुखिया ने सुखनो दातार, भय मंजन रंजण अवतार । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ स्तोत्र-रास-संहिता बंधन तूटे वेडी तणा श्री पार्श्वनाम अक्षर स्मरणा ॥४७॥ (दूहा) श्री पार्श्वनाम अक्षर जपे, विश्वानर विकराल । हस्ती जूथ दूरे टले, दुद्धर सिंह सियाल ||४८|| चोर तणा भय चूकवे, विष अमृत उड़कार । विषधरनो विष ऊतरे संग्रामें जय जयकार ॥४९|| रोग सोग दारिद्र दुख, दोहग दूर पुलाय । परमेसर श्री पासनो, महिमा मन्त्र जपाय ॥५०॥ (कडखानी चाल) उंजितुं उजितुंउजि उपसम धरी, ॐ ह्रीं श्री श्री पार्श्व अक्षर जपते। भूत ने प्रेत झोटिंग व्यन्तर सुरा, उपसमे वार इकवीस गुणते. (उ०) ||१|| दुद्धरा रोग सोग जरा जंतने ताव एकान्तरा दुत्तपते । गर्मबन्धन व्रणं सर्प विछु विषं, चालिका बालमेवा झखते (उ०) ||५२|| साइणी डाइणी रोहणी रंकणी, फोटका मोटका दोष हुंते। दाढ़ उंदरतणी कोल नोला तणी, स्वान सीयाल विक-- राल दंते ॥५३॥ (उ०) धरणेन्द्र पद्मावती समरं सोमावती वाट आघाट अटवी अटते। लखमी लोदु मिलें सुजस वेला उलै, सयल आस्या फले मनहसंतै (उ०) ||५४|| अष्ट महाभय हरें कानपीड़ा टलै ऊतरै सूल सीसग भगंते । वदत वर प्रीतसुं प्रीतिविमल प्रभु, श्री. पास जिण नाम अभिराम मन्ते (उंजित) ॥५५॥ .. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतम स्वामीजी का रास ११३ || श्री गौतम स्वामीजी का रास ॥ वीर जिणेसर चरण कमल, कमला कंय वासो, पणमवि पणिसुं सामीसाल, गोयम गुरु रासो । मण तणु वयण एकंत करवि, निसुणहु भो भविया, जिम निवसे तुम देह गेह गुण गण गहगहिया ||१|| जंबूदीव सिरि भरह खित्त, खोणी तल मंडण, मगह देस सेणिय नरेश, रिऊ दल बलं खंडण । धणवर गुव्वर गाम नाम, जिहां गुण गणं. सज्जा: विप्प वसे वसुभूइ तत्थ, तसु पुहवी मज्जा ||२|| ताण पुत्त सिरि इन्दभूइ, भूवलय पसिद्धो, चउदह विज्जा विविह रूव, नारी रस लुद्धो । विनय विवेक विचार सार, गुण गणह मनोहरः सात हाथ सुप्रमाण देह, रूवहि रंभावर ||३|| नयण वयण कर चरण जणवि, पंकज जल पाडिय; तेजहिं तारा चन्द सूर, आकाश ममाडिय । रूवहि मयण अनंग करवि, मेल्यो निरधाडिय, धीरिम मेरु गंभीर सिंधु, चंगम चय चाडिय ||४|| पेक्खवि निरुवम रूव जास, जण जंपे किंचियः एकाकी किल मित्त इत्थ, गुण मेल्या संचिय । अहवा निच्चय पुत्व जम्म, जिणवर इण अंचिया रंभा पउमा गउरी गंग, रतिहां विधि वंचिय |५|| नय बुध नय गुरु कविण कोय, जसु आगल रहियोः पंच सयां गुण पात्र छात्र, हीडे परवरियो । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ स्तोत्र-रास-संहिता करय निरंतर यज्ञ करम, मिथ्यामति मोहियः अणचल होसे चरम नाण, दंसणह विसोहिय ||६|| वस्तु || जंबूदीव जंबूदीव भरह वासंमि, खोणीतल मंडण, मगह देस सेणिय नरेसर, वर गुव्वर गाम तिहां विप्प वसे वसुभूइ सुन्दर । तसु पुहवि भजा, सयल गुण गण रूव निहाण । ताण पुत्त विजानिलो, गोयम अतिहि सुजाण ||७|| मास ॥ चरम जिणेसर केवलनाणी, चौविह संघ पइट्ठा जाणी। पावापुर सामी संपत्तो, चउविह देव निकायहिं जुत्तो |८|| देवहि समवसरण तिहां कीजे, जिण दीठे मिथ्यामति छीजे । त्रिभुवन गुरु सिंहासन बेठा, ततखिण मोह दिगंत पइट्ठा ||९|| क्रोध मान माया मद पूरा, जाये नाठा जिम दिन चोरा । देव दुंदुमि आगासें बाजी, धरम नरेसर आव्यो गाजी !|१०|| कुसुम वृष्टि विरचे तिहां देवा, चउसठ इंद्रज मांगे सेवा । चामर छत्र सिरोवरि सोहे, रूवहि जिनवर जग सहु मोहे ||११|| उपसम रसभर वर वरसंता, जोजन वाणि वखाण करंता । जाणिवि वर्द्धमान जिन पाया, सुर नर किन्नर आवइ राया ||१२|| कंतसमोहिय जलहलकंता, गयणविमाणहि रणस्णकंता । पेक्खवि इन्दभूइ मन चिते, सुर आवे अम यज्ञ हुवंते ||१३|| तीर तरंडक जिम ते वहता, समवसरण पुहता गहगहिता । तो अभिमाने गोयम जंपे, इण अवसर को तणु कंपे ॥१४॥ मूढा लोक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतम स्वामीजी का रास ११५ अजाण्युं बोले, सुर जाणंता इम कांई डोले । मो आगल कोई जाण मणीजे, मेरु अवर किम उपमा दीजे ॥१५॥ वस्तु | वीर जिणवर वीर जिणवर नाण | सम्पन्न, पावापुर सुरमहिय, पत्त नाह संसार तारण, तिहिं देवइ निम्महिय, समवसरण बहु सुक्ख कारण, जिणवर जग उज्जोय कर, तेजहि कर दिनकार । सिंहासण सामी ठव्यो, हुओ तो जय जयकार ||१६|| भास | तो चढियो घणमाण गजे, इन्दभूइ भूदेव तो, हुँकारो करी संचरिय कवणसुजिणवर देवतो । जोजन भूमि समवसरण पेक्खवि प्रथमारंभ तो, दह दिस देखे विबुधवधू, आवंति सुररंभ तो ||१७|| मणिमय तोरण दंड ध्वज, कोसीसे नवघाट तो, वइर विवर्जित जंतुगण, प्रातिहारिज आठ तो। सुर नर किन्नर असुरवर, इंद्र इंद्राणी राय तो, चित्त चमक्किय चितवै ए, सेवंता प्रभु पाय तो ||१८|| सहसकिरण सामी. वीरजिण, पेखिय रूप विशाल तोः एह असंभव संभव ए, साचो ए इंद्रजाल तो । तो बोलावइ त्रिजगत गुरु, इंद्रभूइ नामेण तोः श्री मुख संसय सामी सवे, फेडे वेद पएण तो ||१९|| मान मेलि मद ठेलि करी भगतिहि नाम्यो सीस तो। पंच सयांसुं व्रत लियो ए, गोयम पहिलो सीस तो । बंधव संजम सुणिवि करी अगनिभूइ आवेय तोः नाम लेई आमास करे, ते पण प्रतिबोधेय तो ॥२०|| इण अनुक्रम गणहर रयण थाप्या Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ स्तोत्र-रास-संहिता वीर इग्यार तो, तो उपदेशे भुवन गुरु, संयमशु व्रत बारतो । बिहुं उपवासे पारणो ए, आपणपे विहरंत तोः गोयम संजम जग सयल, जय जयकार करंत तो ॥२१॥ वस्तु ॥ इन्द्रभूइ इन्द्रभूइ चढियो बहुमान, हुंकारो करि कंपतो, समवसरण पहुतो तुरंत तोः जे जे संसा सामि सवे, चरमनाह फेडे फुरंत तो। बोधिबीज संजाय मने, गोयम भवहि विरत्त, दिक्खा लेई सिक्खा सही, गणहर पय संपत्त ||२२|| भास || आज हुओ सुविहाण, आज पचेलिमां पुण्य भरो, दीठा गोयम सामि, जो निय नयणे अमिय झरो । समवसरण मझार, जे जे संसय ऊपजे ए, ते ते पर उपगार कारण पूछे मुनि पवरो |२३|| जिहां जिहां दोजें दीख, तिहां तिहां केवल ऊपजेए; आप कनें अणहुंत, गोयम दीजें दान इम । गुरु ऊपर गुरु भक्ति सामी गोयम ऊपनियः इणिछल केवलनाण, रागज राखे रंग मरे ॥२४॥ जो अष्टापद सेल, वंदे चढि चउवीस जिण, आंतम लब्धिवसेण चरम सरीरी सो य मुनि । इय देसणा निसुणेह, गोयम गणहर संचरिय, तापस पन्नरसएण, तो मुनि दीठो आवतो ए ॥२५|| तप सोसिय निय अंग-अम्हां सगति न उपजे ए, किम चढसे दृढ़काय, गज जिप दीसै गाजतो ए, गिरुओ ए अभिमान, तापस जो मन चितवे ए। तो मुनि चढियो वेग, आलंबवि दिनकर किरण ||२६|| Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमस्वामी जी का रास ११७ कंचण मणि निप्पन्न, दंडकलस ध्वजवड सहिय, पेखवि परमाणन्द, जिणहर मरतेसर महिय । निय निय काय प्रमाण चहुँ दिसि संठिय जिणह बिंब, पणमवि मन उल्लास, गोयम गणहर तिहां वसिय ॥२७॥ वयर सामीनो जीव, तिर्यक् जुभक देव तिहां । प्रतिबोध्या पुंडरीक, कंडरिक अध्ययन भणी । वलता गोयम सामि, सवितापस प्रतिबोध करे, लेई आपण साथ, चाले जिम जूथाधिपति ॥२८|| खीर खांड घृत आण, अमिय वूठ अंगूठ ठवे, गोयम एकण पात्र, करावे पारणो सवे | पंच सयां शुम भाव, उज्ज्वल भरियो खीर मिसे । साचा गुरु संयोग, कवल ते केवल रूप हुआ ||२९|| पञ्च सया जिणणाह, समवसरण प्राकारत्रय, पेखवि केवल नाण, उप्पन्नो उज्जोय करे । जाणे जणवि पीयूष गाजंती घन मेघ जिम, जिनवाणी निसुणेवि, नाणी हुआ पंचसया ||३०|| वस्तु ॥ इण अनुक्रम इण अनुक्रम नाण पन्नरसे, उप्पन्न परिवरिय, हरिदुरिय जिणणाह वंदइ । जाणेवि जगगुरु वयण, तिहि नाण अप्पाण निदइ । चरम जिणेसर इम भणे, गोयम म करिस खेह, छेह जाय आपण सही, होस्यां तुल्ला बेव ||३१|| मास | सामियो ए वीर जिणन्द, पूनमचन्द जिम उल्लसिय, विहरियो ए मरहवासम्मि, वरस बहुत्तर संवसिय । ठवतो ए कणय पउमेण, पाय कमल संधै सहिय, आवियो ए नयणानंद Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ स्तोत्र-रास-संहिता नयर पावापुर सुरमहिय ॥३२|| पेसियो ए गोयम सामि देवसमा प्रतिबोध करे; आपणो ए तिसला देवि, नंदन पुहतो परमपए । वलतो ए देव आकाश, पेखवि जाण्यो जिण समए, तो मुनि ए मन विखवाद, नाद भेद जिम ऊपनो ए ॥३३|| इण समे ए सामिय देखि, आप कनासु टालियो ए जाणतो ए तिहुअण नाह, लोक विवहार न पालियो ए। अतिमलो ए कीधलो सामि जाण्यो केवल केवल मागसे ए, चिन्तव्यो ए बालक जेम, . अहवा केडे लागसे ए ||३४|| हुँ किम ए वीर जिणंद, भगतिहि भोले भोलव्यो ए, आपणो ए ऊँचलो नेह, नाह न संपइ साचव्यो ए, साँचो ए वीतराग, नेह न हेजे लालियो ए । तिणसमे ए गोयम चित्त, राग वैरागे वालियो ए ॥३५|| आवतो ए जो उल्लट्ट, रहितो रागे साहियो ए, केवल ए नाण उप्पन्न, गोयम सहिज़ ऊमाहियो ए। तिहुअणए जयं जयकार केवल महिमा सुर करे ए, गणधरु ए करय बखाणः मविया भव जिम निस्तरे ए ॥३६॥ वस्तु॥ पढमं गणहर पढम गणहर बरस पच्चास गिहवासें संवसिय, तीस बरस संजम विभूसिय, सिरि केवल नाण पुणः बार बरस तिहुअण नमंसिय । राजगृही नयरी ठव्यो बाणवइ बरसाउ, सामी गोयम गुणनिलो, होसे सिवपुर ठाउ ॥ ३७ ।। भास ॥ जिम सहकारे कोयल टहुके, जिम कुसुमावन परिमल महके, जिम चन्दन सोगंध निधि । जिम गंगाजल Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमस्वामी जी की रास ११९ लहिरया लहके, जिम कणयाचल तेजे झलके, तिम, गोयम सोमाग निधि ॥३८|| जिम मानसरोवर निवसे हंसा, जिम सुरतरु वर कणयवतंसा, जिम महुयर राजीव वनें । जिम रयणायर रयणे विलसे, जिम अंबर तारागण विकसे तिम गोयम गुरु केवल घनें ॥३९|| पूनम निसि जिम ससियर सोहे, सुरतरु महिमा जिम जग मोहै, पूरब दिस जिम सहसकरो । पञ्चानन जिम गिरिवर राजे, नरवई घरजिम मयगल गाजे तिम जिन सासन मुनि पवरो ||४०|| जिम गुरु तरुवर सोहे साखा, जिम उत्तम मुख मधुरी भाषाः जिम वन केतकि महमहे ए। जिम भूमिपति भुयबल चमके जिम जिन मन्दिर घण्टा रणके, गोयम लव्धे गहगह्यो ए ॥४१|| चिन्तामणि कर चढियो आज, सुरतरु सारे वंछिय काज, कामकुम्भ सहु वशि हुआ ए | कामगवी पूरे मन कामी, अष्ट महासिद्धि आवे धामी, सामी गोयम अणुसरि ए ॥४२॥ पणवक्खर पहिलो पमणीजे, माया बीजो श्रवण सुणीजे, श्रीमति सोमा संभवए । देवां धुर अरिहंत नमीजे, विनयपहु उवझाय थुणीजे इण मंत्र गोयम नमो ए ॥४३||पर घर वसतां काय करीजे, देस देसांतर काय ममीजे, कवण काज आयास करो । प्रह ऊठी गोयम समरीजे, काज समग्गल ततखिण सीज, नव निधि विलसे तिहां घरे ए ॥४४|| चउदह सय बारोत्तर Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० स्तोत्र-रास-संहिता वरसे, गोयम गणहर केवल दिवसे, कियो कवित्त उपगार परो। आदिहिं मंगल ए पमणीजे, परव महोच्छव पहिलो दीजे, रिद्धि वृद्धि कल्याण करो ॥४|| धन माता जिण उयरे धरियो, धन्य पिता जिण कुल अवतरियो, धन्य सुगुरु जिण दीखियो ए । विनयवंत विद्या भण्डार, तसु गुण पुहवी न लन्मइ पार, वड जिम साखा विस्तरो ए । गोयम सामीनो रास भणीज, चउविह संघ रलियायत कीजे, रिद्धिवृद्धि कल्याण करो ॥४६|| कुंकुम चंदन छडो दिवरावो, माणक मोतीना चौक पुरावो, रयण सिंहासण बेसणो ए । तिहां बेसी गुरु देसना देसी, मविक जीवना काज सरेसी, नित नित मङ्गल उदय करो ॥४७|| .. राग प्रभाती जे करे, प्रह उगमते सूर ॥ भूख्या भोजन संपजे, कुरला करे कपूर ||१|| अंगूठे अमृत बसे, लब्धि तणा भण्डार || जे गुरु गोतम समरियें, मनवंछित दातार |२|| पुण्डरीक गोयम पमुहा, गणधर गुण संपन्न || प्रह ऊठी नें प्रणमतां, चवदेसे बावन्न ||३|| खंतिखमंगुणकलियं, सुविणियं सव्वलद्धि संपण्णं ॥ वीरस्स पढमं सीसं, गोयम सामी नमसामि ||४|| सर्वारिष्टप्रणाशाय, सर्वाभीष्टार्थदायिने ॥ सर्वलब्धिनिधानाय गौतमस्वामिने नमः ||५|| Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुजय तीर्थ का रास १२१ ॥ शत्रुजय तीर्थ का रास ॥ - (दोहा ) श्री ऋषहेसरपायनमी । आणी मन आनंद। रासभणुं रलियामणु । सेजेनो सुखकंद ||१|| संवतचार सतोतरे। हुवा धनेसरसूर । तिण सेव॒जमहातम कियो शिलादित्य हजूर ||२|| वीरजिणंद समोसा । सेजउपर जेम । इंद्रादिक आगलि कह्यो। सेजेमहात्म्य एम ॥३|| सेत्रुज तीरथ सारिषो । नहिं छे तीरथ कोय । स्वर्गमृत्यु पाताल में । तीरथ सघला जोय ||४|| नामे नवनिधि संपजे । दीठां दुरित पुलाय । भेटतां भवमय टले । सेवंतां सुख थाय ||५|| जंबूनामे द्वीप ए । दक्षिण भरत मझार । सोरठ देश सुहामणो | तिहां छे तीरथसार ||६|| || ढाल-पहली || ( रामगिरि-राग) सेव॒जोने श्री पुंडरीक । सिद्धक्षेत्र कहुं तहतीक । विमलाचलने करुं परणाम । ए सेजेजेना इकवीस नाम ||१|| सुरगिरिने महागिरि पुण्यरास। श्रीपद पर्वत इंद्रप्रकास । महातीरथ पूरवे सुखकाम। ए०||२|| सासतोपर्वतने दृढ़शक्ति । मुक्ति निलो तिणकीजे भक्ति । पुष्फदंत महापदम सुठाम । ए०॥३|| पृथ्वीपीठसुभद्र कैलाश । पातालमूल अकर्मकतास। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ स्तोत्र-रास-संहिता सर्व काम कोजे गुणग्राम । ए० ||४|| श्री सेजेना इकवीस नाम । जपेज बेठा अपणे ठाम । सेजे जात्रानो फल लहे । महावीर भगवंत इम कहे ||५|| (दोहे) सेव॒जो पहिलेअरे । असीजोयणपरमांण । पिहुलो मूल ऊंच . पणे । छव्वीस जोयण जाण ।१। सित्तरजोयण जाणवो बीजे अरे विशाल। बोसजोयण ऊंचो कह्यो । मुझ वंदना त्रिकाल - ||२|| साठ जोयण तोजे अरे । पहुलो तीरथराय । सोल . जोयण ऊँचो सही। ध्यान धरु चितलाय ॥३|| पचास . जोयण पिहुल पणे । चोथे अरे. मझार । ऊचो दस जोयण अचल । नितप्रणमे नरनार ||४|| बार जोयण पंचम अरे, मूलतणे विस्तार । दो जोयण ऊंचों अछे। सेजो तीरथ सार ||५|| सात हाथ छठे अरे। पिहुलो परबत एह । ऊचो होस्ये सौ धनुष, सासंतो तीरथ एह ॥६॥ || ढाल-दूसरी ॥ (जिनवरसु मेरो मन लीणो) केवलज्ञानी प्रमुख तीर्थंकर । अनंत सीधा इण ठामरे अनंतवली सीझसे. इणठामे । तिण करुं नित परणामरे |१|| सेव॒जे साधु अनंता सीधा । सीझसी वलीय अनंतरे । जिणसेव॒ज तीरथ नहीं भेट्यो । ते गरमावास कहंतरे । सेत्रुजे ॥२|| फागुण सुदि आठमने दिवसे, ऋषभदेव सुख Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुजय तीर्थ का रास १२३ काररे । रायणरूंख समोसर्या स्वामी पूरबनिनाणूं वार रे । से० ॥३॥मरतपुत्र चैत्री पूनमदिन । इण सेजेजगिरि आयरे । पांचकोडीसुं पुंडरीक सीधा तिण पुंडरीक कहायरे । से० ।४। नमि विनमि राजा विद्याधर बेबेकोडी संघातरे । फागुण सुदि दसमी दिन सीधा, तिण प्रणमं परमातरे । से० ||५|| चैत्रमास वदि चउदसने दिन, नमी पुत्री चौसठरे । अणसणकरि सेव॒गिरि ऊपर, ए सहुसीधा एकट्ठरे । से० |६|| पोतरा प्रथम तीर्थंकर केरा, द्रविडने वारिखिल्लरे । काती सुदि पूनम दिन सीधा, दस कोडीसुं मुनि शिल्लरे से० ॥७॥ पांचे पांडव इणगिरिसीधा, नवनारद ऋषिरायरे। साम्ब प्रद्य म्न गया इहां मुगते, आठे करम खपायरे । से० ॥णा नेमि विना तेवीस तीर्थंकर, समोसा गिरिशृंगरे। अजित शांति तीर्थंकर बेडं, रह्या चोमासे रंगरे। से० ॥९|| सहस साधु परिवार संघाते थावच्चासत साधरे। पांचसे साधुसु सेलगमुनिवर, सेव॒जे शिवसुख लाधरे। से० ||१०|| असंख्याता मुनि सेजे सीधा, भरतेसरने पाटरे। राम अने भरतादिक सीधा, मुक्तितणी ए वाटरे । से० ||११|| जालि मयालीने उवयाली, प्रमुख साधनी कोडोरे। साधुअनंता सेजेजे सीधा, प्रणम बेकर जोडीरे। से० ॥१२॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ स्तोत्र-रास-संहिता ॥ ढाल-तीसरी ॥ ( चौपाई ) सेजेजेना कहुं सोलउद्धार ते सुणज्यो सहूको सुविचार । सुणतां आणंद अंग न माय । जन्म जन्मना पातिक जाय ||१|| ऋषमदेव अयोध्यापुरी । समवसर्या स्वामी हित करी । भरत गयो वंदणने काज | ये उपदेश दियो जिनराज ॥२॥ जगमांहे मोटा श्रीअरिहंतदेव । चौसठ इन्द्र करे जसुसेव । तेहथी मोटा संघ कहाय। जेहने प्रणमें जिनवरराय ॥३|| तेहथी मोटो संघवी कह्यो । भरत सुणीने मन गहगह्यो । भरत कहे ते किम पामिये । प्रभु कहे सेजे जात्रा किये ॥४|| मरत कहे संघवी पद मुझ । थे आपो हुँ अंगज तुझ । इंद्र आण्या अक्षतवास । प्रभु आपे संघवी पद तास ||५|| इंद्र तिण वेला ततकाल । भरत सुभद्रा ' बिहुंनेमाल । पहिरावी घर संप्रेडिया । सखर सोनाना रथ आपिया ||६|| ऋषमदेवनी प्रतिमावली । रत्नतणी दीधी मनरली। मरते गणधर घर तेडिया । शांतिक पौष्टिक सहु तिहां किया ||७|| कंकोत्री मूंकी सहु देश । भरत तेडायो संघ अशेष । आयो संघ अयोध्यापुरी । प्रथम थकी रथ जात्रा करी ||८|| संघ भगति कीधी अति घणी । संघ चलायो सेजा भणी। गणधर बाहुबल केवली। मुनिवर कोडि साथे लिया वली |९|| चक्रवर्ति Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शत्रुजय तीर्थ का रास १२५ नी सगली रिद्धि । भरते साथे लीधी सिद्धि । हय गय रथ पायक परिवार ! तेतो कहतां नावे पार ||१०|| भरतेसर संघवी कहवाय । मारग चैत्य उधरतो जाय । संघ आयो सेव॒जे पास । सहुनी पूगी मननी आस ॥११॥ नयणे निरख्यो सेजेराय । मणि माणक मोत्यांसु वधाय। तिण ठामे रही महोच्छव कियो । भरते आणंदपुर वासियो ॥१२॥ संच सेजे ऊपर चढ्यो । फरसंता पातिक झडपड्यो। केवलज्ञानी पगला तिहां । प्रणम्या रायण रुख छ जिहां ॥१३|| केवलज्ञानी स्नात्र निमित्त । ईशानेंद्र आणी सुपवित्त । नदी सेव॒जे सोहामणी । मरते दीठी कौतुक मणी ॥१४|| गणधर देवतणे उपदेश । इन्द्रे वलि दीधो आदेश । श्रीआदिनाथ तणो देहरो। भरत करायो गिरि सेहरो ||१५|| सोनानो प्रासाद उत्तंग । रतनतणी प्रतिमा मनरंग । भरते श्री आदीसरतणी । प्रतिमा थापि सोहामणी ||१६|| मरुदेवानी प्रतिमा मली। माही. पूनिम थापी रली । ब्राह्नो सुंदरी प्रमुख प्रासाद । भरते थाप्या नवले नाद ||१७|| इम अनेक प्रतिमा प्रासाद । भरत कराया गुरुसुप्रसाद। भरततणो पहिलो उद्धार | सगलोही जाणे संसार ||१८|| Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ स्तोत्र-रास-संहिता ॥ ढाल-चौथी ॥ ( सिधूडो-आसाउरी ) भरततणे पाटे आठमे | दंडवीरज थयो रायोजी। भरत तणीपरे संघ कीयो । सेजे संघवी कहायोजी ||१|| सेव॒जे उद्धार सांभलो ( टेक ) सोल मोटा श्रीकारोजी। असंख्यात बीजा वलि । तेहनोकहुँ अधिकारोजी । से० ||२|| चैत्य करायो रूपा तणो । सोनानो बिंब सारोजी । मूलगो बिंब भंडारियो । पच्छिम दिशि तिण वारोजो। से० ॥३|सेत्रुजेनी जात्रा करी । सफल कियो अवतारोजी । दंडवीरज राजातणो, ए बीजो उद्धारोजी। से० ||४|| सो सागरोपम व्यतिक्रम्या, दंडवीरजथी जिवारोजी । ईशानेंद्र करावीयो, ए त्रीजो उद्धारोजी ||५|| चोथा देवलोकनो धणी, माहेंद्र नाम उदारोजी। तिण सेत्रुजेनो करावीयो, ए चौथो उद्धारोजो। से०।६। पांचमा देवलोकनो धणी, ब्रहृद्र समकित धारोजी। तिण सत्रुजेनो करावियो, ए पांचमो उद्वारोजी। से० ||७|| भुवनपती इन्द्र ने कियो, एक छट्ठो उद्धारोजी । चक्रवत्ति सगरतणो कियो, ए सातमो उद्धारोजी । से० |८|| अभिनंदन पासे सुण्यो, सेत्रुजेनो अधिकारोजी । व्यंतर इन्द्र करावियो, ए आठमो उद्धारोजी । से० ॥९|| चंद्रप्रभु स्वामिनो पोतरो, चंद्रशेखर नाम मल्हारोजी। चंद्रजस राय करावियो, ए नवमो उद्धारोजी । से० ॥१०॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुंजय तीर्थ का रास I 1 शांतिनाथनी सुणी देशना, शांतिनाथ सुत सुविचारोजी चक्रधर राय करावियो, ए दशमो उद्धारोजी | से० |११| दशरथ सुत जगदीपतो, मुनिसुव्रत स्वामी बारोजी । श्रीरामचन्द्र करावियो, ए इग्यारमो उद्धारोजी । से० ||१२|| पांडव कहे अम्हे पापीया, किम छुटां मोरी मायोजी । कहे कुंती से जतणी, जात्रा कियां पाप ज़ायोजी | से० ॥१३॥ पांचे पांडव संघ करी, सेत्रु ज भेट्यो अपारोजी । काष्ट चैत्य बिंब लेपना, ए बारमो उद्धारोजी | से० ||१४|| मम्माणी पाषाणनी, प्रतिमा सुन्दर सरूपोजी । श्रीसेत्र, जेनो संघ करी, थापी सकल सरूपोजी | से० ||१५|| अट्ठोत्तर सो वरसां गया, विक्रम नृपथी जिवारोजी । पोरवाड जावड करावियो, ए तेरमो उद्धारोजी | ० ||१६|| संवत् बार तिओत्तरे, श्रीमाली सुविचारोजी वाहडदे मुहते करावियो, ए चौदमो उद्धारोजी | से० ॥१७॥ संवत् तेरे इकोत्तरे, देसलहर अधिकारोजी । समरे साह करावियो, ए पनरमो उद्धारोजी से० ||१८|| संवत् पनर सत्यासीये, वैसाख वदि सुभवारोजी । करमें डोसी करावियो, ए सोलमो उद्धारोजी । से० ||१९|| संप्रति काले सोलमो, ए वरते छे उद्धारोजी । नित नित कीजे वंदना, पामीजे भवपारोजी । से० ||२०|| T I I १२७ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ स्तोत्र-रास-संहिता (दोहे) ___ वलि सेत्र ज महातम कहुं, सांमलो जिम छे तेम । सूरि धनेसर इम कहे, महावीर कह्यो एम ||१|| जेहवो तेहवो दरसणी, सेत्र जे पूजनीक । भगवंतनो वेस वांदतां लाभ हुवे तहतीक ||२|| श्रीसेत्र जा ऊपरे, चैत्य करावे जेह । दल परमाण समोलहे, पल्योपम सुखतेह ॥३|| सेत्रुजे ऊपर देहरो, नवो नीपावे कोय । जिर्णोद्धार करावतां, आठ गुणोफल होय |४|| सिर ऊपर गागर धरी, स्नात्र करावे नार । चक्रवर्तिनी स्त्री थइ, शिव सुख पामे सार ॥५॥ काती पूनिम सेत्र जे, चढिने करे उपवास । नारको सो सागर समो, करें करमनो नाश । |६|| काती परव मोटो कह्यो, जिहां सिद्धा दशक्रोड । ब्रह्म स्त्री बालक हत्या, पापथी नाखे छोड ||७|| सहस लाख श्रावक मणी, भोजन पुण्य विशेष । सेत्र जे साधु पडिलामतां, अधिको तेहथी देख ||८|| ॥ ढाल-पांचवीं ॥ ( धन-धन अयवंती सुकुमालने-एदेशी ) सेत्र जे गयां पाप छुटीये, लीजे आलोयण एमोजो। तप जप कीजे तिहां रही, तीर्थंकर कह्यो तेमोजी । से० ||१|| जिण सोनानी चौरी करी, ए आलोयण तासोजी। चैत्रीदिन सेत्र जे चढी, एक करे उपवासोजी। से० ॥२|वस्तु तणी चौरी करी, सात आंबिल सुध थायोजी। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुजय तीर्थ का रास १२९ काती सात दिन तप कियां, रतन हरण पाप जायोजी ॥से०||३|| कांसी पीतल तांबा रजतनी, चौरी कीधी जेणोजी || सात दिवस पुरमढ करे, तो छूटे गिरि एणोजी ।।से०||४|| मोती प्रवाला मूगीया, जिण चौर्या नर नारोजी । आंबिल करि पूजा करे, त्रण टंक शुद्ध आचारोजी ॥ से० ॥५।। धान पाणी रस चोरिया, जे भेटे सिद्धक्षेत्रोजी || सेव॒जे तलहटी साधुने, पडिलाभे शुध चित्तोजी | से० ||६|| वस्त्राभरण जिणे हर्या, ते छूटे इण मेलोजी ॥ आदिनाथ नी पूजा करे, प्रह ऊठी बहु वेलोजी | से० ॥७॥ देव गुरुनो धन जे हरे, ते शुद्ध थाये एमोजी || अधिको द्रव्य खरचे तिहां, पात्र पोषे बहु प्रेमोजी | से० ॥८|| गाय मेंस घोड़ा मही, गजनो चोरणहारोजी । दीये ते वस्तु तीरथे, अरिहंत ध्यान प्रकारोजी ॥ से० ॥९|| पुस्तक देहरा पारका, तिहां लिखे आपणो नामोजी || छुटे छम्मासी तप कियां, सामायिक तिण ठामोजी | से० ॥१०|| कुंवारी परिव्राजिका, सधव अधव गुरु नारोजी | व्रत भांजे तिणने कह्यो, छम्मासी तप सारोजी ॥ से० ||११|| गौ विप्र स्त्री बालक ऋषि, एहनो घातक जेहोजी ॥ प्रतिमा आगे आलोवतां, छूटे तप करी तेहोजी || से० ॥१२॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० स्तोत्र-रास-संहिता ॥ ढाल-छट्ठी ॥ ( कुंवर भले आवीयो एदेशी ) संप्रतिकाले सोलमोए, ए वरते छे उद्धार | सेत्रुजे यात्रा करूए, सफल करू अवतार । से० ।। छह रो पालतां चालियेए, सेजेजे केरी वाट । से०। पालीताणे पोहचियेए, संघ मिल्या बहुथाट । से० ।२। ललितसरोवर पेखीयेए, वलि सत्तानी वाव ।से०। तिहां विसरामौ लीजियेए, वडने चौतरे आय । से० ।३। पालीताणे पाजडीए, चढ़िये . ऊठी परमात । से० सेजनदीय सोहामणीए दूर थकी देखंत। से०।४। चढ़िये हिंगुलाज ने हडेए, कलिकुंड नमीये पास । से० । बारीमाहे पेसीयेए, आणी अंग उल्लास । से० ||५|| मरुदेवी ढूंक मनोहरु ए, गज चढ़ी मरुदेवीमाय । से० । शांतिनाथ जिन सोलमाए, प्रणमीजे तसु पाय । से०।६। वंस पोरवाडे परगडोए, सोमजी साह मल्हार । रूपजी संघवी करावियो ए, चौमुख मूल उद्धार । से० ७। चौमुख प्रतिमा चरचियेए, ममती मांहि भलाबिंब । पांचे पांडव पूजियेए, अद्भुत आदि प्रलंब । से०।९। खरतरवसही खांतिसु ए, बिंब जुहारु अनेक । नेमिनाथ चॅवरी नमुए, टालूं अलग उद्वेग ।से०।१०। धरमदुवार मांहे नीसरु ए, कुगति करू अति दूर। आवं आदिनाथ देहरेए, करम करूं चकचूर ।से० 1११। मूलनायक प्रणमुमुदाए, आदिनाथ भगवंत । देव जुहारु देहरेए । ममती मांहि ममंत । से० ।१२। सेवेंजे Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुजय तीर्थ का रास १३१ ऊपर कीजियेए, पांचे ठाम सनात्र । कलश अठोत्तरसो करिए, निरमल नीरसु गात्र । से० ।१३। प्रथम आदीसर आगलेए, पुंडरीक गणधार । रायण तल पगला नमुंए, शांतिनाथ सुखकार । से० ।१४। रायण तल पगला नमए, चौमुख प्रतिमा चार || बीजी भूमि बिंबाबलिए पुंडरीक गणधार । से० ॥१५॥ सूरजकुंड निहालियेए, अति भली उलका झोल ॥ चेलणा तलाई सिद्धसिलाए, अंग फरसुं उल्लोल । से० ।१६। आदिपुर पाजे उतरु ए, सिद्धवड लू विसराम । चैत्य प्रवाड इणपरि करीए । सीधा वंछित काम । से० ।१७। जात्रा करी सेजा तणीए । सफल कियो अवतार कुशल खेमसुं आवियोए, संघ सहु परिवार । से० |१८| सेबूंज रास सोहामणोए, सांभलज्यो सहु कोई । घर बेठां मणे मावसुं ए, तसु जात्रा फल होई । से० ।१९। संवत सोल बयांसीयेए, सावण वदि सुखकार || रास मण्यो सेजतणोए, नगर नागौर मझार । से० ।२०। गिरुवो गच्छ खरतरतणों ए। श्री जिनचंद सूरीस || प्रथम शिष्य श्रीपूजनाए । सकलचंद सुजगीस । से०।२१। तास सीस जग जाणियेऐ, समयसुन्दर उवझाय || रास रच्यो तिण रूवडोए, सुणतां आणंद थाय । से० ।२२। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ दादा श्रीजिनदत्तसूरि स्तोत्र ॥ दादा श्रीजिनदत्तसूरि स्तोत्र (प्राकृत) ॥ ॐ ह्रीं गिव्वाणचक्क-प्फुड-मउडमणि-ग्घिठ्ठ-पायार विंदो, अंबा दिन्नप्पहाणा जुगवर-पय-संवाहणेगावतारी श्री क्ली ब्लू ठडढ विज्जू ! मयणयविजइ ! जोइणीचक्क थंभा, सड्ढाणं खत्तिएसाइवर सहस तीसेगलक्खाणं कत्ता ॥१॥ रोगा सोगाहि वाही-समर-डमर-संताप हत्तार ! देव ! , श्री विजा-मंत-तंतागर ! महि-महिआ ! बाहडं बाप सूअ ! ; वेराटी हुंबडक्खक्कुलतिलय-सुमंतीसवाछोग-पुत्त ! ; मिच्छालावी कुकभी-दमण-मिगवइ ! दत्तसूरींद ! एहि ॥२॥ विण्णाणी ! अहि सामी ! वर वरद ! वरं देहि णे दंसणं य, सुरक्खो ! सुप्पसण्णो भव विहिपहलग्गाण मव्वाण खिप्पं; अण्णाणं णाणदाया! कुरु कुरु मम संइहितं दिव्व कंती !, ही स्वाहां तेत्तिझाणा कुसलकर ! सया रक्ख मं रक्ख ताय ! ॥३|मंतं लक्खं सवायं किर सुह विहिणा बंमचेरं धरंतो, अंगावण्णा दिणंते विमलहियययो सुद्ध जावं जवंतोः णिच्चं एगासणी जो अमलतणु अकंपासणो धम्मरत्तो, सक्खं णासग्गदिट्ठी सुगुरुदरिसणं लेइ सो दुल्लहं वि ॥४॥ सच्चारित्ताण सीसेण जिणरयणसूरीणं मंतप्पमावा, भद्देणं थुत्तमेयं सिरि खरयर गच्छाहिवाणं कयं जे लद्धद्धीदं सपेम्म सरलयर हिआ सत्तहुत्तं श्रुणंति, णिच्च सुक्खं अखंडं अमिय यर सुहग्गं पगेते लहंति ||५|| Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता १३३ ॥ श्री दादा गुरु गुण इकतीसा || ॥दोहा॥ . श्री गुरु देव दयाल को, मन में ध्यान लगाय । 'अष्ट सिद्धि नवनिधि मिले, मनवांछित फल पाय || ॥ चौपाई॥ श्री गुरु चरण शरण में आयो, देख दरस मन अति सुख पायो । दत्त नाम दुःख भंजन हारा, बिजली पात्र तले धरनारा ||१|| उपशम रसका कन्द कहावे, जो सुमरे फल निश्चय पावे । दत्त सम्पत्ति दातार दयालु, निज भक्तन के हैं प्रतिपालु ||२|| बावन वीर किये वश भारी, तुम साहिब जग में जयकारी || जोगणी चौंसठ वशकर लीनी, विद्या पोथी प्रगट कीनी ||३|| पांच पीर साधे बलकारी, पांच नदी पंजाब मझारी । अन्धों की आंखें तुम खोली, गूगों को दे दीनी बोली ॥४|| गुरु . बल्लम के पाट विराजो, सूरि सकल में सूरज सम साजो । “जग में नाम तुम्हारो कहिये, परतिख सुरतरु सम सुख लहिये ||५|| इष्ट देव मेरे गुरु देवा, गुणी जन मुनी जन करते सेवा । तुम सम और देव नहीं कोई, जो मेरे हितकारक होई ||६|| तुम हो सुरतरु वञ्छित दाता, मैं निशदिन तुमरे गुण गाता। पारब्रह्म गुरु हो परमेश्वर, अलख निरंजन तुम जगदीश्वर ||७|| तुम Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्री दादा गुरु गुण इकतीसा गुरु नाम सदा सुखदाता, जपत पाप कोटि कट जाता। कृपा तुम्हारी जिन पर होई, दुःख कष्ट नहीं पावे सोई ||८|| अभयदान दाता सुखकारी, परमातम पूरण ब्रह्मचारी । महाशक्ति बल बुद्धि-विधाता, मैं गुरु नित उठ तुम्हें मनाता ||९|| तुम्हरी महिमा है अतिमारी, टूटी नाव नई कर डारी । देश देश में स्तूप तुम्हारा, संघ सकल के हो रखवाला ||१०|| सर्व सिद्धि निधि मंगल दाता, देव परी सब शीश नमाता | सोमवार पूनम सुखकारी, गुरु दर्शन आवे नरनारी ||११|| गुरु छलने को किया विचारा, श्राविका रूप जोगणी धारा । कीली उज्जयिनी मझधारा, गुरु गुण अगणित किया विचारा ॥१२॥ हो प्रसन्न दीने वरदाना, सात जो पसरे मही दरम्याना। युगप्रधान जय जन हितकारा, अंबड, मान चूर्ण कर डारा ||१३|| मात अम्बिका प्रकट भवानी, मन्त्र कलाधारी गुरु ज्ञानी । मुगल पूत को तुरत जिलाया, लाखों जन को जैन बनाया ॥१४|| दिल्ली में पतशाह बुलावे, गुरु अहिंसा ध्वज फहरावे | भादो चौदस स्वर्ग सिधारे, सेवक जन के संकट टारे ||१५|| पूजे दिल्ली में जो ध्यावे, संकट नहीं सपने में आवे । ऐसे दादा साहब मेरे, हम चाकर चरणन के घेरे ||१६|| निशदिन भैरू गोरे काले, हाजिर हुकम खड़े रखवाले। कुशल करण लीनो अवतारा, सद्गुरु मेरे सानिधकारा ||१७|| डूबती Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र-रास-संहिता १३५ जहाज भक्त की तारी, पंखी रूप धर्यो हितकारी । संघ अचंभा मन में लावे, गुरु तब शुम व्याख्यान में हाल ‘सुनावे ||१८|| गुरु वाणी सुन सब हरखाये, गुरु भवतारण तरण कहाये। समयसुन्दर की पंच नदी में, फट गई जहाज नई की छिन में ||१९|| अब है सद्गुरु मेरी बारी, मुझ सम पतित न और भिखारी । श्री जिनचन्दसूरि महाराजा, चौरासी गच्छ के सिरताजा ॥२०॥ अकबर को अमक्ष छुडायो, अमावस को चांद उगायो । भट्टारक पद नाम धरावे, जय जय जय जय गुणि जन गावे ||२१|| लक्ष्मी लीला करती आवे, भूखां भोजन आन खिलावे । प्यासे मक्त को नीर पिलावे, जलधर उण बेला ले आवे ||२२|| अमृत जैसा जल बरसावे, कभी काल नहीं पड़ने पावे | अनधन से भरपूर. बनावे, पुत्र पौत्र बहु सम्पत्ति पावे ||२३|| चामर युगल ढुले सुखकारी, छत्र किरणीया शोमा भारी। राजा राणा शीश नमावे, देव परी सबही गुण गावे ॥२४॥ पूरब पच्छिम दक्षिण तांई, उत्तर सर्व दिशा के मांही । जोत जागती सदा तुम्हारी, कल्पतरु सद्गुरु गणधारी ||२५|| विजयइन्द्रसूरि सूरीश्वर राजे, छड़ीदार सेवक संग साजे । जो यह गुरु इकतीसा गावे, सुन्दर लक्ष्मी लीला पावे ||२६|| जो यह पाठ करे चितलाई, सदगुरु उनके सदा सहाई। वार एक सौ आठ जो गावे, राजदण्ड बन्धन कट जावे ||२७|| संवत Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्री दादा गुरु गुण इकतीसा आठ दोय हजारा, आसो तेरस शुक्करवारा । शुभ मुहरत वर सिंह लगन में, पूरण कीनो बैठ मगन में ||२८|| || दोहा ॥ सद्गुरु का समरण करे, धरे सदा जो ध्यान । प्रातः उठी पहिले पढ़े, होय कोटि कल्याण ||२९|| सुनो रतन चिंतामणि, सत्गुण देव महान् । वन्दन श्रीगोपाल का, लीजे विनय विधान ||३०|| चरण शरण में मैं रह, रखियो मेरा ध्यान । भूल चूक माफी करो, हे मेरे भगवान ॥३१॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- _