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पूर्वस्वर तीर्थङ्कर साधना-पथ के निरतिशय प्रकाश-स्तम्भ हैं । वे वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं, जो मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में अपने-अपने समय में सदाचार का बीज-वपन करते हैं और धर्म तथा नीति का उपदेश देते हैं।
नेतिक तथा साधनापरक जीवन के आदर्श पुरुष के रूप में तीर्थङ्करों की स्तुति करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। इनकी स्तुति अथवा भक्ति करने से आत्म-स्वरूप का तथा आत्मनिहित परमात्म-स्थिति का साक्षात्कार होता है । जैसे अजकुल में परिपालित सिहशावक यथार्थ सिंह के दर्शन से अपने सुप्त सिंहत्व को मुखरित कर लेता है, वैसे ही व्यक्ति भगवद्भक्ति या तीर्थकर-स्तुति के द्वारा निज में जिनत्व का अनुसन्धान कर लेता है, आत्मा में समाहित परमात्मा की आमा को प्रकट कर लेता है।
परमात्म-स्तुति वस्तुतः आत्म-बोध का माध्यम है। तीर्थङ्कर और सिद्ध भगवान् मात्र साधना के आदर्श और प्रेरणा के सूत्र हैं। उनसे किसी प्रकार की उपलब्धि की अपेक्षा रखना अर्थशून्य है। वे तो मुक्त हैं। दाता और तारक उनके धर्म नहीं हैं। अतः उनकी स्तुति वास्तव में अपनी ही स्तुति एवं अपने ही बोध का साधन है। भगवद्स्तुति के द्वारा कषाय का विसर्जन एवं सद्गुणों का प्रगटन व अभिवर्धन होता है। .. तीर्थङ्करों की स्तुति या पूजा दो रूपों में की जाती है-१. द्रव्य एवं २. भाव ।
पवित्र वस्तुओं के द्वारा तीर्थङ्कर-बिम्ब की पूजा करना द्रव्य-पूजा है और तीर्थङ्करों - के महान् गुगों का कीर्तन करना भाव-पूजा है। भाव-पूजा सर्वोपरि है । द्रव्य: पूजा में भी भावों की प्रधानता है। गृहस्थ-श्रावक के लिये द्रव्य-पूजा एवं • भाव-पूजा-दोनों करने का विधान है, किन्तु श्रमण-साधकों को केवल भाव-पूजा करने का निर्देश है।
स्तोत्र-रास-संहिता' नामक प्रस्तुत पुस्तक में भाव-पूजा से सम्बन्धित यत्र-तत्र - विकीर्ण सामग्री संकलित है। संकलन वृहत्, सार्वभौम, परिशुद्ध एवं सुन्दर हो-ऐसा हमने .' प्रयास किया है । सज्जन-महानुभावों द्वारा इसके नित्य उपयोग करने करवाने में उपदेशक, प्रकाशक, संकलक एवं संशोधक-सभी के श्रम की सार्थकता है।
अरिहन्त-तीर्थकर भगवन्तों एवं आदर्श महापुरुषों के प्रति कोटिशः नमन-निवेदन । · २५ फरवरी, १९८६
-चन्द्रप्रभसागर सम्पर्क सूत्र • ९ सी. एस्प्लेनेड रो (ईस्ट) कलकत्ता-६९