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स्तोत्र-रास-संहिता
करय निरंतर यज्ञ करम, मिथ्यामति मोहियः अणचल होसे चरम नाण, दंसणह विसोहिय ||६|| वस्तु || जंबूदीव जंबूदीव भरह वासंमि, खोणीतल मंडण, मगह देस सेणिय नरेसर, वर गुव्वर गाम तिहां विप्प वसे वसुभूइ सुन्दर । तसु पुहवि भजा, सयल गुण गण रूव निहाण । ताण पुत्त विजानिलो, गोयम अतिहि सुजाण ||७|| मास ॥ चरम जिणेसर केवलनाणी, चौविह संघ पइट्ठा जाणी। पावापुर सामी संपत्तो, चउविह देव निकायहिं जुत्तो |८|| देवहि समवसरण तिहां कीजे, जिण दीठे मिथ्यामति छीजे । त्रिभुवन गुरु सिंहासन बेठा, ततखिण मोह दिगंत पइट्ठा ||९|| क्रोध मान माया मद पूरा, जाये नाठा जिम दिन चोरा । देव दुंदुमि आगासें बाजी, धरम नरेसर आव्यो गाजी !|१०|| कुसुम वृष्टि विरचे तिहां देवा, चउसठ इंद्रज मांगे सेवा । चामर छत्र सिरोवरि सोहे, रूवहि जिनवर जग सहु मोहे ||११|| उपसम रसभर वर वरसंता, जोजन वाणि वखाण करंता । जाणिवि वर्द्धमान जिन पाया, सुर नर किन्नर आवइ राया ||१२|| कंतसमोहिय जलहलकंता, गयणविमाणहि रणस्णकंता । पेक्खवि इन्दभूइ मन चिते, सुर आवे अम यज्ञ हुवंते ||१३|| तीर तरंडक जिम ते वहता, समवसरण पुहता गहगहिता । तो अभिमाने गोयम जंपे, इण अवसर को तणु कंपे ॥१४॥ मूढा लोक