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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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सवय । काममा बाकी है। (• ) failed न बनाइने, नलिनी (५) पुस्तक का सफर का साय, म दोहरी का पता (१) को समय पनि ।
" शावजननी है, इनकी विनय कवि"
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जैन युग निर्माता
अथवा
आदर्श जैन चरित्र।
सम्पादक
पं० मूलचन्द्र जैन "वत्सल" विद्यारन-कलानिधि, साहित्यशास्त्री-दमोह ।
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मूलचन्द किसनदास कापड़िया, दिगम्बर जैनपुस्तकालय गांधीचौक, कापडियाभवन
सूरत-Surat.
प्रथमवार]
वीर सं० २४७७
[प्रति १०००
मूल्य-पांच रुपये।
मुद्रकःमुलधाम किसनदास कापड़िया, 'जैनविजय प्रिं प्रेस
गांधीचौक-सूरत।
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निवेदन।
ऐसे तो कई तीर्थकर, कई महामुनि, कई महान् सम्राट् व कई आचार्योंके चरित्र प्रकट हो चुके हैं, लेकिन एक ऐसे ग्रन्थकी आवश्यकता थीं जिसमें जैन युग-निर्माता, जैन यग-पुरुष व जैन युगाधार व जैन युगान्त महापुरुषोंके चरित्र एक साथ सरल भाषामें हों अतः ऐसे ऐतिहासिक कथा-ग्रन्थकी आवश्यकता इस ग्रन्थसे पूर्ण होगी।
इस ग्रन्थकी रचना जैनाचार्य, जैन कवियोंका इतिहास, ऐतिहासिक महापुरुष, आदिर के रचयिता श्रीमान् पं० मूलचंदजी जैन वत्सल विद्यारत्न, विद्या-कलानिधि, साहित्यशास्त्री-दमोहनिवासीने महान् परिश्रमपूर्वक की है। दो वर्ष पहिलेकी बात है कि जब आपने हमें इस ग्रन्थके प्रकाशनके विषयमे लिखा तो हमने इसे देखकर इसके प्रकाशनको स्वीकृति बड़े हर्षसे दी थी जो आज हम प्रकाशन कर रहें हैं। हमसे जितने हो सके उतने भाव-चित्र इस कथा-ग्रन्थमें संमिलित किये हैं जो पाठकों को अधिक रुचिकर होंगे।
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वत्सलजीकी लेखनी इतनी सरल व सुबोध होती है कि उसे पढ़नेसे मन नहीं हठता। अतः इस चरित्र ग्रन्थका अधिकाधिक प्रचार हो इसलिये हमने इसे प्रकट करना उचित समझा है । आशा है इस प्रथम आवृत्ति का शीघ्र ही प्रचार हो जायगा। इसमें कोई त्रुटि रह गई हो तो सुज्ञ पाठक उन्हें सूचित करनेकी कृपा करें ताकि वे दूसरी आवृत्तिमें सुधर सके।
ऐसे महान ग्रन्थका संपादन करनेवाले पंडित वत्सलजी जैन समाजके महान् उपकारके पात्र है, तथा हम भी आपके परम उपकारी हैं कि आपने ऐसी महान् कथा-ग्रन्थकी रचना प्रकाशनार्थ भेज हमें कृतार्थ किया, अतः आप अतीव धन्यवादके पात्र है।
निवेदकःसूरत-वीर सं०२४७७ )
मूलचन्द किसनदास कापड़िया श्रावण सुदी १५ ता० १७-८-५१.
-प्रकाशक ।
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- प्रस्तावना।
. उस पुराने युगकी यह कथाएं हैं जब हमारी सभ्यता विकासके गर्भमें थी। तब भोग युगके महासागरसे कर्मयुगकी तरंगें किस मृदुगतिसे प्रवाहित हुयीं, कर्मयुगके आदिसे मानव सभ्यताका विकास किस तरह हुआ ? रीति रिवाजोंकी आवश्यक्ता कब और क्यों हुई, उसकी उत्पत्ति और वृद्धि किन साधनोंसे हुई, इन सबका मनोरंजक पणन इन कथाओं द्वारा किया गया है।
प्राचीन भारतीय सभ्यताकी प्रारंभिक स्थिति क्या थी ? प्राचीन भारतीय किस दिशामें थे ? उनका अन्तिम आदर्श क्या था? आत्म विकासके लिए उनके हृदयमें कितना स्थान था, ये कथाएं यह सब रहस्य उद्घाटित करेंगी।
इन कथाओंमें उन चित्रोंके दर्शन होंगे जिनके बिना हमारी सभ्यताके विकासका चित्रपट अधूरा रह जाता है ।
ये कथाएं केवल मनोरंजन मात्र नहीं हैं, किन्तु प्राचीन युगके प्रारंभ कालकी इन कथाओंको पढ़नेपर पाठकोंको इसमें और भी कुछ मिलेगा। इसमें सभ्यताके मूल बीज मिलेंगे और भारतीयोंका अतीत गौरव, महान त्याग और आत्मोत्सर्गकी पुण्यः स्मृतियां प्राप्त होंगी। • इन कथाओं द्वारा प्राचीन मान्यताओंको प्राचीन कथानकोंमेंसे निकालकर, उन्हें मौलिक रूपमें जनताके साम्हने रखनेका थोड़ासा प्रयत्न किया गया है। इसमें वर्णित मान्यताओं और महत्वके
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( ६ )
दृष्टिकोणमें मतभेद हो सकता है लेकिन उस समयकी परिस्थितिको साम्हने रखकर तुलना करनेवालोंको यह सब जंचेगा ।
आदिकी ५ कथाएं कर्मयोगी ऋषभदेव, जयकुमार, सम्राट् भरत, श्रेयांसकुमार और बाहुबलि इनमें भारतकी आदि कर्मभूमिकी प्रवृति मिहंगी, और अन्य कथाओं में आत्म त्याग, सहनशीलता, वीरत्व, आत्मस्वातंत्र्य और पवित्र आत्मदर्शनकी छंटा दिग्दर्शित होगीं ।
प्रत्येक युगका संक्रान्ति समय महत्व पूर्ण हुआ करता है । उस समय पुरानी सृष्टिके अंतकें साथ नई सृष्टिका सृजन होता हैं । वह सृष्टि ही आगेकी रचनाके लिये आधारभूत हुआ करती है । उम समयकी परिस्थितिको काबू में रखना, उद्वेलित जनताको
तोप देना और उसका मार्ग प्रदर्शन करना अत्यंत महत्वशाली होता है। यह कार्य महानतर व्यक्ति द्वारा ही पूर्ण होती हैं । परिस्थितिको सम्हालने का चातुर्य, महत्व और ज्ञानवैभव किन्हीं विरले पुरुषोंमें हुआ करता है ।
दिग्द और अव्यवस्थित जनताका मार्ग प्रदर्शन साधारण महत्वका कार्य नहीं हैं, ऐसे महाँ संकटके समय में जिन महापुरुषों पूथ प्रदर्शकका कार्य किया है वे हमारी श्रद्धा और आदरके पात्र हैं। प्राचीन इतिहास में उनका गौरवमय स्थान हैं। उन्हें अपनी श्रद्धांजलियां समर्पित करना हमारा कर्तव्य हैं ।
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आजकै विकासंवादकें युगमें जथं कि भौतिकविज्ञान आत्मविज्ञानका स्थान ले रहा है, त्याग और आत्मसंतोषकी यह कथाएँ नया जीवन और शांति दे सकेंगी। भोगवाद और इन्द्रिय विलासमें जीवनकी सफलता माननेवालोंके साम्हने आत्म प्रकाशका यह प्रदर्शन सफल हो सकेंगी अथवा नहीं इन सन्देह हम नहीं पड़ना चाहते। हमें तो जनतर्कि सान्देन महीपुर
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जन युगनिर्मात-चित्रसूत्री।
नं०
चित्र
१-श्री तीर्थकाकी मामाके सोलह स्त्र ... ... . २-पांडुक शिलाप श्री बीर्थकरके जन-कल्याणका ३-श्री १००८ कर्मयोगी भगवान की ऋषभदेव ... १६ ४-सुलोचना स्वयंवर व मेघेश्वर जयकुमार ... ३२ ५-भारतके आदि चक्रवर्ति सम्राट् भरतके १६ स्वप्न ४८ ५-भ० ऋषभदेवको राजा श्रेयांसकुमार इक्षुरसका आहार
दे रहे हैं ... ... ... ... ... ६४ ७-महाबाहु श्री बाहुबलि- श्री कोमहस्वान करमेला ८० ८-सीनाजीकी अमि-फरीक्षा (अपिका सरोवर बनजाना) १२८ ९-इमार श्री २०१८ नेमिनाथस्वाझीको मा कमले
वैगग्य, विवाह रथ वापिस व गिरनार यमन ... 39% १०-तपस्वी गजकुमार-मुनिराजके मस्तकपर अग्नि जल रही है २०८ ११-पवित्र-हृदय चारुदत्त व वेश्या-पुत्री वसंतसेना २१६ १२-श्री चारुदत्त मुनि आशामें ... ... २२४ १३-श्री पाश्वनाथको पूर्वभाषिका उपसर्ग, धरणेन्द्र
तथा पद्मावती देवी सरसम निवारण ... २३२ १४-श्री १००८ भ० माशयबासी चीन प्रतिमाजी) २४० १५-सुकुमार सुकुमाल मुनि अवस्थामें (स्यालनियां आपका
भक्षण कर रही है) ... ... ... २७२
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(११)
१६-भ० महावीरके जीवको सिंह योनिमें मुनिराजका
देश... ... ... ... ... 42 १७-श्री 320 सान महावीर सिंमान) ... २८८ २८-१० वीरका आगमन- अश्वमेध यज्ञ बन्द ... , १९-मुनिराज़, श्रेणिकराजा व चेलना रानी... ... २९६ २०-भगवानके समक्सरणा (बारह भा).का दृश्य ... ३५२ २१-इन्द्रभूति सौरमका मालसंबंस देखने की मानभंग ३५३ २२-समंतभद्रस्वामी द्वारा स्वयंभू स्तोत्र रचते ही महा
देवकी पिंडी फ्टकर श्री चंद्रप्रभुकी प्रतिमा प्रकट होना व नमस्कार करना ... ... ... ३६८
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युग पुरुष-संक्षिप्त परिचय।
ऋषभदेव-भोगभूमिके अंतमें आदिनाथ ऋषभदेवका जन्म हुआ.
था तब कर्मयुगका प्रारंभ हुआ। कल्पवृक्षोंका अभाव हो जानेपर आपने भोजनकी उचित व्यवस्था की। प्रत्येक व्यक्तिके योग्य मानव कर्तव्यका निरूपण किया। कर्मके अनुसार वर्ण व्यवस्थाकी स्थापना की, साधुमार्गका प्रदर्शन किया और आत्मधर्मकी विवेचना की। आपने
केलाश पर्वतसे निर्वाण लाभ लिया। जयकुमार-चक्रवर्ति भरतके मैनापतिक रूपमें आपने म्लेच्छ
राजाओंसे सर्व प्रथम युद्ध किया । आपके समयमें स्वयंवर प्रथाका प्रारंभ हुआ। आप स्वयंवरके प्रथम विजेता थे । एकपत्नी व्रतके आदर्शको आपने सर्व प्रथम स्थापित
किया और देवताओं द्वारा परीक्षणमें सफल हुए। चक्रवर्ति भरत-भारतके आप आदि चक्रवर्ती समाद थे। आपने
सम्पूर्ण भारत और म्लेच्छ खंडोंमें दिग्विजय की थी। आपने ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की। आत्मज्ञानके
आदर्शको आपने प्रदर्शित किया । दानवीर श्रेयांसकुमार-आपने दान प्रथाका सर्व प्रथम प्रदर्शन
किया, चार दानोंकी व्यवस्था की और उनकी विस्तृत
विवेचना की। महाबाहु बाहुबलि-आपने स्वाधीनताको रक्षाके लिए अपने भाई
चक्रवर्ति भरतसे युद्ध किया और उसमें विजयी हुए। वर्षों तक आप अचल समाधिमें स्थिर रहें ।
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जैन पुग-निर्माता। चमत्कारिणी ज्ञान शक्ति थी। अपनी अपूर्व प्रतिमाके बलपर साकस्था ही उन्होंने अनेक विद्याओं और कलाओं को प्राप्त कर लिया।
विद्या और कलाप्रेमी होनेके अतिरिक्त वे नम्रता, दयालुता पादि अनेक सद्गुणों से युक्त थे।
युवा होनेपर उनका शरीर अत्यन्त दृढ़ और तेजपूर्ण दति होने लगा। वे अतुल बलशाली थे। उनके संपूर्ण मुडौल मग देखनेवालेके मनको भाकर्षित करते थे।
युक ऋषभने अब यौवन के क्षेत्रमें अपना पैर बढ़ाया था। पूर्ण यौवन-संपन्न होने पर भी काम उनके पवित्र हृदयमें प्रवेश नहीं कर सका या। विषयविकारसे थे जकमें कमलकी तरह निर्लिप्त थे। उनका संपूर्ण समय जनसेवा, ज्ञान विकास और परोपकारमें ही व्यतीत होता था।
सेवा और परोपकार द्वारा उन्होंने अयोध्याकी संपूर्ण जनताके हमयपर अपना अधिकार जमा लिया था। वे अपने प्रत्येक क्षणका सदुपयोग करते थे। सदाचार और पवित्रता उनके मंत्र थे और जनसेवा उनका कर्तव्य था।
कुमारऋषभको यौवन पूर्ण देखकर नाभिरायको उनके विशाहकी चिता हुई। यद्यपि वे नानते थे कि कुमार ऋषभ काम जयी है। किन्तु उनका योग्य विवाह संस्कार कर देना वे अपना कर्तव्य समझते थे। यह भलीभांति जानते थे कि गृहस्थ जीवनको भलीभांति संचालन करनेके लिए विवाह भत्यंत भावश्यक है । जीवन संग्राममें विजय पानेके लिए प्रत्येक व्यक्तिको एक योग्य साथी भाव होता है। इसलिए
कुमार बापमके लिए मुम्प कन्यारस्नको खोनमें रहने गे!
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८ वायकर (भगवान ) के जन्मकल्याणकका दृश्य
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कर्मयोगी श्री ऋषभदेव । [९ विदेह क्षेत्रके कुलपति कच्छ और सुकच्छकी सुंदरी कन्याओंको उन्होंने अपने युगके लिये चुना। दोनों कन्याएं रूपमें और गुणमें पाम श्रेष्ठ थी। न मियने उन दोनों कन्याओंकी कच्छ मौर सुकच्छपे याचना की । उनहोंने इसे माना सौभाग्य समझा और प्रसन्न मनसे स्वं कृति प्रदान की।
निश्चित समयपर बड़े समारोह के साथ कुमार ऋषभका पाणिप्राण हुआ। विवाहोत्सवमें अनेक स्थानके कुलपति निमंत्रित हुए थे। नाभिगयने सबका उचित सरकार सम्मान किया । इस विवाहसे भरत और विदे। क्षेत्रके कुलातियों का स्ने सन्धन अत्यन्त सुदृढ़ होगया।
सुन्दरी यशम्बती और सुनन्दाके साथ युवक ऋषभदेव मुखमय जीवन व्यतीत काने लगे। दोनों पनिए उनके हृदयको निरंतर प्रसन्न रखने का प्रयत्न करती थीं। उनका गृहस्थ जीवन आदर्श रूप था।
एक रात्रिको सुंदगे यशस्वतीने मनोमोहक स्मों को देखा। मोको देखकर उनका हृदय अत्यंत प्रसन्न हो उठा । मवेरे ही उन्होंने भग्ने पतिसे स्वप्नों के फरको पूछा। पतिदेवने अत्यंत हर्षके साथ कहा-प्रिये ! तूने जिन सुन्दर स्वप्नोंको देखा है वे यह पार्शित करते हैं कि तेरे गर्म पृथ्वीतलपर अपना अखंड प्रभुत्व स्थापित करनेवाला वीर पुत्र होगा। स्वप्नका फल जानकर देवी यशवतीका हृदयकमल खिक उठा।
निश्चित समयपर यशस्वतीने सुन्दा पुत्रालको जन्म दिया। बालक अत्यंत कांतिधान और तेजस्वी था। पौत्र जन्मसं नाभिरायके
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जैन युग-निर्माता। हर्षका ठिकाना न रहा । अयोध्या सुम्बद उसबसे एक बार फिर सुसज्जित हो उठी । ज्योतिषियों ने वीर बालकका गम मात खा । ____ कुछ दिन बाद देवी सुनन्दाने भी पुत्र प्रसव किया जिसका
बाहुबली' रखा गया। __पुत्र जन्मके कुछ समय पश्चात देवी रशस्वती और सुनन्दाने दो कन्याओं को जन्म दिया जिनका नाम ब्राह्मो और सुन्दरी निर्धारित किया गया ।
नाभिगयका प्रांगण बालक बालिकाओंकी मधुर क्रीड़ा और विनोदसे भर गया । सभी बालक बालिक एं परस्पर खेल कूदकर घरभामें आनंद उसकी वर्षा करने लगी। नगर के सभी नर नारी उन सुन्दर बालकों को देखकर फूले नहीं समाते थे ।
श्री ऋषभदेव सभी वालकोंको अमावस्थासे शिक्षण देने लगे। बालिकाओं को भी वे पूर्ण शिक्षित और ज्ञानवान बनाना घाइते थे इसलिए कुमारी ब्रह्मी और मुन्दरीको भी उन्होंने शिक्षा देना पारंभ किया । सभी बालक बालिकाएं बड़े मनोयोगके साथ शिक्षा ग्रहण करते थे इसलिए थोड़ी मायुमें ही वे विद्यावान् बनगए । ___ भरत, पाहुनलि और वृषभसेन तीनों कुमारों को गजनीति, धनुर्विद्या, संगीत, चित्रकला तथा साहित्यकी शिक्षा दी गई। इनमें मातने नीतिश न, और नृत्य कला में विशेष अनुभव प्राप्त किया । वृषभसेन संगीत और बाहुबलि वैद्यक, धनुर्वेद, तथा सा और अश्वपरीक्षा अधिक कुशल हुए।
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कर्मयोगी श्री ऋषमदेव । [१७ ? हुए ऋषभदेवने जब नीचे उताना उचित नहीं समझा, वे एक ग ही विलंब अब अपने लिए अनुचित समझते थे, उन्होंने युवराज तको अयोध्याका राज्य प्रदान किया। दूसरे राजकुमारोंको भी नके योग्य व्यवस्था उन्होंने को । फिर माता, पिता और पत्नीको बोधित किया। उनके हृदयके मोहके जालको तोड़ दिया । वे तपरणके लिए जंगल हो चल दिए।
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[ २ ]
मेघेश्वर जयकुमार |
[ एकपत्नीव्रत के आदर्श ]
( १ )
सोमप्रभ न्यायप्रिय राजा थे । इस्तिनापुरकी प्रजाके वे प्राण
थे । प्रजा के प्रति उनका व्यवहार अत्यंत सरल और उदार था। रानी लक्ष्मीमती भी उन्हीं के अनुरूप थीं। सुन्दरी होनेके साथ ही वे सुशील नम्र और कलाप्रिय र्थी । दोनोंका जीवन शांति और सुखमय था ।
वसंतमें आम्रमंजरी मघुरलसे भरकर सरस हो उठती है, यतिकाएं लहर उठती हैं और पुष्प-समूह हर्षसे खिल उठते हैं। रानी रक्ष्मीमतिका हृदय भी बालपुष्पोंको धारणकर खिल उठा था ।
ठीक समयपर उन्होंने बालसूर्यका प्रसव किया। हस्तिनापुरकी
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मेघेश्वर जयकुमार।
जनताका हर्ष उमह उठा । महाराजाने उदास्ताका द्वार खोल दिया, याचकों और विद्वानों के लिए इच्छित दान और सम्मान मिलने लगा। बालक अत्यंत कांतिवान था । अपनी प्रभासे वह कामका भी जय करता था। उसका नाम जयकुमार रक्खा गया ।
जयकुमार बालकपनसे ही स्वतंत्रताप्रिय, स्वाभिमानी और वीर थे। उच्च कोटिकी शस्त्र और नीति शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने अपने गुणों को दृता चमका दिया था । लक्ष्यवेवमें वे अद्वितीय थे, उसकी समता करनेवाला उस समय भारतमें कोई दूसरा धनुधर नहीं था। साहस और धैर्यमें वे सबसे आगे थे । इन्हीं गुणों के कारण उनकी कीर्ति भनेक नगरों में फैल गई थी। उनके साहस और पराक्रमको देखका सोमप्रभजीने उन्हें युवराज पद प्रदान किया था और वे इसके सर्वथा योग्य थे।
संध्याका समय; नीलाकाश चित्रित हो रहा था । माकाशकी पृष्ठ भूमि पर प्रकृति बड़े ही सुन्दर चित्रों का निर्माण कर रही थी लोकन बहुन प्रयत्न करने पर भी वे चित्र स्थिर नहीं रह पाते थे। मालूर पढ़ता था प्रकृति कोई अत्यंत सुंदर चित्र निर्माण करने का प्रयत्न कर रही थी। किन्तु इच्छानुसार सुन्दर चित्र निर्माण कर सकनके कारण वह र बिगाड़कर फि से नया चित्र चित्रित करती थो। कितना समय बीत गया था, प्रकृतिको इस चित्र निर्माण में ।
भासमानको छूनेवाले महलके शिस्वापर बैठे हुए सोमपमनी प्रकृतिको इस चित्रकला निर्माणका रस ले रहे थे। उनकी दृष्टि जिस स्मोर जाती माकर्षित होजाती थी। न मालम कितने समस्तक मतृप्ति
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२०]
जैन युग-निर्माता।
रूपसे वे इन दृष्यों को देखते रहे । अचानक ही उनकी नजर महलके नीचेवाले शुभ्र सरोवरकी ओर गई । सरोवरके स्वच्छ जलमें सायंकालीन लालिमाने विचित्र ही दृश्य कर दिया था-सारा सरोवर प्रभासे स्वर्णमय बन गया थ । एक ओर यह दृश्य उन्होंने देखा; दूसरी ओर उन्होंने कमलोके संकुचित कलेवर पर दृष्टि डाली । अरे ! इस सुन्दर समयमें उनका मुख इतना म्लान क्यों होरहा था। उनकी वह प्रातःकालीन मधुर मुस्कान विषादमें परिणत होरही थी। वह हर्ष, वह कालिमा, वह सुकुमारता उनकी किसीने हाण करली थी।
उनके नेत्रोंके साम्डने प्रभातका वह सुन्दर दृश्य नृत्य करने कगा। जब मलय वह रही थी और मुस्कुराते हुए कमल पुप्पोको मीठीक मीठी थपकी दे रही थी। सूर्य उसके सौन्दर्य पर अपना सार्वरक न्योछावर कर रहा था। उसकी प्रकाशमयी किरणे प्रत्येक अंगका बालिंगन कर मनो-मुग्ध होरही थीं, मधुपगण मधुरस पीकर मदोन्मत्त होरहा था, गुन गुन नादसे माने प्रेमीका गुणगान कर रहा था, और का यह संध्याका समय कमलों को उनकी मृत्युका संदेह सुना रहा था।
वे अपना सिर झुकाए हुए सब सुन रहे थे, किरणें उनसे दूर भाग रही थीं, सूर्यका मालिंगन शिथिल हो रहा था। इस विपत्तिके समक भोरे भी उसका साथ छोड़कर न मालूप कहां चले गए थे। कुछ बेचारे जिन्होंने उनके मधुर मधुरसका पान किया था, दृष्टिसे मालिंगन किया था वही उसके साथी इस विपत्तिके समयमें उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे। कम सब अपने इस संकुचित और मलिन मुखको संसारके साम्हने नहीं दिखलाना चाहते थे। वे भी धीरे २ अपनी
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मेघेश्वर जयकुमार ।
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भांख लेना चाहते थे । ओह ! अब तो उनका मुंह बिलकुल बंद हो गया ! लेकिन वह पागल भ्रमर भक्के ! वह भी क्या उसी में बंद हो गया ! हां हो गया। सोमप्रभजीने देखा वह मधु-लोलुपी अमर कमलके साथ ही साथ उसमें बंद हो गया। उनका हृदय तिलमिला उठा, वे अचानक बोल उठे-अरे ! अब उस मूर्व मधुपका क्या होगा! क्या रात्रिभर कमल कोप्यमें बंद रहकर वह अपने प्राणों को सुरक्षित रख सकेगा ! उन्हें उसकी मासक्तिपर हृदयमें बड़ी हानि हुई।
ओह! भ्रमर तुमने क्या कभी यह सोचा है कि प्रभात होनेतक कमक तुम्हें जीवित रख सकेगा ? तु यह भी मालूम था कि तुम्हारी इस अनुरक्तिका अंतिम परिणाम क्या होगा? और मुख मानव ! तू भी तो इस मधुर वासना और कमनीय कामनाओं के कलरवमें प्रभातसे लेकर जीवन के अंतिम सायंकाल तक अपनेको व्यस्त रखकर कामरात्रिके हाथों सौंर देता है। तने कभी भी यह सोचा है कि इसका अंतिम परिणाम क्या होगा ? जीवनके इस सौन्दर्यपूर्ण पटका दृश्य परिवर्तन कितना भयंकर होगा ! ओह ! मुझे भी तो इस परिवर्तनमें से गुजरना होगा।
___ सोमप्रमको आत्मापर संध्याके इस दृश्यने विचारोंकी विचित्र तरंगें लहरायीं। उनका हृदय एकाएक संपारसे विरक्त होने लगा। धीरे धीरे मात्मज्ञानका मुन्दर प्रभात उदित हुआ, उसमें उन्होंने अनंत शक्तिसे बालोकित प्रभाको देखा । वैभवसे उनै विरक्ति हो उठी, इन्द्रिय सुखकी इच्छाएं जलने लगी और वे वैराग्यकी उज्ज्वल कीर्तिका दर्शन करने संगे। निर्मल भाकाशमें दिशाएं जिसतरह शांत होनाती
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MORNAMAANWROMAN
२८ ।
जैन युग-निर्माता। विजयसे तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए था। लेकिन मैं देखता हूँ कि तुम इससे क्षुब्ध हो उठे हो-चक्रवर्ति पुत्रके लिए यह शोमापद नहीं। मैं जानता हूं तुम वीर हो, लेकिन वीरताका इस प्रकार दुरुपयोग करना, होनेवाले भावी भारत-सम्राटके लिए अनुचित है। वीरता मन्याय प्रतिका के लिए होना चाहिए, दुष्ट दलन के लिए ही उसका प्रयोग उचित होगा। इसके विरुद्ध एक अन्याय युद्धमें उसका उपयोग होता देख कर मेरा हृदय दुखित होरहा है। वीर कुमार ! तुम्हें शांत होना चाहिए और मेरी इस विजयमें सम्मिलित होकर अपने स्नेहका परिचय देना चाहिए ।
अर्ककीर्ति मानो इन शब्दोंको सुननेके लिए तैयार न था, बोला-जयकुमार ! गलेमें पड़े हुए फूलों को देखकर तुम विजयसे पागल हो गए हो, इसलिए ही तुम्हें मेग अपमान नहीं खलता । राजाओंकी विराट् सभामें चक्रवर्ति पुत्रके गौरवको अवहेलना करना तुम्हारे जैसे पागलोंका ही काम है, मैं यह तुम्हारा पागलपन अभी ठीक करूंगा। तुम्हें अभी मालूम हो जायगा कि वीर पुरुष अपने अन्यायका बदला किस तरह लेते हैं। यदि तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं, तो अब भी समय है तुम इस कुमारीको सादर मेरे चरणों में अर्पण कर दो। तुम जानते हो कि श्रेष्ठ वस्तु महान् पुरुषों को ही शोभा देती है, क्षुद्र व्यक्तियों के लिये नहीं ! इसलिए मैं तुम्हें एकबार और समय देता हूं, तुम खूब सोच लो । यदि तुम्हें अपना जीवन और भारतके भावी सम्राट्का सम्मान प्रिय है तो सुलोचना देकर मेरे प्रेम-भाजन बनो।
जयकुमारका हृदय इन शब्दोंसे उत्तेजित नहीं हुमा । उसने
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मेघेश्वर जयकुमार । [२९ एकबार और अपनी सहृदयताका प्रयोग करना चाहा। वह बोलाकन्या अपना हृदय एकबार ही समर्पण करती है और जिसे समर्पण करती है वही उसके लिए महान होता है। महानता और तुच्छताका नाप उसका परीक्षण है । अपने मुंहसे महान् बनना शोभाप्रद नहीं । कुमारीने मुझे वरण किया है, वह हृदयसे अब मेरी पत्नो बन चुकी है किसीकी पत्नी के प्रति दुर्भावनाएं लाना नीचताके अतिरिक्त कुछ नहीं है। चक्रवर्ति पुत्रके मुंहमें इस तरहकी अनर्गल बातें सुननेकी मुझे माशा नहीं थी। तुम्हें जानना चाहिए कि वीर पुरुष महिलाओंकी सम्मान रक्षा अपने प्राण देकर करते हैं। यदि तुम नहीं मानते, तुम्हारी दुर्बुद्धि यदि तुम्हें अन्यायके लिए प्रोत्साहित करती है तो मुझे तुम्हारे भविवेकको दंड देनेके लिए युद्धक्षेत्रमें उतरना होगा। मैं तुमसे डरता नहीं हूं, जयकुपार अन्याय और युद्धसे कभी नहीं डरता । यदि तुम्हारी इच्छा युद्धका तमाशा देखनेकी ही है तो मैं वह भी तुम्हें दिखला दूंगा।
कुपित अर्ककीर्ति पर इसका कोई प्रभाव नहीं पा । वह बोलायुद्ध तो तुम्हारे शिल्पर वड़ा हुआ है, तुम उसे बातोंसे टालनेका प्रयत्न क्यों करना चाहते हो ! यदि तुम्हें मृत्युका भय है तो शीघ्र ही मुझे मुलोचना समर्पित करदो, नहीं तो तुम्हें मृत्युकी गोदमें सुलाकर मैं इसका उपभोग करूंगा।
शांत ज्वालाको प्रलयने उभाड़ा । जयकुमारके हृदयका वीरभाव का सोता नहीं रह सका । वह बहादुर, अकीर्ति और उसके उभाड़े सैकड़ों राजकुमारों के साम्हने कुलित केशरी, सिंहकी तरह बढ़ चला।
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३०]
जैन युग-निर्माता। अकंपनकी सेनाने उसका साथ दिया। अर्कोतिका विशाल सैन्य
और राजाओंके समूइने एकत्रित होकर उसे घेर लिया । तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा होने लगी और मानव जीवनके साथ मृत्युका खेल होने लगा । अर्ककी तिकी संगठित विशाल सेना के साम्हने जयकुमारका सैन्यबल पीछे हरने लगा। जयको यह सहन नहीं हुआ। वीरताकी धारा बहाते हुए उसने अपने सैनिकों को तव्र आक्रमणके लिए उत्तेजित किया और शत्रु के दलको चीरता हुआ वह अर्ककीर्तिके निकट पहुंचा । उसने अर्कोतिको संबोधित करते हुए कहा-इन बेचारे गरीब सैनिकों का वध करनेसे क्या लाभ ? परीक्षण तो हमारे
और तुम्हारे बलका है, आओ हम और तुम युद्ध करके शक्तिका निर्णय करें।
जयकुमारके शब्द पूर्ण होने के साथ ही उसपर एक तीक्ष्य बाणका बार हुआ लेकिन उस तीरको अपने पास मानेके पहिले ही उसने काट डाला तब तो अकीर्तिने उसपर और भी अनेक अचूक शों का प्रयोग किग पान्तु युद्ध-कुशल जयने उन सी शस्त्रोंको बेकार कर दिया आ बड़ी कुशलतास शस्त्र प्रहार करके उसे नंचे गिराकर दृढ़ बंधवमें कस लिया ।
____ अर्ककी तिके पराजित होते ही सभी राजकुमारोंने हथियार हाल दिए। विजयने जयकुमार का वाण किया किन्तु अर्ककी र्तिके प्रति उसके हृदयमें कोई प्रतिहिंसा अथवा विरोध नहीं था। वह तो अन्यायका बदला देना चाहता था इसलिए उन्हें सी समय बंधन मुक्त कर दिया। मर्ककीर्तिका मुंह इस अपमान से ऊंचे नहीं रठ सका।
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मेघेश्वर जयकुमार |
[ ३१
वीर जयकुमारकी इस विजयसे अकंपन बहुत ही प्रसन्न हुए । उन्होंने विजय और विवाह के उपलक्ष में एक विशाल उत्सवकी योजना की । युद्धस्थल विवाहोत्सव के रूपमें बदल गया । अर्ककीर्ति और अन्य राजाओंने इस महोत्सव में सम्मिलित होकर पिछले विशेषको प्रेममें बदल दिया । नृत्य, गान और आनंदका मधु' मिलन हुआ और जयकुमार के गले में डाली वरमालाका फल सुलोचनानं विवाद के रूपमें पाया ।
(५)
सुलोचना जैसी सुन्दरी और सुशीला पत्नी पाकर जयकुमारका जीवन स्वर्गीय बन गया था । सुलोचनाके लिए उसके हृदय में नि:छल स्नेह था। वह नारी जातिका सम्मान करना जानता था । उसका स्नेह उस अक्षय झानेकी तरह था जो कभी मूग्वता नहीं है। दोनों ही एक दूसरे पर हृदय न्योछावर करते थे और मानवीय कर्तव्यों का पालन करते थे | गृहस्थ जीवन के कर्त्तव्यों को वह मूक जाना नहीं चाहते थे । जनताकी सेवा, दया, सहानुभूति और उक्कारकी भावराओंसे उनका मन भरा हुआ था, धर्मपर उनकी टूट श्रद्धा थी । देव और गुरुभक्तको वे जानते थे । उनका जीवन एक आददा जीवन था ।
जयकुमारको जो कुछ भी वैभव प्राप्त था उससे वह सुखी थे । वे अपने जीवनको संयमी और धार्मिक बनाना चाहते थे । मन कहीं संयमकी सीना उल्लंघन न कर जाए इसके लिए उन्होंने भाजीवन एकपत्नी व्रत लिया था । वीर, साहसी और सुन्दर होनेके कारण वह अनेक सुन्दरियोंके प्रिय थे। लेकिन सुन्दरता के इस मालोक में
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३२]
जैन युग-निर्माता।
उनके नेत्र सुलोचनाकी दिव्य भाभा पर ही अनुरंजित रहते थे। बासनाओंके वीहर जंगलमें वे उसकी कमनीय कांतिको नहीं भूलते थे।
देवराज इन्द्रकी सभामें एक विवाद उपस्थित था, वे कहते थे, पूर्ण ब्रह्मचारीकी तरह एक-पत्नीव्रतीका भी महत्त्व कम नहीं है। गृहस्थ जीवन में सुन्दरी महिलाओं के संपर्क में रहते हुए, प्रभुता और वैभव होने पर भी अपने आपपर काबू रखना भी महान् ब्रह्मचर्य है। भखड़ ब्रह्मचारी अपनी वासनाएं विजित करनेके लिए कहीं समर्थ है वन कि एकवार अपना ब्रह्मचर्य नष्ट कर देनेवाले व्यक्तिको अपने लिए अधिक समर्थ बनानेका प्रयत्न करना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति ब्रह्मचारी रह सकता है और उसकी सफलता एक महान सफलता कही जासकती है!
देवगण इसमें सहमत नहीं थे। वह कहते थे कि जिस पुरुषने एकवार स्त्री संसर्ग कर लिया हो वह अपने आपको काबूमें नहीं रख सकता। किसी सीमा बद्ध रह सकना उसके लिए संभव ही नहीं। वासनाकी भागमें एकवार ईधन पढ़ चुकनेपर उसकी लपटें फिर ईधनको छूना चाहती हैं। इस दृष्टिमे एकपत्नीव्रत कहीं ब्रह्मचर्य से अधिक मूल्यवान पर जाता है लेकिन उसका होना कष्टसाध्य है । इतना त्याग मनुष्य कर सकता है लेकिन कोई उदाहरण नहीं दे सकता । दलित व्यक्तिको पददलित करने में कुछ अधिक साधनोंकी भावश्यकता नहीं होती। गतिशील वासनाकी दिशाको अन्य दिशाकी गोर लेजान! कोई कठिन नहीं । भुक्तभोगी व्यक्तिकी वासना शीघ्र
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जैन युग-निर्माता |
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है कि पवित्रता ही नारी जीवन है और शील ही नारी मर्यादा है, तुम उसे संभालो ।
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पवित्रता के साम्हने देवताका छल-छझ नहीं टिक सका । उसे पराजित होकर प्रकट होना पड़ा । रवित्रतने अपना मायाबेश बदला । देवालयका चोला उतारकर वह अपने असली रूपमें आया और इन्द्र सभाका सारा हाल सुनाकर जयकुमारसे बोला - जयकुमार ! वास्तव में आप जयकुमार ही हैं। आप एक पत्नीव्रत के आदर्श हैं। याप जैसे व्रती पुरुषोंके बलपर ही देव सभामें इन्द्र इस व्रतपर निर्भय बोल रहे थे । आजीवन बाल ब्रह्मचारी महान हैं किन्तु आप जैसे एकपत्नीव्रतधारी भी महानता से कम नहीं हैं। मैं आपकी दृढ़ताकी प्रशंसा करता हूं और निःसंकोच रूपसे कहता हूं कि भारतको आप जैसे दृढ़ व्यक्तियोंपर अभिमान होना चाहिए। संसार आपसे दृढ़ताका पाट सीखे और प्रत्येक भारतीय आपके आदर्शको ग्रहण करे ।
रवित्रतने इन्द्रसभा में जाकर अपने परीक्षणकी रिपोर्ट देवगण के साम्हने प्रस्तुत की, देवताओंने इन्द्रके दृष्टिकोणको समझा और उनकी विचारधाराको स्वीकार किया ।
जयकुमारने एकपत्नीव्रतका निर्वाह करते हुए सेवा और परोपकार में जीवन के क्षणोंको व्यतीत किया । प्रजापर उनके संयमी जीवन, न्यायप्रियता और वीरताका एकांत प्रभाव पड़ा था |
एक दिन उनके हृदयमें लोककल्याणकी भावना जागृत हुई । के राज्य बंधन में नहीं रह सके। वे तपस्वी बने, आत्मकल्याणके पथ बढ़े और धर्मके एक महा स्तंभ बने ।
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(३) चक्रवर्ति भरत । (भारतके आदि चक्रवर्ति-सम्राट्।)
(१) मंपारसे विरक्त होने पर ऋषभदेव जीने अयोध्याका राज्यसिंहासन युवराज भरतको समर्पित किया था। भरतजी भारतवर्ष के सबसे पहले प्रतापी सम्रट थे । जिपके पवल प्रतापके मागे मानवों के मस्तक भक्तिसे झुक जाते, ऐसे दिव्य रत्नोंसे चमकनेवाले राज्यमुकुटको उन्होंने माने सिापर रखा था। वे भारतवर्ष के भाग्य विधाता थे । उन्होंने संपूर्ण भारत विजय कर अपने अखंड शासनको स्थापित किया था, अपने नामसे भारतको प्रसिद्ध किया था ।
राज्य सिंहासनपर बैठते ही उन्होंने अपनी महान सामर्थ्य और पराक्रमसे बड़े २ राजाओंके मस्तकको झुका दिया था।
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प्रभातका समय, सम्राट् भग्त अनेक नरशोंसे शोभित सिंहामन पर बैठे थे । सामंतगण शस्त्रोंसे विभूषित नियमित रूप से खड़े थे | भरतकी वह सभा इन्द्र समाके सौन्दर्यको पराजित कर रही थी। इसी समय प्रधान सेनापतिने राज्य सभा में प्रवेश किया । उसका हृदय हर्षसे भर रहा था। अपने मस्तकको झुकाकर वह बड़ी नम्रता से बोला- अपने भुजबल से नरेशका मानमर्दन करनेवाले सम्राट् ! आज आप पर देवताओंने कृपा की है, सौभाग्य आपके चरणोंपर लोटनेको आया है । आज आपकी आयुवशाला प्रकाशसे जगमगा रही है, जिसके तेजके आगे शुवीरोंके नेत्र झक जाते हैं, सूर्यका प्रकाश भी मंदसा पड़ जाता है और कायरों के हृदय भयसे कातर होजाते हैं । वही अदभुत चक्ररत्न आपकी आयुधशालाको सुशोभित कर रहा है आप चलकर उसे ग्रहण कीजिए ।
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भरत नरेशने हर्ष से यह समाचार सुना वे आयुघशाला जाने लिए तैयार होरहे थे इसी समय एक ओरसे मंगलगान करती हुई महलकी परिचारिकाओंने प्रवेश किया, वे स्म्राट्का सुयश गान करती हुई बोली- राजराज्येश्वर ! आज हम बड़ी प्रसन्नता से आपको यह संदेश सुना रही है, आज हमारा हृदय हर्षसे परिपूर्ण होरहा है, सुनिए जो प्रबल पुण्यका प्रतिफल है जिसे देखकर हर्षका समुद्र उमड़ने लगता है और जो कुलकी शोभा है ऐसे मानन्द बढ़ानेवाले युवराजने आपके राज्यमहरूको प्रकाशित किया है भाप चढकर उसे देखिए अपने नेत्रोंको तृप्त कीजिए और हमारी बधाई स्वीकार कीजिए ।
समयकी गति विचित्र है। जब किसी का सौभाग्य उदित होता
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चक्रवर्ति भरत ।
[४१ है तब उसके चारों ओर हर्षका साम्राज्य विस्वर जाता है। सफलता और यश उसके चरणोंपा अपने आप लौटने लगता है। मात्र भरतका सौभाग्य सूर्य मध्य ह पर था, पमयने उन्हें चारों ओरसे हर्ष डी हर्ष प्रदान किया थ! । दोनों शुभ संवाद उनके हृदयको हर्षसे भर हे थे इसी समय सभी ऋतुओंके फल फूलोंकी डाली सजाए हुए और सममयम ही वसंतकी सूचना देनेवाले वनमालीने राज्य सभामें प्रवेश किया। पृथ्वोतक मस्तकको झुकाकर उमने सम्राटको प्रणाम किया फिर सुगंधिसे भरे पुष्प और फूलोको उन्हें भंट दिया।
आजके पुरमें कुछ अनूटी ही गंधि थी । उनकी शोभा भी विचित्र थी। भरतजीने इम चमत्कारको देखा, वे बोले-शुभे ! आज मैं इन फल फूलों के रूप और गंध कैसा परिवर्तन देख रहा हूं? क्या मेरे नेत्र मुझे धोखा देहे हैं ? बालो इसका क्या कारण है ?
वनमाली बोला-नाथ ! मैं उपवनमें घूम रहा था, सारे उपवनको मैंने भाज एक नई शोमामे ही सजा देखा। मैंने देखा जिस भाभ्रकी डालिये शुष्क हो रही थीं वे नवीन मंजरियोंसे प्रजकर झुक गई हैं, मधुपों का गान होरहा है और सभी ऋतुओंके फल फूलोंसे बनश्री वसंतकी शोभा प्रदर्शित कर रही है । नब मैं और मागे वनमें पहुंचा तो देखा कि मृगका पचा सिंह शावकके साथ खेल रहा है और शांतिका साम्राज्य सारे जंगल में फैला हुआ है। मैं यह सब देख ही रहा था कि इसी समय मुझे भाकाशसे कुछ विमान माते दिखलाई दिए मैंने । भागे बहकर सुना कुछ मधुर-कंठ भगवान ऋषभदेवका जयगान कर रहे है, उस ध्वनिमें मुझे स्पष्ट सुनाई पड़ा, कई कहता था मागे
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५०] जैन युम-निर्माता । देखा होगा । सेवक बोला-न महाराज मैंने वह प्रदर्शन भी नहीं देखा। भ्राट ने कहा भरे ! तुम यह क्या कहते हो ? तब तुमने वह नों का खेल भी नहीं देखा ? नहीं महाराज, मैं यह खेल कैसे देख सरता था, मैंतो अपने जीवन के कसको देख रहा था । मेरा जीवन तो क्टोरेके इन तैल बिंदुओं में ममाया था, तैलका एक बिन्दु मेग जीवन था। मैंन अपने इम+टोरे और अपने पैरों को मार्ग पर चलने के स्विाय किसी को भी नहीं देखा सेवकने कहा । सम्राट्ने इसे जानेकी
आज्ञा दी। फिर वे भद्र पुरुषकी ओर देखकर बोले-संधु देखो जिम ता६ इम पुरुषके साष्टने बहुतसे खेल तमाशे और प्रदर्शन होते रहने पर भी यह अपने २६५बिंदुमे नहीं हट सका, उसी तरह इस संपूर्ण वैभव के रहते हुए भी मैं अपने ९६॥ १२ स्थिर रहता हूं। मैं समझ रहा हूं कि मेरे सामने कालकी नंगी तलवार लटक रही है, मैं समझ रहा हूं मेग जीवन पहाहको उस सकरी पाडंडी परसे चल रहा है जिसके दोनों ओर कोई दीवाल नहीं है। थोड़ा पैर फिसलते ही मैं उस स्वंद को गिर पडूंमा जहां मेरे जीवनके एक कणका भी पता नहीं लगा सकेगा। प्रत्येक कार्य करते हुए मेरे जीवनका सय मेरे साम्इने रहता है और मैं उसे भूस्ता नहीं हूं, इतने सम्रज्यकी व्यवस्थाका भार रखते हुए भी भात्म विस्मृत नहीं होता । कि कुछ रु 6 करके बोले- भद्र पुरुष ! मैं समझता हूं. मी बातोसे तुम्हारे हृदयका समाधान हो गया होगा, साथ ही मैं यह भी कहना चाहता हूं कि तुम और मैं हरएक मानव बंधन में रह कर भी अपने कर्तव्य मार्ग पर चल सकते है, और मात्मशांसिका लाभ ले सकते है।
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चक्रवर्ति भरत । [५१ चक्रवर्तीके उत्तासे भद्र पुरुषको काफी संतोष हा जो जनता अभीतक इस विषयमें मौन थी, वह भी इस समाधानसे संतुष्ट हुई।
(४)
भानजी का हृदय बहुत उदार था, वे अपनी द्रव्यका बहतमा भाग प्रतिदिन संयमी, और व्रती पुरुषों को दान में देना चाहते थे । वे ऐसा कार्य करना चाहते थे, जिपसे उनकी कीर्ति संसा में चिस्थाई रहे। वे चाहने थे. कोई भद्र पुरुष उनसे कुछ मांगे और वे उपको दान में कुछ दें, किन्तु 34 समयके सभी मनुष्य अपने वर्ण के अनुमा। कार्योको करते थे, श्रम काना वे अपना कर्तव्य सम्झन थे. और श्रम द्वारा उन्हें जो कुछ मिलता था, उसमें संतोष रम्वत थे, उन्हें और किमी चौकी चाह नहीं थी । अपनी कमाईमें ही जीवन निर्वाह करते थे, द्रव्य संचय का वे अधिक तृष्णाके गट्टे में नहीं पहना चाहते थे, वे माल थे, मादा जीवन गुजारना में प्रिय था । किसास कुछ चाइना दोन सीग्वा नहीं था ।
सम्राट् भातको इस विषयको चिन्ता थी बहुत कुछ सोचने पर उन्होंने एक उपाय निश्चित किया । उन्होंने एक ऐपा वर्ण स्थापित कान की बात मोची जिपका जीवन दान द्रव्य पर ही निर्भर है, उमे दान लेने के अतिरिक्त कोई शारीरिक श्रम या कार्य न पड़े, उस वर्ण के वे पुरुष अधिक विचारशील, दय लु और बुद्धिमान हों। अग्नी बुद्धि बलसे सम्राट्न उनका चुनाव करना चाहा और एक दिन नगरके सभी नागरिकों को उन्होंने अपनी सबसमा निमंत्रित किया।
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५२)
जैन युग-निर्माता।
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maruNWinnaINMMINIMILAINHAImmarwAMANA
कुछ प्रश्न उनके साम्हने रखे उनमें से जिन विद्वान् पुरुषों ने उन प्रश्नों के ठीक उत्तर दिए उनका एक संघ बनाया, उस संघके सभासद होनेवाले सदाचारी और मात्मज्ञानमें रुचि रखनेवाले पुरुषोंको उन्होंने 'ब्रह्मग' वणकी संज्ञादी। उन्हें देव, शास्त्र, गुरुपर सच्ची प्रद्धा रखनेका मादेश देकर उसकी स्मृतिके लिए तीन तागोवाला एक सून उनके गलेमें डाला जिसे ब्रह्म सूत्र नाम दिया। ब्रह्म सूत्र रखनेवाले ब्रह्मणों को उन्होंने नीचे लिखी क्रियाओंके करने का उपदेश दिया।
(१) देवपूजा-नित्य प्रति भक्तिभावसे देवकी पूजा करना।
(२) गुरू उपासना-अपनेसे अधिक ज्ञानवाले पुरुषों की विनय और सेवा करना।
(३ ) स्वाध्याय-ज्ञानकी उन्नति करने के लिए ग्रंथों का पठन पाठन करना, और उनकी रचना करना ।
(४) संयम-अपनी इन्द्रियों और मनको अपने काबूमें रखनेकी कोसिम करना ।
(५) तप-कुछ समय के लिए एकति चिंतम और भात्म ध्यान करना।
(६)दान-दान ग्रहण करना, और दानकी शिक्षा देना।
इन छह मावश्यक कृत्यों को नित्य प्रति करना, और नीके लिखे दश नियमों का पालन करना।
(१) बारकपनसे ही विद्याका मध्ययन करना ।
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चक्रवर्ति मरत।
[५३
(२) पवित्र आचार विचारोंको सुरक्षित रखना ।
(३) पवित्र माचरणों और विचारोंको बढ़ाकर दूसरोंसे अपनेको श्रेष्ठ बनाना।
( ४ ) दुपरे वर्गों द्वारा अपने में पात्रत्व स्थिर रखना । (५) अन्य पुरुषों को शास्त्रानुकूल व्यवस्था तथा प्रायश्चित देना।
(६-७) अपना महत्व सुरक्षित रखनेके लिए अपने उच्च आचरणों का विश्वास दिलाकर राजा तथा प्रजा द्वारा अपना बघ ना किए जाने और दंड न पाने का अधिकार स्थापित करना।
(८-९) श्रेष्ठ ज्ञान और चरित्रकी उच्चता द्वारा सर्वसाधारणसे आदर प्राप्त करना ।
(१०) दूसरे पुरुषोंको उच्च चारित्रवान बनाने का प्रयत्न करना।
इन नियमों का सदैव पालनेका उन्हें आदेश दिया। ननताके बालकोंको शिक्षण देना, उनके वैवाहिक कार्योको सम्पन्न कराना और अन्य श्रेष्ट क्रियाओं के कानकी व्यवस्था रखने का कार्य उनके लिए सोंग, फिर उन्हें उत्तम भोजन और वस्त्रों का दान दिया।
उन्होंने क्षत्रियों को अपने सदाचारकी रक्षा स्वते हुए राज्यनीति और धर्मशास्त्र के अध्ययनका उपदेश दिया और आत्मरक्षण, प्रजापाकन तथा अन्याय दमन करने का विधान चलाया ।
सम्राट भातने भगवान् ऋषभदेवकी निर्वाण भूमिपर विशाल चैत्यालय भी स्थापित किये। और उनमें योगेश्व' ऋषभकी महान मतिको स्थापित किया ।
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६२] जैन युग-निर्माता । उनके चारों ओर एक बड़ी भीड़ एकत्रित हो गई। यह कार्य उनके उद्देश्यके विरुद्ध थे, फन्तु इनसे योगीश्वर ऋषभका हृदय शोभित नहीं हुआ। उन्होंने इन बातोपर लक्ष्य तक नहीं दिया, वे अपनी भावनामें मम थे । अपने रद्देश्पके पथ पर अडिग थे इस तरह चरते हुर वे राजस्थ उपस्थित हुए। सोमप्रभ और श्रेयांसने उन्हें दृग्से आते देख ।। भक्ति विनय मनासे उन्होंने चरण में प्रणाम किया उनकी पूजाकी, चरणों का प्रक्षालन किया
और उनकी चाणाको अपने मस्तक पा चढ़ा कर अपनेको कृतार्थ समझा। फिर वे उनके मन की भावना जानने के लिए और उनकी आज्ञा चाहने के लिए उनके साम्हने नतमस्तक खड़े हो गये । __महात्मा वृषभने कुछ नहीं चाहा कुछ याचना नहीं की। जैन साथ कुछ नहीं चाइते कुक याचना नहीं करने, भोजन तक भी वे नहीं । तं, यह भी गृहस्थकी इच्छा पर अवलंबित है । वह उन्हें भक्ति से अयाचिन वृत्ति में देगा वे उसे अनुकूल होने पर लेंगे, नहीं तो नहीं लेंगे व धन, पैसा और वैभव तो उनके लिए उपपर्ग है। जिसका वे त्याग कर चुके उसकी चाहना कैसी : जिम पथमे वे अगे बढ़ चुके उप पसं !फा वापिस लौटना कैमा ?
धर्म संक्ट का यह समय था, ममी निम्तचघ थे, क ई सोच नहीं सकते थे कि इस समय क्या करना ? कुछ क्षण इस तरह बीत गए ।
श्रेयां मन सोचा यह तपस्वी कुछ नहीं चाहेंगे न कुछ अपने थप कहेंगे तब इस समय क्या करना ! उनकी विचारक बुद्धिने सका साथ दिया, उन्होंने इस समयकी उलझनको शीघ्र ही सुखदा
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दानवीर श्रेयांसकुमार ।
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लिया । इन्हें भोजन चाहिए यह समय मोसनका ही है, फिर पवित्र पदार्थ भी होना चाहिये पवित्रत के साथ ऐसा भी हो जो इनके शरीरको माता भी दे सके वे सोच चुके थे । उनका हृदय इर्षसे भा गया हृदयही में बोले मेग सौभाग्य है। आज मैं इन तपम्वीको भोजन दंगा पवित्र भावनासे उनका मन भा गया । भक्तिके आवेशने उन्हें गद् गद् कर दिया, वे शीघ्र ही बालं-भगवन् ! विगजें, आहार पवित्र है ग्रहण करें। फिा अपने भाई सोम और गनी लक्ष्मीमती के साथ २ उन्होंने ताजे गन्ने के मका बहा दिया, अनुकूल समझकर महात्माने उसे ग्रहण किया। वे तुष्ट हुए. इसी समय महात्माके भोजन दानके प्रभावसे मारे नगर में जय जय शब्द गूंन उठा, देवता प्रसन्न हुए, और प्रकृतिने उनके कार्यको साहा, गगनसे पुरुष वृष्टि होने लगी, मलय-वायु वहने लगा और मानों के मन से फूल उठे ।
श्रेयाम और सोमपभने तपकी ऋषभदेवको भोजन दे अपनको कृतार्थ समझा भोजन ले तम्वी वनको चल दिए और आत्मध्यानमें तन्मय होगये ।
माजकी जनताकी दृष्टि में इस माहारदानका कोई महत्व न हो और इस घटनाकी और कुछ भी ध्यान न दिया जाए। भाजका - सुशिक्षित समाज और अपनी दिनाको सर्वश्रेष्ठ समझनेवाले लोग इसे एक साधारण घटना समझकर भले ही भुशादें, लेकिन उस समयको परिस्थितियों और लोक प्रणालियों का जिन्होंने अध्ययन किया है वे इस घटनाके महत्वको अवश्य मानेंगे।' '
श्रेयांस द्वारा दिए गए मोबन दानका यह अभूतपूर्व दृश्य
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६४] जैन युग-निर्माता । हस्तिनापुरकी जनताने अपने जीवन में आज प्रथमवार ही देखा था। उन्होंने इसे बड़ा महत्वपूर्ण समझा, और समस्त जनताने एकत्रित होकर उनके इस दानकी प्रशंसा की। वे बोले-राजकुमार, हम लोग यह समझ ही सके ये कि इस समय हमें क्या करना चाहिए ? यदि भाज मापने उन महात्माको भोजन दान न दिया होता तो में भूखा ही लौटना होता
और हम लोगों के लिए यह बड़े कलंककी बात होती । आजसे छ मास पहले अयोध्यासे उ भूस्खा ही लौटना पड़ा था, और छह मास कठिन मनाहारक प्रत फिसे लेना पड़ा था। हम लोग यह नहीं जानते थे कि उन्हें कौनसी वस्तु किम ताह देना चाहिर ? आपके बढ़ते हुए ज्ञानने यह सब कुछ समझा अत: आप हमारे धन्यवादके पात्र हैं। फिर हर्षप्ते फूली हुई हस्तिनापुरकी जनताने इस दिनको चिमणीय बनाने के लिए महोत्सव मनाया। इस महोत्सवमें चक्रवर्ती भातने उपस्थित होकर श्रेयांसकुमारको अभिनंदन पत्र प्रदान किया। उपस्थित जनताने दानके विशेष नियम और उपनियम जाननकी इच्छा प्रकट की। कुमार श्रेयांसने अपने बढ़े हुए ज्ञानके प्रभावसे ठानकी पद्धतियों का विशेष परिचय कराया। वे वोले-नागरिको! मागे चल कर साधु प्रथाकी बहुत वृद्धि होगी और तपस्वी लोग भोजनके लिए नगर में माया करेंगे इन तालियों को किसी ताहको इच्छा नहीं होगी ? यह धन, वैभव भगवा किसी वस्तुको नहीं चाहेंगे ये तो केवल माने शरीर मणके लिए मोबन चाहेंगे। इन्हें गदासे अपने वा बुलाकर श्रद्धा और मक्तिसे अनुकूल भोबन देना होगा। इन साधुओंको थरीम्से मोह नहीं होता, इन्हें तो केवल मात्मकल्याणकी धुन रहती है। लेकिन अपने
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मोचा सर्व जनि रिषय देव स्वामी को ग्राहीका जीव
० पदेवी राजा श्रेयांस अपने भ्राता और पसति इसका आकार दे रहे आकाश से देवों द्वारा पुष्प।
मित्रम
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दानवीर श्रेयांसकुमार।
शरीरको दूसरोंके उपकारके लिए वे स्थिर रखना चाहते हैं और मात्मध्यानके लिए जीवित रहते हैं।
इसके लिए किसी को न सताकर भोजन लेते है । वह भोजन भी ऐसा हो जो खास तौरसे उनके लिए न बनाया गया हो, क्योंकि वे अपने लिए किसी गृहस्थको आरंभमें नहीं सलना चाहते । इसलिए हरएक गृहस्थका कर्तव्य है कि वह उन्हें भोजन दे। इसके सिवाय आगे ऐसा भी समय आयेगा जब कुछ मनुष्य भपने लिए पग भोजन उपार्जन न कर सकेंगे, और वे भोजनकी इच्छासे किसी के पास ज येंगे। तब आपका कर्तव्य होगा कि माप उन भूखे पुरुषोंको चाहे में कोई भी हो भोजन दान दें। मागे चलकर अब कर्म-क्षेत्रका विस्तार होगा उसमें आपको दूपरोंकी सहायताका भार लेना पड़ेगा। कुछ व्यक्ति ऐसे होंगे जिनके पास भोजनकी कमी हो अथवा जो अपने बालकोंके लिए योग्य शिक्षाका प्रबंध न कर सकें, रोग पीड़ित होनेपर वे अपने उपचारों में असमर्थ हो, और बलवान पुरुषों द्वारा सताए जानेपा अपने जीवनकी रक्षा न कर सकें। ऐसे पुरुषोंकी सहायता भी आप लोगों को करना होगी। इस सहायताके ना विभाग हो, जिन्हें चार दानके नामसे कहा गयगा । एक विभाग भोजन दानका होगा, दूसरा विद्यादान, तोपग भौषधिदान और चौथा अभय दान ।
दान देकर अपने मापको बड़ा नहीं समझना होगा । दानको केवल मानव कर्तव्य ही मानना पड़ेगा। अपनी शक्तिके माफिक थोड़ी जग मधिक जितनी सहायता हम देसकें उससे जी नहीं चुराना
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६६] जैन युग-निर्माता। होगा, तभी हम लोकमें शांति और सुख स्थिर रह सकेंगे, और हमारे नगर और ग्रामों में कोई भृावा, रोगी, अज्ञानी और पीड़ित नहीं रह सकेगा। हमें प्रतिदिन अपने लिए कमाये हुए धनमें से कुछ अंश ४५ दानके लिए बचा कर रखना होगा, समय पर उसका सदुपयोग करना होगा।
दानकी इन पद्धतियों को उपस्थित जनताने समझा और उस दिनको चि:-मरणीय बनाने के लिए उसे 'अक्षय - तृतीया' का नाम दिया ।
चकनी भानने उपस्थित जनताके साम्हने श्रेयांसकुमारको दानवीर पदस विभृ'५२ किग।
उप यकी बनाई हुई दान व्यवस्था समयके माथ फूली फली और बढ़ी, और आज तक उसका प्रचार होता रहा । आजका मानव समाज उनकी उस दिनकी प्रचारित दान प्रथाका आभारी रहेगा।
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७२] जैन युग-निर्माता। यसे मुझे ईर्षा नहीं है । फिर उन्हें मेरी स्वाधीनतासे द्वेष क्यों है ! वे मेरी स्वाधीनता क्यों नहीं देखना चाहते ! क्या मेरी स्वाधीनता छीने बिना उनका चक्रवर्तित्व स्थिर नहीं रह सकता ! इसका क्या अर्थ है कि भारतके सभी राजाओंने उनका प्रभुत्व स्वीकार कर लिया है और अपनी स्वाधीनता खो दी है तो मैं भी उसे नष्ट हो जाने दं! वे राजा कोग यदि आजादीका रहस्य नहीं समझते उनके हृदय यदि इतने निर्वल होगए हैं तो मैं उसके रहस्यको समझता हुवा भी क्यों गुलाम बन ! नहीं, यह कभी नहीं होगा, भले ही इसके लिए मुझे अपने भाईका विरोधी बनना पड़े और चाहे सारे संसारका विरोध करना पड़े, मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूंगा, और आजादीका मूल्य चुकाऊंगा।
उन्होंने उसी समय पत्रका उत्तर लिखाप्रिय अग्रज ! अभिवादनम् ।
भारत विजयके पक्षमें बधाई ! एक भाईके नाते मुझे इस विजयोत्सवमे मवश्य सम्मिलित होना चाहिए था लेकिन नहीं होरह। हूं इसका उत्तर मापके पत्रका अंतिम भाग स्वयं दे रहा है। मैं एक स्वतंत्र राजा हूं, मेरे पूज्य पिता ऋषभदेवजीने मुझे यह राज्य दिया है, फिर मुझे पापको माधीनता स्वीकार करनेकी क्या मावश्यक्ता ! भाप मेरी स्वाधीनता नष्ट करने पर तुले हुए हैं। ऐसी परिस्थितिमें मापकी कोई भी भाज्ञा पालन करनेसे में इन्कार करता । मा मेरे बड़े भाई है। भाईके नाते मैं मापकी प्रत्येक सेवाके लिए तैयार हूं, लेकिन जब मैं सोचता है कि भाप चक्रवर्ति हैं और इस चक्रार्तिके प्रभावके नाते मुझपर अपनी भाशा चलाना चाहते है तब भापको
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महाबाहु बाहुबलि। [७३ सेवा करना में अपना अपमान समझता हूं। मैं जानता हूं मेरी यह स्पष्टता आपको अवश्य खलेगी लेकिन इसके सिवाय मेरे पास और कोई प्रत्युत्तर नहीं है।
भापका-बाहुबलि । ___पत्र लिखकर उन्होंने उसे बंद किया और दूतको देकर उसे चक्रवतिके लिए देनेको कहा
दृतने पत्र ले जाकर चक्रवर्तिको दिया । उन्होंने पत्र पढ़ा । पढ़ते ही उनका हृदय कोषसे प्रदीप्त होगया। वह बोल ठे, बाहुबलिकी इतनी धृष्ठता ? वह मेरा भारत विजयी चक्रवर्तिका, प्रभुत्व स्वीकार नहीं करना चाहता ? एक साधारण राज्यके स्वामित्वका उसे इतना महंकार है ? अच्छा मैं भी उसका यह अभिमान शिखा टुको २ कर दूंगा। यह कहते हुए उन्होंने बाहुबलिसे युद्ध करनेके लिए अपने प्रधान सेनापतिको सेन्य सजानेकी आज्ञा दी।
चक्रवर्तिके विद्वान् मंत्रियों ने इस बन्धु विरघको सुना। भाई माईमें बढ़ती हुई इस युद्धानिको उन्होंने रोकनेका प्रयत्न किया । वे चक्रवर्तिसे बोले-सम्राट् ! माप राजनीति विशारद हैं, दोनों भाइयों के परस्प के युद्धसे भीषण अनिष्ट होनेकी आशंका है। कुमार बाहुबलि न्यायप्रिय और विवेकशील हैं, इसलिए उनके पास एकवार दृत भेजकर फिरसे उन्हें समझाया जाय, यदि इसबार भी वे न समझें तो फिर सम्र ट जैसा उचित समझें वैसा हुक्म दें।
मंत्रियों की सम्मतिको चक्रवर्तिने पसन्द किया और एक पत्र लिखकर उसे दृतको देकर बाहुबलिके पास भेना । पत्रमें उन्होंने लिखा था
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७४ ]
जैन युग-निर्माता
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प्रिय अनुज ! सस्नेहाशीर्वाद !
तुम्हारा पत्र मिला, पढ़कर आश्चर्य हुआ। तुम मेरे भाई हो, मैं चाहता था तुम्हारे सम्मानकी रक्षा हो और मुझे तुमसे युद्ध न करना पडे । तुम स्वयं आकर मेरा प्रभुत्व स्वीकार कर लो, किन्तु मै देख रहा हूं, तुम बहुत उदंड होगए हो। मैं तुम्हें समझा देना चाहता हूं, कि राज्यनीतिमें बंधुत्वका कोई स्थान नहीं है वहां तो न्यायकी ही प्रधानता है । न्यायतः भारतकी प्रत्येक मृमिपर मेरे अधिकारको मानकर ही कोई राजा अपना राज्य स्थिर रख सकता है, तुम यह न समझना कि बंधुत्वके आगे में अपने न्याय अधिकारों को छोड़ दूंगा । एकवार मैं तुम्हारी उद्धतता के लिए क्षमा प्रदान करता हूं, और में तुम्हें फिर लिखता हूं कि अब भी यदि तुम मेरे साम्हने उपस्थित ढोकर मेरा प्रभुत्व स्वीकार कर लोगे, तो तुम्हारा राज्य और सम्मान इसी तरह सुरक्षित रहेगा। लेकिन यदि तुमने फिर ऐसा धृष्टता की तो मुझे यह सहन नहीं होगा और उसके लिए मुझे तुमसे युद्ध करना होगा । मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ । तुम्हारे सामने दो चीजें उपस्थित हैं, आधीनता अथवा युद्ध । दोनोंमेंसे तुम जिससे भी चाहो स्वीकार कर सकते हो । तुम्हारा - भरत (नक्रवर्ति ) ।
दूतने पत्र लाकर बाहुबलिको दिया, पत्र पढकर बाहुबलिका आंतरिक आत्म सम्मान जागृत हो रठा, लेकिन वे इतने बड़े युद्धका उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं लेना चाहते थे इसलिए उन्होंने मंत्रियों से परामर्श कर लेना उचित समझा ।
मंत्रियोंने कहा - महाराज ! हम युद्धके इच्छुक नहीं हैं, लेकिन
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महाबाहु बाहुबलि । [७५ हमें अपनी आजादीकी भी रक्षा करना चाहिए है। यह प्रश्न जनता
और देशकी स्वतंत्रताका है, इसके लिए हमें अपना सब कुछ बलिदान करनेसे नहीं हिचकना ६ मा । अपनी प्रजाको दूसरों की गुलामी करते हुए हम नहीं देख सगे। हमें अपनी आत्म रक्षा करना होगी, उसका चाहे कितना मूल्य देना पड़े।
बाहुबलि जी भी यही चाहते थे. उन्होंन मंत्रियोंके सत्ता की प्रशंसा और फिर उत्ता पत्र लिखना प्रारंभ किया । प्रिय अग्रज. अभिवादनम् ।
पत्र मिला । जीवन रहते हुए मैं किसीकी साधीनता स्वीकार करना नहीं चाहता यह मा निश्चित मत है। आपने मुझे युद्धकी धमकी दी है, और यदि आपको युद्ध ही प्रिय है, आप युद्ध करके मेरी स्वाधीनता नष्ट कान में ही भाना गौरव और न्याय सम्झते हैं, तो मैं इसके लिए तैयार हूं। मैं युद्धसे नही डरला । यह तो वीगेका एक ग्वेल है. इस मातंकका मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं लेकिन मैं आपको चेतावनी देना हूं कि युद्ध में बाहुबलि का यदि कोई प्रतिद्वन्दी है. तो वह चक्रवर्ति ही हैं, फिर भी आप बहुत सोच समझ कर युद्ध में उतरें नहीं तो यह युद्ध आपको बहुत महंगा पड़ेगा।
आपका-बाहुबलि। दृतको पत्र दिया वह शीघ्र ही उसे चक्रवर्तिके पास ले गया। उन्होंने पढ़ा, अमिमें घृतकी आहुति पड़ी। उनके क्रोधका पारा अंतिम डिग्री तक पहुंच गया, नत्र अमिज्वालाकी ताह जल उठे, भुजाएं फडक उठीं, वे अपने भड़कते हुए कोषको रोक नहीं सके ।
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८२]
जैन युग-निर्माता। हूं इसी छोटेसे कांटेने उनके मनको व्यथित कर रखा है, मैं उनके हृदयके इस शरको निकालूंगा ।
चक्रवति भातका मन पहिलेसे ही बदल चुका था। राज्य सनीका अब उनें वह मोड नहीं रह गया था, वे शीघ्र ही उनके चरणों में नत होकर बोले-योगीराज ! यह पृथ्वी स्वतंत्र है, इसका कोई भी स्वामी नहीं है। मानवके मन का अहंकार ही इस निश्चल वसुंधराको सपना कहता है, मेरे मन का अकार अब गल गया है। माप अपने हृदयके कांटेको निकाल दीजिए यह समस्त भूमि भापकी है, भात तो अब आपका दास है, उसका अब अधिकार ही क्या रह गया है ?
भातजीके सरल शब्दोंने योगेश्वरके हृदयका शूल निकाल कर फेंक दिया, उन्हें उसी समय कैवल्यके दर्शन हुए। केवलज्ञान प्राप्त कर उन्होंने विगट विश्वके दर्शन किए।
देवनाओंने उनकी पवित्र अ त्मापर अपनी श्रद्धांजलि अर्पिती और उनकी चरण रजका मस्तक पर चढ़ाकर अपने जीवनको सफल समझा।
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द्वितीय खड
युगाधार।
[६]
योगी सगरराज। [भोगमार्गमे निकलकर योगमें
आनेवाले महापुरुष
राजा सगरका राज्य दरबार लगा हुआ था, वे सिंहासनरूढ़ थे। रत्नोंकी प्रभासे उनका सिंहान चमक रहा था। मणि और मोतियोंके सुन्दर चित्र उरमें अंकित किए गए थे। सिंहासनके एक ओर प्रधानमंत्री और दूसरी ओर प्रधानसेनापति थे । इसके बाद मंत्री और अंतरंग परिषद के सभासद थे । देश और विदेशोंके नरेश खाकर उन्हें भेट प्रदान करते थे, राजा उ मादरसे योग्य स्थानपर बैठने की मा
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८४]
जैन युग-निर्माता। देकर उनका सम्मान करते थे। चारणगण उनके अटूट ऐश्वर्यका मधुर शब्दों में गान कर रहे थे-वे कह रहे थे-पृथ्वीपति ! " आपके प्रबल पराक्रमसे अखिल भारतक राजाओंके हृदय कंपित होते हैं, मापके ऐश्वर्य और वैभवकी तुलना करनेकी शक्ति कुबे में नहीं है, देवबाला आपके ऐश्वर्य निवासमें रहनेकी अभिलाषा रखती हैं। भारतमें ऐसा कौन व्यक्ति है जो आपके साम्डने नतमस्तक हुआ हो ? जिसकी ओर आपकी कृपा-दृष्टि होती है वह क्षणमें महान् बन जाता है।"
राजा सगर अपने अनंत वैभव और अखंड प्रतापके गीतोंको सहर्ष सुन रहे थे । महामंडलेश्वा सजाओंने उनको कृपा-प्राप्ति के लिए विनीतभावसे उनकी ओर देवा, उन्होंने मंत्रियों ने कार्य सम्बाघो कुछ परामर्श किया, जनता के मुख दुखकी बातें सुनी और दरबार समाप्त किया।
पाश्व रक्षकों के साथ उन्होंने गज्यमइलमें प्रवेश किया उसी. समय उनके कानोंमें एक मधुर ध्वनि गूंज उठी
पथिक माया में मग्न न होना। मिथ्या विश्व प्रलोभनमें रे, आत्मशक्ति मत खोना । मोहक दृश्य देग्व यह जगका इस पर तनिक न फल । मतवाला होकर र मानव ! इसमें तू मत भूल ।
पथिक ! मायामें मग्न न होना ।। गीत तन्मयता के साथ गाया जा रहा था, चक्रवर्तिने उसे सुना। गीतकी मधुर ध्वनि पर उनका मन मचल उठा, वे उसके पदलालित्यपर विचार करने लगे। उन्होंने जानना चाहा कि यह मधुर गीत कौन
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योगी सगरराज |
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गा रहा है ? विचार करते हुए अपने राज्य महल में प्रवेश कर चुके थे । यौवन के वेग से उन्मत्त सुन्दरियोंने उनकी ओर सस्नेह देखा, मधुर भावकी झंकार रठी, वे उनके स्नेहबंधन में जकड़ गए ।
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( २ ) योगीराज चतुर्मुखजी नगर के उद्यानमें पधारे थे । उनका कल्याणकारी उपदेश सुनने के लिए नगरकी जनता एकत्रित होकर जी रही थी । सम्राट् सगरने भी उनका आना सुना, वे उनके उपदेशसें वंचित रहना नहीं चाहते थे, मंत्रियों और सभासदोंके साथ वे योगीराजका उपदेश सुनने गए।
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मणिकेतु नामक देव भी उनका उपदेश सुनने आया था, वह राजा सगरका पूर्वजन्मका साथी था, उसने इन्हें देखा और पहिचाना । पूर्व स्नेह के तार करित हो उठे । पूर्वजन्मकी वे क्रीड़ाएं, विनोद लीलाएं और स्नेह वाताएं हृदय- पटल पर अंति हो उठीं। उसे वह प्रतिज्ञा भी याद आई जो उन्होंने एक समयकी थी । कितना मधुमय समय था, वह दोनों वसंतकी लीला देख रहे थे, अचानक एक वृक्षपातसे उनका विनोद भंग हो उठा था, उस समय उन दोनोंने अपने परलोक के संबंध में सोचा था । फिर उन्होंने आपसमें निर्णय दिया था। हम लोगों को भी यह वर्गका स्थान छोड़ना होगा तब जो व्यक्ति मानव शरीर धारण करेगा देवस्थानमें रहनेवाले देवका कर्तव्य होगा कि संसारकी मायामें मम होनेवाले उस अपने मित्रको आत्मकल्याण के पथ पर चलाने का प्रयत्न करे । आज मणिकेतुके साम्हने वह प्रतिज्ञा प्रत्यक्ष होकर खड़ी थी । उसने सोचा
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८६) जैन युग-निर्माता।
" समाज, वैभवके नशे में मदोन्मत्त हो रहा है, विलासकी मदिग पीते तृप्त नहीं होता। उसने अपने आपको इन्द्रियों और मनकी आज्ञाके आधीन कर दिया है, वह अपने कर्तव्यको बिलकुल भूल गया है।"
" पूर्वजन्मकी प्रतिज्ञाके अनुसार मुझे उसके इस झूठे स्वप्नको भंग करना होगा, मुझे उसे लोक कल्याणके पथ पर लगाना होगा। माज यह अवसर प्राप्त है, मैं इसे जाग्रत करनेका प्रयत्न करूंगा।"
योगेश्वरका उपदेश समाप्त होने पर वह सगजसे मिला और अपने पूर्वजन्मका परिचय दिया। पूर्वजन्मके विछुड़े हुए युगल मित्र आज मिलकर अपने आपको भूल गए। उन्होंने उन आनन्दका अनुभव किया जिसका अवसर जीवनमें कभी ही आता है। फिर उन्होंने अपने जीवनकी अनेक घटनाओंका ११म्पर विनिमय किया। सब बातें समाप्त हो जाने के बाद मणिकेतुने पूर्वजन्ममें की हुई प्रतिज्ञाकी याद दिलाई और साथ ही साथ उनसे कहा-सम्राट् ! आज माफ महान् ऐश्वर्यके स्वामी हैं यह गौरवकी बात है। आपके जैसा वैभव, सौन्दर्य और विलापकी सामग्रिएं किसी विले ही पुण्याधिकारीको मिलती हैं: किन्तु इनका एक दिन नष्ट होना भी निश्चित है। यह वैभव और साम्राज्य मिलकर विछुड़नेके लिए ही है । इसके उपयोगसे कभी तृप्ति नहीं होती। मानव जितना अधिक इसकी इच्छ एं करता है और जितना अधिक अपने को इसमें व्यस्त कर देता है उतना भधिक वह अपनेको बंधन में पाता है और अतृप्तिका अनुभव करता है। अब तक मापने स्वर्गीय भोगोंके पदार्थोका सेवन करके अपनी
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योगी सगरराज ।
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लालसाओं को तृप्त करने का प्रयत्न किया है किन्तु क्या वे तृप्त हुई है ! नहीं। सम्राट् ! इच्छा पूर्णकी लालसा में मम हुा मानव अपनी अपूर्ण कामनाओं को साथ लेकर ही संपारसे कृनका जाता है। आपका कर्तव्य है कि जबतक आपकी इन्द्रिएं चलवान हैं उन्होंने आपको नहीं छोडा है, और जबतक भापकी शक्ति और सामर्थ्य आपसे विदा नही मांग चुकी है, उपके पहिले आप इस विलासकी आंधीको शान्त कर लें, नहीं तो यदि फिा मामथ्र्य नष्ट हो जाने पा, विषयों ने ही आपको त्याग दिया तो फि. आपके ज्ञान और विवेक क्या मूल्य हेगा। इपलिए आप व संगाको चिनाएं छोड़कर लोकरल्याणकी चिंता करें, और जनता के हित के लिए भवस्व त्याग करें।
सम्राट्ने मित्र मणिकेतुके परामर्शको सुना, लेकिन उस वे प्रभावित नहीं हुए, उनके मनपर उसकी बातों का कोई असर नहीं हुआ। उनका मन तो इस समय वैभव के जाल में फंसा था, मोहमें मोहित होरहा था और विलामका नशा अभी उनपर चढ़ा था, फिर उन्हें त्यागकी बात कैसे पपन्द आती ?
मणिकतु उनके अंताङ्ग भावों को समझ गया, उपने अंत में अपने कर्तव्यकी स्मृति दिलाते हुए उनसे कहा-मित्र ! मंग कर्तव्य था कि मैं तु संचेष्ट करूं । तुम इस समय ममत्वमें फंसे हुए हो इसलिए मेरी बातोंकी वास्तविकताको नहीं समझ रहे हो, लेकिन एक दिन भाएगा बन तुम उसे समझोगे । अच्छा. अब मैं आपसे विदा लेता हूं, यदि मापका मन चाहे तो कभी मेरा स्मरण कर लेना । मणिकेतु चला गया और सम्राट् सगर भी अपने नगरको लौट भाए।
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९४] जैन युग-निर्माता । अब नहीं जगेगा । इसके प्राणों को यमराज छीन ले गया है. वह बड़ा दुष्ट है वह किसी को कुछ नहीं, सुनता उसके हृदयमें किसी के लिए करुणा नहीं है। अब तुम इसके जगाने का उपाय मत करो, यह मृतक होगया है। जब मैंने यह सुना तब मेरे हृदयको बढ़ा शोक हुआ और अब मैं आपके पास आया हूं। आप उस दुष्ट यमराजसे मेरे प्रिय पुत्रके पाणों को लौटया दीजिए। मैं आपकी शरण हूं आप मेरी रक्षा कीजिए।
वृद्धकी बात सुनकर सम्र ट्रको उसके भोलेपन पर बड़ा तरस भाया वे उसकी सालतासे बहुत प्रभावित हुए और उसे समझाते हुए बोलेहे वृद्ध महोदय ! आप बड़े ही साल हैं, आप यह नहीं जानते कि मृत्युके द्वारा छीने गए मनुष्यको बचाने की किसी में ताकात नहीं है, महोदय ! मृत्यु तो यह नहीं देखती कि वह जवान है, अथवा किसीका इकलौता पुत्र है। उसकी आज्ञा संसारी मनुष्य पर अखंड रूपसे चलती है। च हे सम्रट हो अथवा दीन भिखारी, समय मानेपर वह किसीको नहीं छोड़ना । तुम्हारे पुत्रकी आयु समाप्त होगई है, वह मृतक होगया है। मृतकको जिलानेकी ताकत किसी में नहीं है, इस लिए अब तुम्हें उसके प्राणोंका मोह त्याग कर शांतिकी शरण लेना चाहिए।
सम्र के वचनोंसे वृद्धको शांति नहीं मिली। वह बोलासम्राट् ! मेरे हृदयको पुत्र प्राप्तिके विना शांति नहीं। मेरा हृदय पुत्र वियोगको सहन करने के लिए किसी तरह भी समर्थ नहीं है। पुषके मिलने की इच्छासे में नापके पास भाया था, उपदेश पुननेके
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लिए नहीं, लेकिन मैं देखता हूं, मुझे भापके यहांसे निराश होकर लौटना पड़ेगा। आप चक्रवर्ति सम्राट होकर भी मेरी रक्षा नहीं कर सकेंगे? सम्राट् ! आप ऐसा न कीजिए, आप शक्तिशाली हैं, माप उस यमराजसे अवश्य ही युद्ध की जिए और मेरे पुत्र को लौटा दीजिए।
वृद्ध तुम नहीं समझते ? यमराजसे युद्ध काना मेरी शक्तिसे बाहर है अच तुम्हारा रोना धोना व्यर्थ है उस बन्द कीजिये और इस वृद्धावस्था में शांतिकी शरण लीजिए । महोदय ! अब आप पुत्रमोहकी छोहिए । यह ममत्व ही आत्मबंधन की वस्तु है। तुम यह नहीं जानते कि सारा संसार स्वार्थमय है. सांगारिक म्नेहके अंदर स्वार्थ ही निहित रहता है नहीं नो वास्तवमें न कोई किमी का पुत्र है और न पिता है । न कोई किसीकी रक्षा करता है और न किमीको कोई माता है । यह यच मंमार का माया मोह है. जिसके का हम ऐमा समझने हैं । माको तो अब मोह त्याग कर प्रसन्न होना चाहिए । भान आपकी आत्मोन्नति के मार्गका कंटक निकल गया, अब आर बंधन मुक्त हैं । आजसे अब अपने जीवनको सफल बनाने का पयत्न कीजिए। यह मानव जीवन आत्म-कल्याण का जेष्ठ साधन है, उसे पुत्र मोहमें पहकर नष्ट म4 कीजिए । अबतक पुत्र मोहके कारण आप अपना कल्याण न कर सके, लेकिन अब तो आप स्वतंत्र हैं इसलिए शोक त्याग कर माधु दीक्षा लीजिए और आत्मकल्याणमें संख्म हो जाइए।
सम्राट् ! वृद्धको इस तरह सान्त्वना दे रहे थे इसी समय अग्ने भाइयों की मृत्युसे शोकित राजकुमारने प्रवेश किया। उसका मन देकर हो रहा था। उसने माते ही अपने सभी भाइयों को खाई खोदते
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९६ ) जैन युग-निर्माता । हुए मृत्यु प्राप्त होने का समाचार सुनाया । प्रिय पुत्रोंकी मृत्यु सुनार सगराज मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। जब नह चैतन्य हुए तब उन्होंने देखा कि साम्हने वृद्ध खडा हुआ है। वह कह रहा है-सम्राट् ! उपदेश देना साल है लेकिन उसका पालन करना कठिन है। दूसरोंको पथ बतला देना कुछ कठिन नहीं परन्तु उसपर स्वयं चलना टेडी खीर है। आप मुझे तो उपदेश दे रहे थे भात्म कल्याण करनेका लेकिन आप खुद पुत्र वियोगकी बात सुनते ही बेहोश होगए ।
वृद्धके इस व्यंगका सम्राट के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके मनसे मोहका बोझ उता गया। वे सोरम लंग-हाम्तवमें वृद्धका कथन सत्य है। सांसारिक मोह मडाबलवान है, मेरे ऊपर भी इस मोहका प्रचल चक्र चल रहा है, और मैं उसीमें सक्कर लगा रहा हूं। माज मे । माइ नशा भंग होगया। फिर वे वृद्ध में बाले–वृद्धमहोदय ! सम्राट् जो कहते हैं उसे करते हैं। बेशक मोहने मुझे बेहोश बना दिया था, लेकिन अब मैं स्वस्थ हूं। मैंने आत्मकल्याण और लोक सेवाके पथ पर चलना निश्चित कर लिया है, चलिए आप भी मेरे इस पथके पथिक बनिए।
सम्राट्के शब्दोंसे वृद्ध चौक पड़ा, वह उठा और बोला-स्म्राट : भाज आप उस पथपर आए हैं, जिसपर कुछ समय पूर्व में आपको लाना चाहता था । आप मुझे नहीं पहचानते, मैं आपका पूर्वजन्मका साथी वही मणिकेतु हूं। मैंने आपको लोककल्याणके मार्ग पर लाने के लिए ही यह सब कार्य किया है। मैंने ही खाई खोदते हुए आपके पुत्रोंको बेहोश कर दिया था, और मैं ही वृद्धका रूप रखकर यहां
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योगी सगरराज।
[९७ नाया हूं। पूर्वजन्मकी प्रतिज्ञा पूर्ण करना मेरा कर्तव्य था, मैंने मित्रके एक कर्तव्य को पूर्ण किया है। मेरा कार्य अब समाप्त होगया, भाप मा आत्म-कल्याणके पथ पर हैं।
मैं मा जाता है, आप माने निर्धारित पथ पर चलकर लोककल्याण भावनाको सफऊ बनाइए । बेहोश हुए भापके पुत्रोंको मैं होशमें लाता हूं। यह कह का उमने वृद्धका रूप बदल डाला । अब वह मणिकेतुके रूपमें था । सगराजने उसे हृदयसे लगा लिया और उसके मैत्री धर्मकी प्रशंसा करते हर कहा-मणिकेतु ! तुम मेरे पूर्व जन्मके सच्चे मित्र हो। मित्रका यह कर्तव्य है कि वह सत्य-मार्गका प्रदर्शन करे और अपने मित्रको श्रेष्ठ सलाह दे । तुमने मोह-जालमें बेहोश रहनेवाले मित्रको समय रहते सचेत कर दिया इससे अधिक मैत्री धर्म और क्या हो सकता है ? अब मैं कल्याण ग्थका पथिक हूं, मुझे अब कोई उससे उन्मुख नहीं कर सकता। यह कहते हुए सम्राट्का हृदय मित्र प्रेमसे भर माया, वे फिर एकवार हृदयसे मिले।
मणिकेतु अपना कार्य समाप्त करके देवलोक चला गया और सम्राट सगर योगी सम्राट बन गए ।
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१०६] जैन युग-निर्माता। सौगा और साधु दीक्षा ग्रहण की। अयोध्याका सौन्दर्य चक्रवर्ति सनकुमारके विना मा शून्य सा हो गया था।
सम्राट् सनत्कुमार, नहीं महात्मा सनत्कुमार-योगीश्वर सनत्कुमार, अब योगसाधनामें तन्मय थे। तपश्चरणमें निन्त थे। उन्होंने इस जन्मके सांसारिक बंधनोंको तोड़ डाला था, लेकिन पूर्वजन्मके संस्कारोको वह नहीं तोड़ पाए थे, वे अभी जीवित थे। पूर्वकर्म फल पाना अभी शेष था, यह प्रक्टमें आया, उन्हें कोद हो गया। उनका वह मुन्दर और दर्शनीय शरीर कोड़की कठिन व्याधिसे आज ग्रसित था, सारे शरीरसे मलिन मल और रक्त निकल रहा था। तीव्र दुर्गधिके कारण किसीको उनके निकट जाने का साहम नहीं होता था, लेकिन इसका उन्हें कोई खेद नहीं था, कोई ग्लानि नहीं थे। वे शरीरकी अपवित्रताको जायते थे, वे निर्ममत्व थे, शरीरकी बाधा हें आत्मध्यानसे विलग नहीं कर सकी थी। उनकी आत्मतन्मयता पर उसका कोई प्रभाव नहीं था, वे पूर्वकी तरह स्थिर थे।
देवताओं को उनकी इस निर्ममत्वता पर आश्चर्य हुआ । उन्होंने जानना चाहा, सनत्कुमारका यह निर्ममत्व बनावटी तो नहीं है, वह जो कुछ बाहरसे दिखला रहे हैं वह उनके अंदर भी है अथवा नहीं, उन्हें पर क्षण की कसौटी पर कसना चाहा ।
"हम वैद्य है, व्याधि कैसी ही भयानक क्यों न हो भले ही बह कोड़ ही क्यों न हो हम उसे निश्चयसे नष्ट करनेकी शक्ति रखते
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निस्पृही सनत्कुमार। [१० हैं " वह ध्वनि योगीराजके कानों पर वारवार आघात करने लगी। उन्हें इससे क्या था, वे तो अात्म-समाधि मम थे ।।
निश्चित समय पर योगीश्वग्ने अपना ध्यान समाप्त किया। वंद्याज उनके साम्हने उपस्थित थे। उके चामें पढ़कर बोलेयोगेश्वर : ता हूं के ध्यानमें यह भ कोई बाधा नहीं पहुंचाती होगी, लेकिन व्याधि तो पधि ही है, उसकी वेदना तो
आपको हानी दी होगी। मेरे रहते हुए आपकी या व्याधि बनी रहे यह बहे दुःखकी बात होगी। योगीश् ! आप मुझे आज्ञा दीजिए। भापकी यह व्याधि कुछ क्षणों में ही मैं नष्ट कर दूंगा।
ऋषीश्वन सुना-वे बही शांतिस बोले-वैद्यराज ! जान पड़ता है आप यह दयालु हैं भएको मेरी धि नष्ट करने की बहुत चिन्ता हो रही है। मैं समझता हूं आप वास्तव में पंद्य है जो मेरी व्याधिको नष्ट कर सकेंगे।
आपकी कृगसे मुझमें व्याधि नष्ट करने की शक्ति मौजूद है। वैद्य रूपधारी देवताने कहा।
वद्याज : लेकिन क्या मेरी मूल व्याधिको आप पहचानते हैं । जिसकी वजह से यह ऊपरी व्याधि जिसे देखकर आपका मन करुणासे पिघल रहा है, जीवन पा रही है उस व्याधिका भी निदान कर सकेंगे ? वैद्यराज ! यह व्याधि तो कुछ नहीं मुझे उसी व्याधिके नष्ट करनेकी चिन्ता है-वह महाव्याधि है 'जन्म-मरण' उसका मुख्य कारण है कर्मफल । क्या आपमें उसके नष्ट करनेकी शक्ति है ?
वैद्य मब मौन था, योगी सनत्कुमारके प्रश्नका उसके पास कोई
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१०८]
जैन युग-निर्माता।
उत्तर नहीं था। वह अब अपनेको अधिक समय तक प्रहन्न नहीं समझा, वह पराजित हो चुका था। महात्माके चरणों में पड़कर वह बोला-महात्मन् ! क्षमा कीजिए । महावैद्यका परीक्षण करने मैं भाया था वैद्य बनकर । मैं आपकी व्याधिको निमूर करना तो दूर उसका निदान भी नहीं जानता। हम व्याधिके विनाशक तो आप ही हैं । आपमें ही कर्मफल और जन्ममग्ण नष्ट करनेकी शक्ति है। मैं तो आपकी निम्हता देखने आया था उसे देख चुका । आपका योग साधन, आपकी आत्म तन्मयता, आपकी निर्ममत्वता आदर्श है, वास्तवमें आप निस्पृह योगी हैं। मैं तो आपका चरण सेवक हूं. भापका अपराधी हूं, क्षमाका पात्र है। प्रार्थना करके देव अपने स्थानको चला गया।
योगीराजने तीव्र कर्मके फलको योगकी प्रचंड उष्णतामें पका हाला, उसके रसको ध्यानामिसे नष्ट कर दिया । तीक्ष्ण व्याधिको के पोगये, योगको महान् शक्तिके साम्हने कर्मफल स्थिर नहीं रह सका वह जलकर भस्म हो गया। योगीराजने दिव्य आत्मसौन्दर्यके दर्शन किये, उसमें उन्होंने अपनेको मात्मविभोर करा दिया, उनका मानस पटल अात्म-सौन्दर्यकी उस अद्भुत प्रभासे जगमगा उठा था जो मविनश्वर थी, स्थायी थी और अमर थी।
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[८] महात्मा संजयंत। (सुदृढ़ तपस्वी)
(१)
गंधमालिनी देशकी प्रधान राजधानी वीतशोका थी। उसके बधीश्वर थे महाराजा वैजयन्त । उनका वैभव स्वर्गीय देवताओं की तरह अतुलनीय था। वे अपने वैजयन्त नामको चरितार्थ करते थे । साहस
और पराक्रम में भी वे एक ही थे। रक्ष्मीकी तरह महाभाग्या महारानी भव्यश्री उनकी प्रधान पटरानी थी।
वैजयन्त न्याय और नीति अपनी प्रजाका संरक्षण करते थे। वे उदारमना थे । विद्वानों का योग्य सम्मान करके, सुहृद् बंधुओंको निःस्वार्थ प्रेमसे और माश्रितोंको द्रव्य देकर संतुष्ट रखते थे।
अत्याचारियों और अन्यायके लिए उनके हाथमें कठोर दंडवा
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जन युग-निर्माता। इसीलिए उनके राज्यमें व्यसनी और दुगचारी पुरुषों का अस्तित्व नहीं था।
उनके दो पुत्र थे-एक संजयन्त दूसरे जयंत । गज्य प्रांगणकी शोभा बढ़ाते हुए वे दोनों गलक दर्शकों का मन मुग्ध करते थे। दोनों ही प्रतापशाली सूर्य और चन्द्र के समान प्रकाशवान थे। दोनों कुमारोने बड़े होनेपर न्याय और साहित्यका अच्छा अध्ययन किया था। सिद्धांत और दर्शनशास्त्र के वे मर्मज्ञ थे, वे अब यौवनसान थे; शरीर संगठनके साथ२ सौन्दर्य और कलाका पूर्ण विकास उनमें हुआ था।
उस समयका शिक्षण आज जैसा दोषपूर्ण नहीं था। माजका शिक्षण मानसिक विकाम और चरित्र निमणके लिए न होकर केवल उदर पूर्ति और विलासका साधन बना हुआ है । भास्तिक विज्ञान और उसके विकापकी ओर हमका थहा भी लक्ष्य नहीं है। उसका पूर्ण ध्येय भौतिक विज्ञान और उसके विकासको ओर ही है। युवकों के मनमें गुप्त रूप में विकसित होनेवाली वासना और काम लिप्माको वह पूर्ण सहायता देता है। स्वदेश. जातिपम्मान, स्वाधीनता और आत्मगौरवको भावनाओंको आज.या शिक्षण छूना भी नहीं है, उसने युवकों के सामने एक ऐमा वातावरण पैदा कर दिया है जो उनके लिउ भयंकर विनाशकारी है । विदेशी सभ्यता और भावनाओं को यह उत्तेजित करता है और पूर्व गौरद के संस्कारोंकी जड़को नष्ट करता है। इस भयानक शिक्षणके मोहमें भारतीय युवकों का जीवन और देशकी संपत्ति स्वाहा हो रही है, और उसके बदले उन्हें गुलामी, मानसिक पाप और भोगविलासका उपहार मिल रहा है । इस शिक्षणके साथ ही युवकों के मानसिक परम
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११८] जैन युग-निर्माता। आगे बढ़े। उन्होंने महात्मा संजयंतको पत्थरोंसे मारना प्रारंभ किया। पत्थरोंकी वर्षा उस समय तक नहीं रुकी जब तक उन्होंने महात्माको जीवित समझा, अंतमें मृतक समझ कर वे उन्हें वहीं छोडकर अपने नगरको भाग गए।
महात्मा संजयंतने इस उपसर्गको बड़ी शांतिसे सहन किया । कर्मफल समाप्त होचुका था, स्वर्णको अंतिम आंच लग चुकी थी, अब उनका भात्म शुद्ध होचुका था, उन्हें विश्वदर्शक केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
उनके संपूर्ण कर्म एक-साथ नष्ट होचुके थे, शरीरसे भायुका संबंध नष्ट होचुका था इसलिये उन्होंने उसी समय निर्वाण प्राप्त किया।
___मानव और देवताओं ने मिलकर उनका निर्वाण उत्सव मनाया और उनके अद्भुत धैर्यका गुणगान किया ।
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[९] महात्मा रामचन्द्र। (मारत-विख्यात महापुरुप)
(१) मंडाका मुख्य द्वार बड़ी मुन्दरतासे मनाया गया था, अनेक देशोसे निमंत्रित नरेश यथास्थान ठे थे। निश्चित समय पर एक मुन्दरी बालाने सभामध्यमें प्रवेश किया, सभी राजाओंकी 'ट उसके मुखमंडल पर थी । सुन्दरी वास्तवमें सुन्दरी थी, उसके प्रत्येक मङ्गसे मादकता छलक रही थी, हाथमें सुगंधित पुप्पोको माला थी, साफ वस्त्रोंसे सपने अंगोंको ढके हुए एक स्मणी उसका मार्ग प्रदर्शन कर रही थी।
अनेक नरेशोंके भाग्यका फैसला करती हुई वह एक स्थान पर रुकी । दर्शकोंके नेत्र भी उसी स्थान पर रुक गए । व्यक्तिका हृदय
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१२०] जन युग-निर्माता। हर्षसे फूल न्ठा कपोलों पर गाली दौड़ गई. विशाल वक्षस्थल तन गया। बालाने उसके प्रभावशाली मुखमंडल पर एकवार अपनी विशाल दृष्ट आरोपित कर दी, फिर लज्जासे संकुचित हुए अंगोको समेटकर उसने अपनी बाहुओंको कुछ ऊपर उठाया, और हृदयकी धड़कनको रोकते हुए अपने सुकुमार काकी पुष्पमाला व्यक्तिके गलेमें डाल दी।
कार्य समाप्त होचुका था, अयोध्या नरेश दशरथ विजयी हुए। स्वयंवर मंडपम कुमरी के कईने उनके गलेमें वरमाला डालती थी ।
वरमाला डालकर अपने संकुचित और लज्जाशील शरीरको लेकर वह झुकी हुई कल्पलताकी तरह कुछ सणको वहां खड़ी ही, फिर मंदगतिसे चलकर वह विवाह वेदिकाके समीप बैठ गई।
केईका चुनाव योग्य था । उसने श्रेष्ठ पुरुषको अपना पति स्वीकार किया था, सुहृद और कुटुम्बी जन इस संबंधसे प्रसन्न थे, लेकिन स्वयंवर मंडपमें पराजित नरेशोंको यह सब असह्य हो उठा । वे अपनेको अपमानित समझने लगे और अपने अपमान का बदला युद्ध द्वारा चुकानेको तैयार हो गए।
राजा दशरथ इसके लिए तैयार थे, उन्होंने अपने स्थका संचालन किया, केकईको उसमें विठलाया और राजाओंसे युद्ध के लिए अपने रथको आगे बढ़ा दिया ।
नरेशोंने एक साथ मिलकर उनके ऊपर धावा बोल दिया। दशरथ युद्ध क्रिया-कुशल थे, लेकिन उन्हें युद्ध और रथ संचालन दोनों कार्य एक साथ करना पड़ रहे थे, एक क्षणके लिए उन्हें इस कार्यमें कुछ कठिनाई हुई और उनका स्व भागे बढ़नेसे रुक गया। शत्रुन
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महात्मा रामचन्द्र। [१२१ माक्रमण जारी था, उनका हृदय इस भाक्रमणसे हताश नहीं हुआ था, वे आगे बढ़ने का मार्ग खोज रहे थे। इसी समय उन्होंने देखा, केईने उनके हाथकी मुहर लगामको अपने हार्थों में ले लिया था, अब युद्ध संचालनके लिए वे स्वतंत्र थे। वीर रमणीकी सहायतासे उनका माहम दूना बढ़ गया, उन्होंने पबल पराक्रमके साथ शत्रुओंपर अक्रमण किया । शत्रु सेना पीछे हटने लगी। राजा दशरथ विजयी बने, विजयने उनके मम्तकको ऊंचा उटा दिया ।
विजयके साथ वीर बाला के ईको उन्होंने प्राप्त किया, उनका उन्मुक्त हृदय के कई की वीरता पर मुग्न था, मानकी विजयका संपूर्ण श्रेय वे के ईको देना चाहते थे. बोले-वीगारी ! तेरी रथ-चातुर्यताने मेर हृदयको जीत लिया है । भग्ने जीवनमें आज प्रथम वार ही मैं इतना प्रसन्न हूं, ६५ प्रमन्नताका कुछ भाग में तुझे भी देना चाहता हं, आर्ये : आजकी इस विजय स्मृतिको चिर स्मरणीय बनाने के लिए मैं इच्छित वरदान देना चाहता हूं तेर लिये जो भी इच्छित हो उसे मांग, मैं तरी प्रत्येक मांगको पूर्ण करूंगा।
मैं आपकी हूं, मग कर्तव्य पापके प्रत्येक कार्यमें सहयोग देना है, मैंने आज अपना कर्तव्य ही पूरा किया है । यह प्रसन्नताकी बात है, मैं अपने कर्तव्यमें सफल हुई।"
"माप मुझ पा प्रसन्न हैं, मुझे इच्छित वरदान देना चाहते हैं, नारीके लिये इससे अधिक सौभाग्यकी बात और क्या हो सकती है। मैं इस सौभाग्यको स्वीकार करती हूं, आप मेरे वादानको अपने पास सुरक्षित रखिए इच्छा होने पर मैं उन्हें मांग लंगी", केकईने हर्षित
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१२२] जैन युम-निर्माता। हृदयसे यह कहा। विनोतामें भाज आनंदका सिंधु उमड़ पड़ा । प्रत्येक नागरिकका चेहरा हर्षसे झलक उठा था । + +
+ राजा दशरथका राजमहल हर्षगानसे गूंज उठा, उनके यहां भाज राम जन्म हुआ है।
राम जन्मका स्मव अवर्णनीय था, कौशल्याका हृदय इस उत्सवसे आनंद मग्न हो गया । यह उत्सव उस समय अपनी सीमाको उलंघन कर गया, जब जनताने रानी सुमित्राके भी पुत्र होनेका समाचार सुना.।
दोनों बालक राम लक्ष्मण अपनी बालक्रीडासे दशरथके प्रांगणको सुशोभित करने लगे।
कुछ समय जाने के बाद रानी केकईने पुत्र जन्म दिया, पुत्रका नाम भरत यावा गया। इस तरह रानी सुमित्राके द्वितीय पुत्र हुमा, जिसका नाम शत्रुघ्न पडा।
कला, बल, पुरुषार्थ विद्यावृद्धिके साथ २ चारों कुमार वृद्धि पाने लगे।
गुरु वशिष्ठ ने चारों कुमारको शस्त्र और शास्त्र विद्यामें अत्यंत कुशल बनाया ! उनके यशकी सुरभि देशके चारों कोने भाने लगी। ____मिथुला नरेश जनक इस समय मुख- मम दिख रहे थे, रानी विदेहाने एक पुत्र और पुत्रीको साथ ही जन्म दिया था। राजमहल में मानंदके नगाड़े बजने लगे, लेकिन संध्या समयका यह मानंद सवेरे तक स्थिर नहीं रह सकता । जो राजमहल संध्याके क्षीण प्रकाशमें दीपकोंसे नगमा उठा था, नृत्य और गानसे उन्मादित बन गया था
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श्री रामको राज्य तिलक देनेकी तैयारियां होने लगी, जनता इस महोत्सवमें बड़ी दिलचस्पीसे भाग ले रही थी, आज रजतिलक होनेवाला था इसी समय एक अंतराय उपस्थित हुभा।
रानी के कईका पुत्र भरत बालकपनसे ही विरक्त था, अपने पिताको वैराग्यके क्षेत्र अग्रसर हुआ देख उसके विक्त विचारोंको एक और अवसर मिला । वह भी माथके साथ ही वैरागी बनने के लिए तैयार होगया । के कईन त मुनी. टसका हृदय पतिके साथ ही साथ पुत्र वियोग कराह उठा : वह कर्तव्य विमूढ़ होकर कुछ समयको घोर विमान होई । टसकी खो मन्थग थी, मथरा बहुत ही चालाक और कुटिल हृदय थी, रानी चिताका कारण उसे मालूम होगया था। उस; ' नी के ईको एक सलाह दी। वह बोली-रानी ! यह ममय विताका नहीं प्रयत्नका है ! यदि इस समयको तूने चिंतामें खो दिया तो जीवनमा तुझे अपने जीवन के लिए रोना होगा। तुझे राजाने वरदान दिए थे, उन वादानों के द्वारा त आने प्रिय पुत्र भरतके लिए राज्य मांग ले, लेकिन ध्यान रखना प्रतापी रामके रहते हुए भरत गज्य नहीं कर सकेगा, इसलिए राज्यकी सुरक्षाके लिए रामके बनवासका भी दुसरा वर मांग लेना ।
केकई सरलहृदया नारी थी। उसका इतना साहस नहीं होता था लेकिन मन्थगने साहस देकर उसे इस कार्य के लिए तैयार कर लिया। ____ दशग्य वग्दान देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध थे । केकईने वरदान मांगा और उसे मिला । श्री रामके मस्तकको मुशोभित करनेवाला
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१३. जन युग-निर्माता। सत्यम • मान के मि१३ चढ़ाया गया-भरतने माताका सोच, पिताकी मज्ञा • ६५ के आग्रह को माना ।
पवृक्त ने अपने राज्याधिकारकी चर्चा तक नहीं की। :- .:: तिकी सजा स्वीकार की । वन्ना की आज्ञासे
. .. . किन नहीं हुआ । 'टको दस्ते . ...... i ci : Riगा सीता औ• भ्र तृ त्त. २६मणने ८ . द. । ६.३५ो अस्थनीय वेदनाएं 4कष्ट
5, न त्य प्रणसे नहीं टि , वे वन
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1ो उनके जान का अ ह्य व ट ! लकिन रे में । म ता और जाके न्द बंधनको
: चल दिए। म ग घर चटई। : ।। ३ बंधाते हुए अपने ५.३५ ह चले ।
.
.. | मानन्द्र घा. भर मे विवरण पान ने टसक पु. . वनों और भयानक कन्दराओं को ' अपना १.९.१. ... .भयानक जंगलों औ• गुफा ,ने हुए उन .२५ मी व्याकुल नहीं होता। वे इ. भ्र। स . ज थे।
वृक्षोंक मधुर फल रूकिर अपनी क्षुधा शान्त हुए वे को परेवा सरिताको पारकर दंडकारण्यके निकट पहुंचे। गिरिको मुन्दरताने उनके हृदयको माकर्षित कर लिया । वे कुछ समयको विश्राम लेनके लिए वहीं एक कुटी बनाकर ठहर गए।
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रक्षण प्रकृतिके उपासक थे। प्रकृतिका अबाधित माम्रज्य गिरके पारों ओर फैला हुआ था। उसकी मनोमोहकताने उनका हृदय मुग्ध कर लिया था।
एक दिन प्रकृतिकी शोभा निरीक्षण करते हुए वे बहुत दूर पहुंच गए थे, वां होने एक वांसके जंगलको देवा । वामका वह जंगल क अद्भुत प्रशसे प्रकाशित हो रहा था। देखकर टाके आश्चर्या ठिकाना नहीं रहा। वे उस प्रकाशकी खोज क. ' बांगों के निकट पहुंचे। उनके अन्दर उन्होंने एक चन की नई बस्तु देवी । गे चलकर उन्होंने उसे •ठा लिया। वह २ ना, ''| तीक्ष्ण " ड ! थ', खड्की तीक्षण के परीक्षणके दौर में मों पर चलाया । र क्या था उनके दम्ने म्यूम वांमा जगन पट गया ! टममें 48 हः शंबुक३ मा दशा भी क्ट का जमीन पर गिर गया ।।
'श्च चकित लक्षण उस खड्गको लेकर माने सहनशी कळे अप
की बहिन चन्द्र याका पुत्र के जंगलों मटा मा वि. • इको उपासना के 'हा था, ८पासना करते हुए उसे एक माह ।। था, उमकी . - निन्यति भोजर लाया ली थी।
.हकी भावना मान समारी थी। इन उपके साम्:ने पड़ा था लेकिन उसका दुर्भाग्य उसके साथ था । वह शंबुकको न मिरूका लक्ष्क्षणके हाथ लगा । उसे उसके द्वारा मृत्यु ही हाथ लगी।
माज चन्द्रनखा पाने पुत्र के लिए नियमानुसार भोजन बाई
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(१०)
रामके जन्मोत्सव के बादसे अयोध्या अपने सौमाभ्यसे वंचित थी, आज रामके लौटने पर उसने अपना सौभाग्य फिर पाया, वह सौन्दर्यमय हो उठी ।
विरागी भरदने श्रीरामके चरणोंपर अपना मुकुट रख दिया, वे एक क्षणके लिए भी अब अयोध्या में नहीं रहना चाहते थे । प्रजाकी रक्षा के लिए श्रीरामको राज्यभार स्वीकार करना पड़ा । रामराज्यसे अयोध्याका गया हुआ गौरव पुनः लौट माया, प्रजाने संतोषकी सांस की राम प्रजाके अत्यंत प्रिय बन गए। उन्होंने राज्यकी सुन्दर व्यवस्था की। प्रत्येक नागरिकको उनके योग्य अधिकार दिये, उनके राज्य में सबल और बलवान, घनी निर्बल और नीच ऊंचका कोई भेदभाव नहीं था, सबको समान अधिकार प्राप्त था ।
सुखसागर में अशांतिका एक तू उठा । तूफानकी लईर धीरे२ उठीं । " श्री रामने सीता के सतीत्व की परीक्षा लिए विना ही उसे अपने घर में स्थान दे दिया, वह सदणके यहां कितने समय तक रहीं, वहाँ रहकर क्या वह अपने आपको सुरक्षित रख सकी होंगी ?" लहरें श्री रामके कानों तक जाकर टकराई भयंकर तूफान उमड़ उठा, इस तूफान में पड़कर श्री राम अपने को संभाल नहीं सके, सीताका त्यागकर उन्होंने इस तूफानको शांत करनेका प्रयत्न किया ।
सीताजी भयंकर जंगल में निर्वासित थीं। वहां उन्होंने प्रतापी लव-कुशको जन्म दिया ।
नारद द्वारा सीताजी परीक्षा देनेके लिए एकवार फिर अयोध्या बाई । गई उन्होंने अग्निप्रवेश किया और भरने सतीत्वकी परीक्षा में
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सफल हुयीं लेकिन गृहरु । जीवन उन्हें भर पसंद नहीं था, वे श्री रामसे आज्ञ लेकर पस्विनी होगई।
सताके चले जानेपर श्री रामका जीबन शुष्क बन गया था उनका मब सारा मोह लक्ष्मण मा समाया था।
एक दिनकी बात; इन्द्र मामें गम-लक्षाणके अद्भुत स्नेहकी कहानी सुनकर क तिदेव के रक्षण के लिए भाया। भाकर उसने श्री रामके निधनका झूट झुठ समाना। श्री लक्षणको मुनाया, सक्षमणका हृदय श्री गमका निधन सुनकर टूट गया, वे मूर्थित होकर भृतलपर गिर पड़े। उनकी वह मूच् मृत्यु के रूपमें परिहोई । कीर्तिदेवको स्वप्न में भी इस दुर्घटना की आशंका नहीं थी, २६:णको मृतक देख उसके हृदय में भूकंप होगया, उसे अपने कृत्यपा बसा व त्ताप हुना।
२६मण पर श्रीरामको हार्दिक स्नेह था, उन्हें पृथ्वी प पहे देखकर उनके स्नेहका बांब टूट पड़ा, लक्ष्मणजीका शरीर मृतक बन चुका था लेकिन श्रीराम से अबतक जीवित ही समझ रहे थे । ने लक्ष्मणको मूर्छित समझकर अनेक प्रयत्नोंसे उनकी मृझै हटानेका उद्योग करने लगे।
जनता राम लक्ष्मणके स्नेहको समझती थी, वह यह भी जानती थी कि श्री लक्ष्मणका देहावसान हो चुका है लेकिन मोहमम समको कोई समझा नहीं सका . उनके इस मोहमें सबकी सहानुभूति थी, लेकिन सहानुभूतिने अब दयाका रूप धारण कर लिया था। धीरे २ श्रीगमका यह मोह जनत के कौतूहलकी वस्तु बन गया।
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.१४२ | जैन युग-निर्माता। ने २६मणके मृत शरीरको कन्धे पर रखकर घूमते थे। कभी उसे भोजन खिलाते, कभी शृगार कगते और कभी उसे सोने का निष्फल
और शाम्यजनक प्रयत्न करते थे । राज्यकार्य उन्होंने त्याग दिया था। इ.स.हर मन का यह मोहका मंसार चलता रहा, अंमें न में बंधन टूट', उन्होंने अपने भाईग मृतक संक' किया।
- नाटके अनेक दृश्यों को देखते २ श्रीरामका हृदय अब ऊर गा था। राज्य कार्य को भव के वातावरण, ४ र दह अपनको इ. रम्बन, चते थे । उनका निर्मल म त्मापरसे मोहका भावग्ण हट चु। 4. । उन । पात्मा की चा प्रल :ो 2 और एक दि. ......'पुत्रको राज्यभार सोनकर सन्यासी बन गए ।
ॐ सूर्य-२ ३ ६ जिस तरह चमक हैं उसी तरह श्रमिक दिव्य ते. से प्रकाशमान हो उठा। देवताओंको उना इ- निममता पर आश्चर्य होने लगा, उनकी क्षाका तीर छुट चुका था। योगी रामके चारों ओर विलास का वातावरण फैल गया. क.या पंन नाद, धुकरों का गुंजन, पुप्पोकी मत्त सुरभि और बाल, क. मृदु से सारा वन गृज उठः ।
प। समस: म. तो १. ५६ . सात वर्ष भी मा नीता था पक्ष बेक र ५. पोन विजिन हुए, प्रीस के आरत-७ की विजय हुई।
योगी रामके निर्ममत्वकी देवताओंने प्रशंस की महा ! रहस अब महात्मः २.म ही थे।
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[१०]
तपस्वी वालिदेव |
(दृढ प्रतिज्ञ, वीर और योगी । )
(?)
अपने प्रधान मन्त्रीकी ओर
}
प्रवल प्रतापी सम्राट् दशाननने निरीक्षण करते हुए का- मन्त्री ! •हीं। ऐसा कदापि नहीं हो करता | क्या मेर अखण्ड प्रतापसे वह अवगत नहीं ? भर-वर्ष के नको लिचित् नृटिमात्र के बरसे विपिन कर देनेवाले दशाननशरी शकि क्या वः अपरिचित है ? नहीं, यह असत्य संलाप है ।
मंत्रीने का- महाराज ! यह अक्षरशः सत्य है, आपका मंत्रीमंडक कदापि असाच संभाषण नहीं करता, उसे अपने कथनपर पूर्ण विश्वास रहता है। सत्य के अन्तस्तक में प्रवेश करके ही आपके सम्मुख वाक्य उच्चारण किया जाता है । यह अटक सत्य है कि “याकिदेवने
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१४४ ] जैन युग-निर्माता । सुमेरु पर्वत जैसी यह निश्चल प्रतिज्ञा ली है, वह जैनेन्द्रदेव, दिगम्बर ऋषिके अतिरिक्त किसी विश्वके सम्राटको नमस्कार नहीं करेंगे।"
दशाननने कहा-मन्त्री ! तब क्या बालि देवने मुझे नमस्कार करनेकी अनिच्छासे ही ऐसा किया है ? नहीं ! बालिदेवका राज्य मेरे माश्रित है। यह कैसे सम्भव हो सकता है कि वह मुझे प्रणाम न करे और मेरी आज्ञा शिरोध यं न करे ? मंत्री ! प्रयत्न करने पर मी तुम्हारी इस बात पर मुझे विश्वास नहीं होता। ___मंत्री ने कहा-महाराज ! 'कर कंकणको मासीकी क्या भावश्यक्ता ? ' एक दूत भेजकर माप इसका स्वयं निर्णय कर सकते हैं। लंकेशकी मुद्रा से अंकित एक आज्ञापत्र टसी समय वालीदेवके पास राज्य दून द्वारा भेजा गया।
वालिदेव किन्वा नग के अधिाति थे। प्रख्यात कपिवंशमें उनका जन्म हुमा था, वह बड़े पराक्रमी वो। और दृढपतिज्ञ थे। उन्हें यह राज्य दशाननकी कृपासे प्राप्त हुआ था। राज्यसिंहामन पर आसीन होते ही उन्होंने अपने दृह प्रतिक्रमके प्रभावसे भला समयमें ही अनेक विद्याधरों को अपने आश्रित का लिया था । तटस्थ समस्त राजाओं में वह महामण्डलेश्वरके नामसे प्रसिद्ध थे। निकटस्थ राजाओंर उनका अद्भुत प्रभुत्व था। उनकी उन सबपर अनिवार्य माज्ञा चलती थी।
वाली देव धर्मनिष्ठ कर्मठ और विद्वान् थे। जैनधर्म पर उन्हें निश्चल श्रद्धा थी। नित्यकर्म पालनमें वह सतर्कतापूर्वक निरन्तर तत्पर रहते थे।
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१५२] जैन युग-निर्माता । अपने साहस, यहांतक कि मनुष्यताका भी बोध नहीं रहता, क्रमशः वह साधारण श्रेणीसे निकल कर अपनेको एक विशाल उच्च स्थानपर भासीन हुमा समझने लगता है, और अन्तमें वह अपने मिथ्या मदत के सम्मुन्च किसी व्यक्तिको कुछ समझता ही नहीं है। यदि उसे अपनी पनुचित शक्तिके विकासके साधन प्राप्त हो ज ते हैं तब तो उसके अभिमानका ठिकाना ही नहीं रहता किञ्चित्मा वैमक अपूर्ण ज्ञान, शारीरिक बल और प्रभाव प्राप्त कर ही वह मरने परोको पृथ्वीपर रखनेका प्रयत्न नहीं करना ।
लंकेश उस समय सार्वभौमिक स्म्राट् था, वह असंख्य राज्यवैभवका स्वामी था। उसका राजामोपर एकछत्र अधिकार था, वह अनेक उत्तमोत्तम विद्याओं का स्वामी था, अपनी विद्याओंका उसे पूर्णतः पभिमान मा, मश्मिानके लिए और आवश्यक ही क्या है ! सत्ता, नर और निष्पना अभिमान-अनलके लिए पृतकी आहुतिएं हैं। अपने बिमानको आकाशमें अटका हुआ निरंक्षण कर उसने अपनी समस्त विद्याओं का उपयोग करना काम किया, 'अपनी समस्त शक्तिको उसने विमान चलाने में लगा दिया, किन्तु उसका विमान वहाँसे टससे मस नहीं हुआ। मंत्र-की लित पुरुषकी तरह वह उस स्थानपर रमित हो गया । मभिमानी संकेशका हृदय जल उठा। वह विमानसे उतरा । उसने नीचे निरीक्षण किया । वहां उसने जो कुछ देखा उससे उसका हृदय कोष और अभिमानसे धधक उठा । उसने देखा कि नीचे वालिदेव तपश्चरणमें मग्न हुए बैठे हैं। .
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तपस्वी वालिदेव ।
[१५३
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लंकेश ज्ञानवान व्यक्ति था, उसे शास्त्रोंका अच्छा ज्ञान था। वह बानता था कि महत्वशाली ऋद्धि प्राप्त मुनिराजोंके फारसे विमान नहीं जा सकता है। वह मुनियों की शक्ति से अवगत था, किन्तु हायरे अभिमान ! तु मानवोंकी निर्मल ज्ञानदृष्टिको प्रथम ही धुंधला कर देता है। तेरी उपस्थितिमें मनुष्यके हृदयका विवेक विलग होजाता है, और माभिमानी प्रेतको हेयादेयका किञ्चिन भी बोर नहीं रहता । अभिमानकुमित्रकी ममतामें पड़े हुए लकेशके हृदयसे विवेक विलय होगया । वह विचारने लगा
"ओइ ! यह वही वालिदेव है, जिसने मेरा उस समय मान भंग किया था और आज भी मुझे पराजित करने के लिए ही इसने मेरा विमान रोक रक्खा है। अच्छा देखू में इसकी शक्ति ? मैं इस पहाडको ही उखाड़ कर समुद्र में न फैंक दूं तो मेग नाम दशानन नहीं। उस समय इसने समस्त राजाओं के सम्मुख मेरा नो अपमान किया था, उसका बदला माज मैं इससे अवश्य लगा । आज में इसे अपनी अचिन्त्य विद्याओं की शक्ति दिग्बका दंगा।" क्रोध और अभिमानके असीम बेगको धारण करनेवाले दशाननने अपनी विद्या और पराक्रमके बलपर पर्वतके नीचे प्रवेश किया। उसने अपनी समस्त विद्याशक्ति और पराक्रमकी बाजी लगाकर उस पर्वतके उखाड़नेका उद्योग किया।
पोनर वालिदेव ध्यानस्थ थे, तपश्चरणमें मम थे। उनके हृदयमें कुछ भी द्वेष, मभिमान, अथवा क्लुषित भाव न था। उन्होंने देखा कि दशानन एक बड़ा भारी अनर्थ करनेको कटिबद्ध हुआ है। उसके इस प्रकारके उखाइनसे इस पर स्थित भनेक दर्शनीय निनमन्दिर
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१५४ ) जैन युग-निर्माता। नष्टमृष्ट हो जायंगे, तथा असंख्य प्राणियों का प्राणघात होगा, अनेक प्राणियों को मसघ कष्ट होगा और वह भी केवल मात्र मेरे कारण । मुझे अपने कष्टोकी कुछ भी चिन्ता नहीं है। कष्ट मेरा कुछ भी नहीं कर सकते; किन्तु इन क्षुद्र प्राणियों के प्राण निष्प्रयोजन ही पीड़ित हों यह मुझसे कदापि नहीं देखा जा सक्ता । इस प्रकार करुणा भाव धारण कर उन योगिराजने अपने बाएं पैके अंगूठेको किंचिंत नीचे दवाया।
मात्म शक्ति-त्यागकी शक्ति, तपश्चरणकी शक्ति मचिंतनीय है, मनन्त है, साथ है। जो कार्य संपूर्ण पृथ्वी का मधिपति पम्राट इन्द्र तथा नरेशरोंअपनी अखण्ड आज्ञा परिचलित करनेवाला चक्राति बहुत शारीरिक बससे सांसारिक वीरोंको कम्भित कर देनेवाला नखंड बाहु, अनन्त काळमें अगाध उद्योगके द्वारा कर सकनेको समर्थ नहीं हो सकता, वही कार्य और उससे अनंत गुणा अधिक कार्य तपस्वी, मह त्मा, योगी दिगम्बर मुनि अपनी बढ़ी हुई आत्मशक्तिके प्रमाग्से क्षण मात्रमें कर सकता है। असंख्य संपत्ति शालियों की शक्ति, असंख्य राजाओंस सेवित सम्राटकी शक्ति असंख्य वीरोंसे सेवित वीरकी शक्ति उस योगीकी अलौकिक शक्तिके सामने समुद्र में मूंदके समान है।
योगिरानके अंगूठे मात्रके दबानेसे ही अखंड परिभम द्वारा किंचित पाको उठाया हुगा पर्वत पातालकोकमें प्रवेश करने लगा। क्याननका समस्त शरीर संकुचित हो गया, सेपकी धारा बहने लगी, बसनेको पृथ्वीसकर पता हुमा देखकर उसका मुख चिंतासे म्हाना
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NIGAMNIWANWAMAN
तपस्वी वालिदेव । [१५५ हो गया। उसका सारा अभिमान, उसकी सारी शक्ति, उसका समस्त विद्या, बल एक क्षणको कपूरके सदृश हो गया। मभिमानी मानव ! इसी नश्वर वैभवके अभिमानके बल पर, इसी क्षणिक शक्तिके नशेमें, इसी किंचित् विद्या बलके ऊार संसारका तिरस्कार करनेको तुक नाता है। धिकार ! तुम्हारी बुद्धिपर, शतवार धिक्कार है उसके भाभिमान पर । माज वह मभिमान मला फाड़कर रो रहा था। मान उस मभिमानका सर्व नाश हो रहा था ? क्या माज दशाननके उस अभिमान कुमित्रका कहीं पता था ?
___ समस्त मानव मंडळ बढ़ता है और गिरता भी है, अभिमानी और निरभिमानी एक दिन समय पाकर सभी गिरते हैं, किन्तु निरभिमानी व्यक्तिका वास्तवमें पतन नहीं होता। उसे खेद नहीं होगा ! अभिमानी खुब चढ़ता है मानेको धड़ाधा भागे बढ़ाता है, किन्तु समय पाकर वह चारों खाने चित्त गिरता है । उसका मन मर जाता है, उसके खेदका कुछ ठिकाना नहीं रहता, और वह मसमर्थ होजाता है।
दशानन पर्वतके असह्य भारको अपने सिरपर नहीं रख सका वह जो से चिल्लाने लगा। बड़ा भारी कोलाहरू उपस्थित होगया। रोते२ उसका गला भर भाया, बालिदेव दशाननके मार्तनादको प्राण नहीं कर सके, उनका हृदय दयासे भाई होगया । उन्होंने उसी क्षण अपने वैरके अंगूठेको दीका किया, दशानन पर्वतके नीचेसे अपना जीवन सुरक्षित लेकर निकल भाया। सी समय ऋषीराजके तीव तपश्चरणसे उसन हुए बड़ तेजके प्रभावसे देशममोंके नासन भी कंपायमान हो गए।
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१६४) जैन युग-निर्माता । उनकी अंगुली पर झुलते हुए देखा-दर्शकोंके आश्चर्यकी अब सीमा नहीं रही, उन्होंने अपने दांतों के नीचे अंगुली दबाकर इस मुग्घकारी प्रदर्शनको देखा-वे एक क्षणको भात्मविस्मृत होकर सोचने लगेलोह ! इतनी शक्ति ! इतना पराक्रम ! क्या हम लोग जागृतिमें है अथवा स्वनमें ? इस मुकुमार शरीरमें इतनी शक्तिकी कभी कल्पना की जा सकती थी। वास्तवमें इस सारे संसारमें नेमिनाथ अपनी शक्ति में अद्वितीय है।
शक्ति प्रदर्शन समाप्त हुआ। श्रीकृष्णजीको हृदय पर इस शक्ति प्रदर्शनसे गहरी चोट लगी । बहुत प्रयत्न करके रोकने पर भी अपने चेहरे परके निराशाके भावोंको वे नहीं रोक सके । उनका चमकता हुमा चेहरा एक क्षणको मलिन पड़ गया। एक गहरी निराशाकी सां लेकर उन्होंने अपने मनमें कहा-'अब सचमुच ही मेरे राज्यकी कुगल नहीं है। उनके निकट ही खड़े हुन बलभद्रजीने उनको भावनाको समझा। वे बोले-भाई कृष्ण ! आप अपने हृदयकी चिंता त्याग दीजिए, आप जो सोच रहे हैं वह कभी नहीं होगा । कुमार नेमिनाथ तो बालकपनसे ही वैरागी हैं, भला एक वैरागीको राज्यपाटसे क्या मतलब है?
___ बलभद्रजीके संबोधनसे श्रीकृष्णजीके हृदयका भय कुछ कम हुमा। उन्होंने संतोषकी सांस ली और नेमिनाथजी के पति अपना पूर्ववत् प्रेमभाव प्रदर्शित किया ।
समा विसर्जित हुई। श्रीकृष्णजी अपने राज्यमहलकी मोर चले लेकिन राज्य सभाका वह दृश्य उनके नेत्रोंके साम्हने घूम रहा
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[ १६५
था। वे किसी तरह नेमिकुमारको शक्तिहीन बनाने का संकल्प करते हुए राज्यमहल में पहुंचे |
प्रत्येक माता के हृदय में अपने पुत्रसे कुछ भाशाएं रहती हैं । अपने स्नेहका प्रतिफल चाइनेकी अभिलाषा उनके हृदयको निरंतर दी तरंगित किया करती है। उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा होती है पुत्र के विवाद - सुख देखनेकी । पुत्र- वधूके प्रसन्न बदनको देखकर वह अपने हृदयकी संपूर्ण इच्छाएं सफल कर लेना चाहती है इतनेही से उसके हृदयकी साध पूर्ण हो जाती है ।
नेमिकुमार अब यौवन-संपन्न थे । उनका सारा शरीर यौवन के बेगसे भर गया था | उद्दाम यौवनका साम्राज्य पाकर भी काम विकार उनके बालक के समान साल हृदयमें प्रवेश नहीं कर सका था । उनका हृदय गंगाजल की तरह निष्कलंक और वासना रहित था । माता शिवादेवी पुत्रके हृदयको जानती थी, लेकिन पुत्र - वधू पाने की कोमक अभिलाषाका ने त्याग नहीं कर सकती थीं । पुत्र परिणय से होनेवाले आनंदा लोभ उनके हृदयमें था । लेकिन वे अनेक प्रयत्न करने पर भी उनके हृदयमें विवाह की अभिलाषा जागृत नहीं कर सकी थी । लेकिन उनके हृदयकी उत्कट इच्छा अभी मरी नहीं थी, वे प्रयत्नमें थीं । उन्होंने अपने इस प्रयत्न में श्रीकृष्णजीको भी सम्मिलित करना चाहा ।
दयासागर नेमिनाथ ।
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उस दिन मध्याह्नका समय था जब माता शिवादेवीने विवाह मंत्रणा के लिए श्री कृष्णजीको अपने राज्यमहकमें बुलाया। उन्हें योग् शासन पर बिठलाकर स्नेहभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखा, फि! उनके
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१६६] जैन युग-निर्माता । बुलानेका कारण बतलाती हुई वे प्रेमभरे स्वामें श्रीकृष्णजीसे बोलीपुत्र ! तुमसे यह बात अपरिचित नहीं होगी कि कुमार नेमिनाथ अपने विवाह सम्बन्धके लिए किसी तरह भी तैयार नहीं होते, और विवाह के विना फिर मागे कुलकी मर्यादा कैसे स्थिर हेगी ? तुम सम्पूर्ण कलाकुशल हो, तुम्हें मेरे मनकी चिन्ता दूर करना होगी, और किसी प्रकार भी कुमारको विवाह के लिए तैयार करना होगा। ___माता शिवादेवीकी बात सुनकर श्रीकृष्णजी प्रसन्न हुए, वे भी यही चाहते थे। उन्होंने शिवादेवीसे कहा-मा जी । आपने मुझसे अबतक नहीं कहा, नहीं तो यह कार्य कवका सम्पन्न हो जाता। लेकिन अब भी कोई हानि नहीं है, माप अब निश्चित रहिए । कुमार नेमिनाथका विवाह अब होकर ही रहेगा! यह कहकर वे राजमहल लौट आए।
मार्गमें चलते २ उन्होंने सोचा, यह टंक रहा । नेमि कुमारको शक्तिहीन बनाने में अब कुछ समयका ही विलम्ब है। उनकी शक्ति उसी समयतक सुरक्षित है जब तक वे महिलाओं के मोहसे दूर हैं। मनुष्योंकी महान शक्ति और पक्रसका धंश करनेवाली संसारमें यदि कोई शक्ति है तो यह एक मात्र स्त्री शक्ति है । जब तक इनके रूपजालमें कोई व्यक्ति नहीं फंसता तब तक ही वह अपने विवेकको सुरक्षित रख सकता है, लेकिन जहां वह इन विलासिनी तरुणी बालाओं के मधुमय हास्य और मधुर चितवनके साम्हने आता है वहां अपना सब कुछ उनके चरणों पर समर्पित कर देता है। संसारमें यदि मानवी शक्ति किसीके साम्हने पददलित और पराजित होती है तो वह नारीकी रूपशक्ति ही है।
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दयासागर नेमिनाथ । [१६७. जो शूरवीर मत्त हाथियों के गर्वित मस्तकको विदीर्ण करने में समर्थ होते हैं, जो वीर योद्धा विकराल गर्जना करने वाले भयंकर केशर:सिंहसे युद्ध कर लेते हैं, जो विक्रमशःली भयानक युद्ध भूमिमें प्रबल शत्रुके मस्तकको झुका देते हैं. वही वीर योद्धा, वही विक्रमशाली सैनिक वनिता-कटाक्षके साम्इने अग्नेको स्थिर नहीं रख सकते । महान ज्ञानी और ताम्वी उसके मदोन्मत्त यौवनके साम्इने अपना सारा ज्ञान और विवेक खो देते हैं।
कुमार नेमिनाथको अपनी शक्ति का बड़ा महंकार है तब मुझे उनकी इस शक्तिका दमन करने के लिए भी यही करना होगा। उनकी शक्तिके मुकाबलेमें महिला शक्तिको रखना होगा, लेकिन इस कार्यके लिए मुझे महिलाओं को सहायता लेना होगी। अच्छा सच यही होगा। बहुत कुछ सोचने के बाद वे अपनी रानियों के पास पहुंचे और उनसे कुमार नेमिनाथके हृदयमें विवाह संबंधी भावनः भागके लिए कहा।
श्रीकृष्णजीके आदेशानुसार वे सभी सुन्दरी महिलाएं कुमार नेमिनाथको मनोहर बगीच में लेगई बगीचमें एक सुन्दर सरोवर था वहां पर वे श्रीकृष्णजीकी सभी गनिए नेमिकुमारके साथ जल कोड़ा करने लगी। ___जल क्रीड़ा काते हुए उनके हृदयमें अपनी उद्देश्य पूर्तिका ही ध्यान था। इसलिए उन्होंने जल क्रीड़ाके साथ २ कुछ विनोद करना भी प्रारंभ किया। नेमिकुमार विकार रहित सरल भावसे उनके इस विनोदमें भाग लेने लगे।
उन सभी महिलाओं में से एक अत्यंत विनोदिनी महिला उनकी
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१७६ ]
जैन युग-निर्माता |
विवाह के लिए ये इकट्ठे हुए हैं ? यह कैसे हो सकता है, तुम ठीक ठीक और सब सब हाल सुनाओ ।
सारथीने निर्भय होकर कहा - महाराज ! आपके विवाह में शामिल होनेके लिये बहुत से म्लेच्छ राजालोग आए हुए हैं, और उनमें बहुतसे लोग मांस खाने वाले भी हैं ।
नेमिकुमार बोले- सारथी, बोलते जाओ, तुम बीचमें क्यों रुक गये ? सारथी ने कहा- महाराज ! उनके मांस भोजनके लिए ही इन पशुओंको माग शायगा |
नेमिनाथका हृदय भर आया । वे बोले:- सारथी ! यह तुमने क्या कहा ? मेरे विवाह के लिए उन बेबारे गरीब जानवरोंको मारा जायगा ? सारथीने फिर कहा :- महाराज ! हां, इनको माग जायगा । आप दयालु और करुणामय हैं, इसलिए आपको आया हुआ जानकर यह आपसे बिन्ता करने के बहाने चिल्ला रहे हैं ।
नेमिनाथने दयापूर्ण स्वरसे कहा:- ऐ सारथी ! मेरे विवाह के लिए ये गरीब प्राणी मारे जायेंगे, इस लिए यह मुझसे विनती करने आए हैं, सारथी ! क्या यह सब सच हैं ?
साथी बोला :- हां महागज ! श्री कृष्ण महाराजकी ऐसी ही भाज्ञा है, उनके वचनको कोई टाल नहीं सकता ।
नेमिनाथने फिर कहा :- सारथी ! क्या श्री कृष्णजीकी ऐसी ही भाज्ञा है कि मेरे विवाह के लिए यह बेकसूर पशु मारे जांय और उसकी इन आज्ञाको कोई टाल नहीं सकता ?
सारथी बोला- हां महाराज! वह चक्रवर्ती राजा है, उनकी माज्ञा के खिलाफ यहाँ पर कोई आवाज नहीं उठा सकता ।
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दयासागर श्री १००८ नेमिनाथस्वामी । [ पशु पुकारमे वंगग्य, विवाहग्थ वापिम, व गिग्नारगमन । ]
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दयासागर नेमिनाथ । [१७७ नेमिनाथने दयालुतापूर्वक कहा-साम्यो! तुमने यह क्या कहा? उनके विरुद्ध कोई भावाज नहीं उठा सकता ? नहीं, यह गलत है। उठा सक्ता है। पशुओं की यह पुकार उनके खिलाफ भावाज उठ रही है-माममान इस भावाजको सुन रहा है मैं उनकी भावानको सुन रहा हूं। मोड़ो ! इतनी करुणा मई पुकार ! यह रोना ! नहीं मारयी, जब मैं एक मिनट भी नहीं सुन सकता, मेग ग्य उन पशुौके पास ले चलो।
सारथीने कहा:-महागज.......... .
नेमिनाथने माज्ञाके स्वरसे कहा:-॥ थी ! कुछ मत कहो कुछ मत कहो, मेरा मन बेचैन होरहा है, यह रोना यह चिल्लाना यह पुकार । नहीं सुनी जाती। जल्दी रथ ले चलो मुझे उन शुओंके राम पहुंचाया। सारथीने स्थ बढ़ा दिया, कुमार नेमिनाथ वहां पहंचे जहां पावह पशु बंद थे, उनका विलाप सुनकर उनकी मांखों से आंसू बहन लगे विचारे गरीब पशु बिना अपराधके इस तरह बंद पड़े हैं. उनके बच्चे जंगलमें तड़प रहे होंगे। वह सोचते होंगे मेरी मां मानी होगी । वह भूखके मारे सिपक हे होंगे। उन्हें क्या पता होगा कि वह निर्दय मनुष्योंका भोजन बनाया जायगा. नन्हें क्या पता होगा कि मनुष्य इतना ज्ञानवान, मनुष्य ही विचार और विवेकका दावा वनेवाल। यह मनुष्य ही उनके प्राणों का ग्राहक है । ओड ! ११ रब हरण की अर तो देखो-उसके करुणाकी भिक्षासे भरे हुए भाले दीन नेत्र कैसे मेरी जोर देख रहे हैं । अरेरे । इन गरीब जानवरोंने क्या कसूर किया है, उन्होंने किसीका क्या बिगाड़ा है, मो इनकी इम ताह हत्या की
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१७८] . जैन युग-निर्माता। जायगी ? क्या गरीब, बेसूर जानवरों की हत्या करना ही मनुष्यको बहादुरी है ? धन्य है उनकी बहादुरीको । सिंह और बाघको देखकर यह दृा भाग जयेंग और गर ब जीवों की दम पका हत्या करेंगे क्या गराव ही इनका भाषी है ? मैं इन्हें अभी छोड़ देता हूं। ____ कुगा नेमिनाथन बााका दाबाना खोल रिया । सभी जानवर भनी २ जान ले २ मौके पिंजडेसे निकले और नमिकुमारको काशीद दन हुए जल अग्नी २ जगहको चल दिए।
नाम थन का-जा गरीब प्राणियों जाओ, अपने बच्चोंसे मिला . आदरे घनो और व अग्ने जीत को सोत कगे।
मेर विर के कारण तुम्हें इतनी त लीफ महन करना पड़ी, इ-ना दुःख भोगना रहा इसके लिए मुझे माफ करना । गरीच जान. वरों ! हममें मेरा कुछ में +नही है. मुझे तुम्हारी इस मुशीबत का कुछ भी पता नहीं था, ओह ! मनुष्य नाति दूसरों के पों की कुछ भी करत नहीं ममहाती । रियों को इस स्वार्थ के लिए धिक्कार है और उस मत संभारको विक्कर है जिसमें मनुष्य ऐसे निर्दय काम करना है।
साथी मग रथ घरकी ओर ले चलो।
साथी ने कहा- महाराज ! यइ क्यों ? बगतके लोग आ रहे है महाराजा प्रसेन आरके भाकी बाट देख रहे होंगे । नेमिनाथने विक्त होकर कहा- नहीं साम्यो, मे। रथ लौटा दो, मन मैं अपना विवाह नहीं करूंगा, मेरे विवाह के लिए इतनी जीव हिंमा होरही हो मैं नहीं देख सकता। मैं संसारको दयाका उपदेश दूंगा, मैं संसारके
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१८६] जैन युग-निर्माता । यदि वह शुष्क हृदय तुझे नहीं चाहता तो उसे जाने दे, अभी तो भनेक गुणशाली राजकुमार इस भूमंडलपर हैं। कुमारी कन्याके लिए वरकी क्या कमी और फिर तेर जैसी सुन्दरी और गुणशीलाकी इच्छा कौन व्यक्ति नहीं करेगा ? तुझे अब पागल नहीं बनना चाहिए और अपने हृदयमें नए आनंदको भरना चाहिए ।
सखियों के प्रलोभनपूर्ण वाक्य जलसे अग्नको निकालती हुई राजीमती स्थिा होकर बोली-सखिया : तुम आज मुझे यह क्या उपदेश दे रही हो ? मलम पहना है तुम इम समय होशमें नहीं हो । यदि तुम्हे होश होता तो तुम ऐसे शब्दों का प्रयोग मेरे लिए कभी नहीं करतीं। तुम नहीं जाती, यदि सूर्य कभी पश्चिम दिशा में उदित होने लगे और चन्द्र भनी शीतलता त्याग द किन्तु आयकुमारिएं जिस महाप को हृदय वार स्वीकार कर लेती हैं उसके अतिरिक्त फिर किसी पुरुषकी भी आकांक्षा नहीं करती। मैं नेमिकुमारको हृदयस अपना पति स्वीकार कर चुकी हूं, क्या हुआ यदि विवाह वेदोके समक्ष उन्होंने मेरे हाथपर अपना हाथ आरोपित नहीं किया । लेकिन उनका अलुप्त हाथ ती में अपने मस्तक पर रखकर अपनेको महा भाग्यशीला समझ चुकी हूं। क्या हाथपर अपना हाथ रखना ही विवाह है ? मंत्रांक चार अक्षर ही क्या विवाहको जीवन देते हैं ? नहीं, कभी नहीं । हृदय समर्पण ही विवाह है और मैं वह पहिले ही कर चुकी थी। क्या हुआ दुर्भाग्यवश मेरा उनसे संयोग नहीं हो सका । प्रत्यक्षमें व्यवहारिक क्रियाएं नहीं हुई । क्या माता पिता द्वारा कन्यादान करना ही विवाह है ? पार्थिव शरीरदान हीको
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दयासागर नेमिनाथ । [१८७ क्या विवाह करते हैं ? यह तो विवाहका केवल मात्र स्वांग है। विवाह तो हृदयदान है।
मस्त्रियो ! कुमारी कन्या जब किसीको अपना सर्वम् समर्पण कर चुकती है तो उसका अपनी आत्मा, मन और शरीर पर कुछ भी अधिकार नहीं रहना । वह तो इन सबका दान कर चुकी है। उपके पास फिर अपना रहता ही क्या है जो वह दूभरेको दे। जो हृदय एकवार समर्पण कर दिया गया है, जो एकवार किसीको अपना भाग्यविधाता बना चुकी है. वह हृदय फिर दृमरके देने योग्य नहीं रहता।
भारतीय कुमारिकाएं एकदा हो वाण करती हैं और जिसको वे इच्छ पूर्वक वरण का लेनी हैं रमे त्यागका अन्य पुरुषके संगको स्वप्न में भी इच्छा नहीं करती . मैं अपना शरीर कुमार नेमिनाथको समर्पण कर चुकी हूं उनके अतिरिक्त संभा के सभी पुरुष मेरे लिए पिता और भाईको समान है।
आर्यकुमारियों के प्रणको वनकी लकीर समझना चाहिए। अपने प्रणके माम्हने वे अपने जीवनका बलिदान करने में जा नहीं हिचकतीं।
मखियो ! तुम सब मुझसे अपने उन जीवन सर्वम्व नमिकुमारजीसे स्नेह त्यागने की बात क्या कह दी हों। क्या यह भी संभव हो सकता है ? आर्यकुमारियों के साम्हने तुम यह कैसा मादर्श उपस्थित कर रही हों ? मुझे मृत्यु स्वीकार है लेकिन यह कभी स्वीकृत नहीं हो सकता।
मानव-जीवनका कुछ आदर्श हुआ करता है। अपने मादर्शक लिए जीवनका उत्सर्ग कर देना भारतकी महिलामोंने सीखा है, मेरा
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१८८ ) जैन युग-निर्माता। बीबन उस भादर्शकी ओर अग्रसर हो रहा है, ऐसी स्थितिमें यह कभी भी नहीं हो सकता कि मैं अपने हृदय-सर्वस्वके लिए जो अक्षय प्रेमको स्थापित किए हुए हूं उसे विसर्जन कर दें ! जो हृदय नेमिकुमारजीके निर्मल प्रेमसे ओतप्रोत होरहा है उसमें अन्य व्यक्तिके लिए कहीं भी स्थान नहीं हो सकता।
जिन महिलाओंमें आर्यत्व और धर्मत्वका कुछ गौरव नहीं है संभव है वे ऐसा कुछ कर सकें। जिनका लक्ष्य प्राचीन भादर्शकी
ओर नहीं है और जो इन्द्रिय बासना तृप्त तक ही जीवनका रद्देश्य समझती हैं, जो सांसारिक प्रलोभनोंके साम्हने अपने मापको स्थिर नहीं रख सकतीं उनके साम्हने इस मादर्शका भले ही कुछ महत्व व हो लेकिन मेरे साम्हने तो उसका महत्व स्थिर है।
मैं यह स्पष्ट कह चुकी हूं, मेग यह निश्रित मत है कि इस जीवनमें श्री नेमिकुमारजीको ही मैंने अपना पति स्वीकार किया है वही मेरे सर्वस्व हैं. वही मेरे ईश्वर हैं उनके अतिरिक्त किसी व्यक्तिसे मेरे संबन्धकी बात जोड़ना मेरे पातिव्रत धर्मको कलंकित करना है। अबतक मैं बहुत सुन चुकी अब भविष्यमें ऐसे शब्दोंको मैं एक मणके लिए नहीं सुन सकूँगी । मैं सूचित कर देना चाहती कि कोई भी अब मेरे लिए ऐसे शब्दोंका प्रयोग न करें।
धन्य! कुमारी सजीमती! तेरी मलौकिक दृढ़ताको धन्य है ! तेस मात्मत्याग महान् है, तेरा मदर्श भारतीय महिलाओं में अनंतकाल तक बागतिकी ज्योति नगायेगा।
वर्तमान कुमारियोंको महामनी शनीमनी के इस निर्भया बाबीके
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दयासागर नेमिनाय।
शिक्षा लेना चाहिए और उपका अनुकरण करना चाहिए। अपने धार्मिक विचारों और भात्म दृढ़ताको उन्हें अपने माता पिताके साम्हने स्पष्ट रूपसे रख देना चाहिये और अपनी मर्यादाकी रक्षा करना चाहिए । यदि वह उनकी इच्छाके विरुद्ध भयोग्य अथवा मधार्मिक वरसे उनका सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं तो उन्हें इसका स्पष्ट विरोष करना चाहिए । यह याद रखना चाहिए कि अपने ऊपर होनेवाले मनर्थ और अत्याचारके समय मौन रखना उसे उत्तेजना देना है, इस समयकी उनकी लजा हृदय-दौत्यके मतिरिक्त कुछ नहीं है । यदि लज्जाके वश होकर राजीमती मौन रहकर अपने माता पिताकी आज्ञाको मान लेती तो मादर्श नष्ट होने के साथ २ उसका जीवन भी नष्ट हो नाता । अपने सच्चे हृदयकी भावाजको माता पिताके सामने रखना, उन्हें सत्कर्तव्यकी ओर झुकाना और अपने हृदयके निश्चल विचारों का परिचय देना महिमामयी भारतीय कन्याओंका कर्तव्य है ।
राजीमतीके रद निश्चयके भागे किस को कुछ भी कहनेका साहस नहीं हुमा और समी जन मौन रह गए।
नेमिनाथजी रथ कोटाकर राज्य महलको चल दिए। वे वैराम्यके उन्नत शिखर पर चढ़ गए थे। विवाह के कंकणको मोह राजाके प्रबल साथीने और ममत्वका दृढ बंधन समझकर उसे तो उन्होंने तोड़ डाला, सभी वस्त्र उतारकर तपश्चरण करनेके लिए वे ससार वनकी ओर चल दिए । कामदेवका मदमर्दन करनेवाले उन योगी नेमिकुमारने कई वर्षों तक उस जंगलमें रहकर कठोर तपश्चर्या की । तपके बलसे म्होंने पूर्ण समाधिको धारण किया और भात्माकी दिव्य ज्योतिको देखा।
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१९८] जैन युग-निर्माता।
___ महाराजाके संदेशको सुनकर शूरवीरोंके हृदयों में वीरत्वका संचार होने लगा। उनके प्रत्येक अंग जोशसे फड़कने लगे, किन्तु अपराजितकी बढ़ी हुई शक्तिके मागे उनकी वीरताका उबाल हृदयमें ठकर ही ठंडा पड़ गया, उन सबका उत्साह भंग हो गया ।
सामों में से किसी एकका भी साहस नहीं हुआ कि जो वीरत्वका बीड़ा उठाने, वे एक दूसरेका मुख देखते हुए मौन रह गए। इसी समय एक सुन्दर कांतिवाले सुगठित शरीर युवकने राजसभाके मध्यमें उपस्थित होकर उस बीडको ठा लिया। समस्त राज्यसभा पाश्चर्यसे उस साहसी कांतिवाम युवकका मुंह निरीक्षण करनेको अमुक हो उठी, किन्तु यह क्या ! उन्होंने देखा यह तो द्वारिकाके युवराज राजकुमार गजकुमार थे । उनके मुखमण्डलसे उस समय बीरताकी अपूर्व ज्योति प्रकाशित होरही थी ! साहसके अखंड तेजसे चमकता हुआ उनका मुखमण्डल दर्शनीय था। कुमारने बीड़ेको उठाकर अपने वीरत्वको प्रदर्शित करते हुए दृढ़तापूर्वक कहा-" पिताजी !! मापके प्रतापके सामने वह कायर भजित क्या है ! मापके माशी - दिसे मैं एक क्षणमें उसे आपके चाणों के समीप उपस्थित करता हूं। बाप आज्ञा प्रदान कीजिए. देखिए आपकी कृपासे वह अपराजित, पाजित होकर आपके चरणों में कितना शीघ्र पढ़ता है और अपने दुष्कृत्योंके लिए क्षमा याचना करता हुआ नतमस्तक होता है। उसका प्रताप क्षीण होने में अब कोई विडम्ब नहीं है केवल आपकी भाज्ञाकी ही देरी है।"
युवक गजकुमारका ओजस्वी उचर मुनकर सामन्तगणों के मुंह
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तपस्वी गजकुमार |
[ १९९ नीचे हो गए । उनकी दृष्टि गजकुमारके चमकते मुखमण्डलपर मटक गईं। सभी सभासदों के मुंहसे निकली हुई धन्य २ की ध्वनिसे सभामंड] गुञ्ज उठा । महाराजाका हृदय हर्पसे परिपूर्ण होगया । उन्होंने कुमारकी ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा फिर उसके साहसकी परीक्षा करते हुए वे बोले
प्रिय पुत्र ! मैं जानता हूं कि तू वीर और पराक्रमी है, लेकिन तेरी युद्धकला अभी अपरिपक्व है। अपराजित अनेक नरेशका सैन्य बल पाकर प्रचंड बलशाली होगया है । जब अनेक रणविजयी सेनापतियोंके जोश उसके सामने ठंडे हो रहे हैं तब तेरे जैसे बालकका उसके ऊपर विजय प्राप्त करने जाना नितांत हाम्यजनक है । तेरे साहस के लिए धन्यवाद है, किन्तु उसके साथ युद्ध करनेका तेरा विचार करना श्रमजनक है । मैं तुझे युद्धकी इम आगमें नहीं डालना चाहता । मैं खुद ही आक्रमण करके उस घंमडीका सिर नीचा करूंगा !
पिताके शब्दोंको सुनकर कुमार अपने जोशको नहीं रोक सके। उन्होंने तेजपूर्ण स्वर से कहा - पिताजी ! क्या अल्पवयस्क होने से सिंहपुत्रोंका पराक्रम हाथियोंके सामने हीन हो सकता है ? क्या वह क्षीण शरीरधारी तेजस्वी सिंहसुत दीर्घ शरीरधारी गजेन्द्र के मस्तकको विदीर्ण नहीं कर डालता ? क्या आप नहीं जानते हैं कि छोटासा अमिरुण बढे भारी ईंधन के ढ़ेरको एक क्षणमें भस्म कर देता है ? मैं अल्पवयस्क हूं इससे आप मुझे शक्तिद्दीन तथा युद्धकका शून्य समझ रहे हैं, लेकिन आपका ऐसा समझना गलत है । पिताजी ! सिंह - बालकको कोई युद्धकला नहीं सिखलाता, उसमें तो स्वभावतः हाथियों को पछाड -
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२०.] जैन युन-निर्माता। नेकी शक्ति रहती है। मैं इस युद्धमें अवश्य नाऊंगा, मेरे होते हुए भाप युद्धके लिए बाएं यह हो नहीं सकता, दृढ़ता पूर्वक प्रण करता हूं, यदि भान ही उस दुष्ट अपराजितको पार कर भापके चरणों के निकट उपस्थित न कर दं तो में भापका पुत्र नहीं । भाज्ञा दीजिए, मेरा समस्त शरीर उस शक्तिहीन अपराजित नामधारी विद्रोहीका दमन करने के लिए शीघ्रतासे फड़क रहा है।
कुमारके हृदयकी परीक्षा हो चुकी थी, अब उसके वीरता पूर्ण सत्साह सकी प्रशंसा करते हुए महाराज बोले-" वत्स ! मैं तुमपर बहुत खुश हूं, तुम नामो और युद्धकुशल सैनिकोंको अपने साथ ले जाकर उस रद्दण्ड अपराजितको पराजित कर अपनी शक्तिका परिचय दो।"
सैन्य बलसे गर्वित अपराजित उदंड बन गया था, वह बड़ी सेना लेकर महागजा वासुदेवके भाषीन एक नगरपर माक्रमण कानेको अग्रसर होरहा था । इसी समय गजकुमारकी संक्षक्तामें युद्ध करनेके लिये सजी हुई एक बड़ी भारी सैनाके आने की उसे सूचना मिली।
अपराजितने अपनी शक्तिका कुछ भी ध्यान न रखते हुए, गजकुमारकी सेना पर भीषण वेगसे भाक्रमण किया। कुमारकी सेना पहलेसे ही सतर्क थी। उसने अपराजितके माक्रमणको विफल करते हुए प्रचण्ड गतिसे शम चलाना प्रारम्भ किया । कुमारकी सेनाके अचानक माक्रमणसे अपराजितके सैनिक क्षुब्ध होकर पीछे हटने कगे। अपनी सेनाको पीछे हटते देख अपराजितके कोषकी सीमा न रही। वह मागे बढ़कर सेनाको उत्साहित करता हुमा कुमारकी सेना पर ती वेगसे समपात करने लगा। गजकुमारने उसके सामने
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तपस्वी मजकमार। [२०१ अपने तीक्ष्ण पाणों की वर्षासे उसके शस्त्रपहारको विफल कर दिया । भर दोनोंका आपसमें भीषण युद्ध होने लगा। विजयश्रीने कुमास्की
ओर अपना हाथ बढ़ाया, अपराजितका प्रभाव प्रतिक्षण क्षीण होने लगा । एकाएक गजकुमारने अपने शस्त्र प्रहारसे घायल कर उसे नीचे गिरा दिया और उसे अपने मजबूत बंधनमें जकड लिया।
अपराजितको पकड़कर कुमारने महाराज वासुदेवके सामने उपस्थित किया। अपराजितने विनीत होकर उनका स्वामित्व स्वीकार किया और भविष्यमें उनके विरुद्ध सिर न उठानेकी प्रतिज्ञा की। महाराजने उसे क्षमा प्रदान किया और उसका राज्य उसे सौंप दिया।
महारान, अपने पुत्रकी बोग्ता पर अत्यंत मुख थे। उन्होंने उससे इच्छित वर मांगनेको कहा:
राजकुमारने कहा-पिताजी ! यदि सचमुच ही आप मुझपर प्रसन्न है तो मुझे इच्छित वा प्रदान कीजिए। मैं चाहता हूं कि मेरी जो इच्छा हो मैं वही रू, राज्यकी ओरसे उसमें कोई वाषा उपस्थित न को नाय । महारान्ने सोचा कि मन और ऐश्वर्यका उपभोगके पतिरिक्त कुमार और क्या कर सकेगा ! पिताके हृदयमें पुत्रके प्रति कोई शंका नहीं थी । इसलिए उन्होंने प्रसन्न होकर उसे इच्छित वर देदिया।
यौवन, वैभव, अविकता और प्रभुना इनमें से एक भी पतनके लिए पर्याप्त है, किन्तु जहां चारोंका समुदाय हो वहांके मनर्थका क्या कहना?
प्रभुता प्राप्त होनेपर युवक रामपुत्र पजकुमार अपने यौबनके
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तपस्वी मममा.
MARATIOmERammanawwareneKITHAINA RARYAmarnam
वह मुझे तीव्र प्रलोभनोंकी मदिरा पिलाकर मनाचारके क्षेत्रमें स्वतंत्रता पूर्वक नाव नवा कर अपने सर्व पतनकी ओर तीव्र गतिसे MAR करा रहा था। मैं उसका गुलाम बमा हुमा अपनी मामलताको बिलकुल भूल गया था। ओह ! मेरी मात्माका इतना घोर पतन ! नहीं ! अब नहीं होगा। मैं मदनके साम्राज्पको इसी समय नष्ट भ्रष्ट करूंगा। इसकी प्रभुता और इसके गर्वको चूर चूर कर दूंगा। बह उठा, उसने उठकर भगवान्के दिव्य चाणों पर अपने मस्तकको डाल दिया, और गद्गद् कंठसे बोला-भगवन् ! मैं महा पतित हूं, मैंने सांसारिक विलास पासनामें अपना जीवन गंवाकर नष्ट कर डाला है। इतना ही नहीं मैंने उन पाप कृत्योंके पीछे कमर बांध ली थी जिनके कटु फलों का स्मरण कर मेरा हृदय कार ठठना है । प्रभो ! भाप भक्तस्मल है, दयासागर हैं, मेरा मल धोनेके लिये भाप ही समर्थ है। मुझ पर दया कीजिए और मेरे जैसे पतितको अपनी शरण में लेकर रक्षा कीजिए, भाप मेरे आत्म सुधारका मार्ग प्रदर्शित कीजिए।
दयावत्सल भगवान् नेमिनाथनं गजकुमारके पश्चात्ताप पूर्ण हृदयका करुण क्रन्दन मुना, वे बोले-"कुमार! तूने पापोंके लिए सीव पश्चात्तार कर उनके क्टु फलों को बहुत कुछ कम कर लिया है। पूर्ण पाप फलको कम करने, उन्हें नष्ट करने और अन्तःकरणको सुधारने के लिए प्रायश्चित्तके अतिरिक्त कोई उत्तम उपाय नहीं है । जिस तरह तेन भांच पाकर मैल जल जाता है उसी तरह पश्चात्तापकी तीव जलनसे कठिनसे कठिन पायोंका का नष्ट होनाता है, लेकिन प्रायश्चित हृदयसे होना चाहिए। पाप कृत्यों के लिए हृदय में पूर्ण हानि होना चाहिए । कुमार! तू माने
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२१०] जैन युग-निर्माता। किर हुए भयानक पाप फरसे शीघ्र ही सावधान होगया, यह तेरा शुभोदय समझना चाहिए । अब तेरा भात्मकल्याण होने में कुछ समयका ही विलम्ब है। तृ अपनी यात्माको अब अधिक खेदित मत कर, आत्मामें अनन्त शक्तियां हैं, उसी मात्म-शक्तिके पकाश मय पथ प! चलकर तू अपना कल्याण कर ।
____ भक्तवत्सल नेमिनाथकी दगपूर्ण वाणीसे युवक गजकुमारको बहुत संतोष मिला। वह प्रसन्न होकर बोला-भगवन् ! आपकी मुझ पापात्मा पर यदि इतनी अनुकम्मा है तो मुझे महावतोंकी दीक्षा दीजिए, जिनसे मैं अपना जीवन सफल कर सकूँ।
___ भगवान ने उसे दया करके साधु दीक्षा प्रदान की । कामतृष्णा में लिप्त हुमा मदोन्मत्त युवक गजकुमार नेमिनाथकी पवित्र शरण में आकर एक क्षणमें कल्याणके महाक्षेत्रमें उतर पड़ा। उसका पाप पंक धुल गया, वह दीक्षा लेकर भयानक वनमें तीव्र तपश्वरम करने लगा।
__प्रति हिंसा ! बदला ! आह बदला कितनी भयंकर अमि है। इंधनके अभाव होनेपर ममि शांत हो जाती है । किन्तु प्रतिहिंसा अनि ओह ! वह निरन्तर हृदयमें तीव्र गतिसे प्रज्वलित होती रहती है और प्रतिमण बढ़ती हुई अपने प्रतिद्वंदीके सर्व नाशकी वाट देखती रहती है। - अपमानने पांमुल सेठके हृदयमें तीव्र स्थान कर लिया था। वैभवका नष्ट होना मानव किसी तरह सहन कर लेता है,
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तपस्त्री गजकुमार । [२११ कठिनसे कठिन आपत्तियों के सामने भी वह अपना हृदय कठोर चना लेता है, महायुद्ध में हंसते हुए अपने प्राणों को न्यौछावर करने में नहीं हिचकता, किंतु अपमान ! अपना थोड़ा भी अपमान वह सहन नहीं कर सकता । अरमान ओह ! अपमानकी गुम चोट बही भयंकर होती है। वह हृदयमें एक ऐमा घाव र देनी है जो कभी नहीं भरता, घवकी वेदनामे उसका हृदय प्रदा ही पाकुल होता रहता है। कठिन इ.साका घाव शीघ्र ही भा जाना है। धन वैभव किसे मिल जाता है किन्तु अपमानका गला लिप विना कभी किसी प्रकार शांत नहीं होता।
इंड युवक गजकुमार द्वग अग्नी पत्नी के अपमान की बात पांमुल अभीतक नहीं भूला था, उसकी वह घाव आज तक उसी तरह हरा भरा था । ज्याधिकार का प्रभाव और गजपुत्र की शक्ति के कारण वह उस समय अपनी पत्नी के सतीत्व दणके बदलेको नहीं चुका सका था। किन्तु जब कभी उमका मरण हो आता था, तब क्रोधसे उसका मुख मण्डल रक्तवर्ण हो जाता था। माग शरीर कांपने लगता और वह साक्षात यमराजकी तरह प्रतीत होता था, किन्तु अपनी हीन शक्तिको विचार कर उसका कोषावेश भंग हो जाता था।
आज अनायास ही वह बना घृमहा था. घूमने हुए उपकी दृष्टि 'ध्यानमें मग्न हुए गजकुमार मुनिके नग्न शरीर पर जा पही-उपकी प्रतिहिंसाकी अग्नि भड़क-ठी । गजकुमारको ध्यानमग्न देखकर क्रोधको सुलगती माग धधक रठी । वह दांतोंको मिसमिसाता हुआ क्रोषपूर्ण स्वरसे बोग-" मायावी ! पूर्ण ! मान इस तरह तपश्चरका ढोंग रचे
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२१८] जैन युग-निर्माता।
वसंतसेनाकी अट्टालिका ही उसका निवास स्थान बन गई । पिताके द्वारा उपार्जित अपरिमित धनसे वसंतसेनाका घर भरा जाने लगा।
___ उसकी पतिपामा पत्नी कितनी रोई, उसने कितनी प्रार्थनाएं की लेकिन चारुदत्तके कामुक हृदयने उनको टुकरा दिया, माता सुमद्रा भाज अपने किए पर पछता रही थी। उसने प्रयत्न किया था, अपने प्रिय पुत्रको गृहजीवनमें फंसानका, लेकिन परिणाम विपरीत ही निकला। वह गृह-जालमें न फंपकर वेश्याके जाल में फंस गया । चारुदत्तके जीवनके सुनहरे बारह वर्ष वेश्याके अरुण अधरोंपर लुट गए । उसका धन वेश्याके यौवनपर लुट गया। भाज अब वह धनहीन था, उसकी पत्न के मंच हुए आभूषण भी प्रेमिकाके अघर मधु पर बिक चुके थे।
कलिंगसेनाने आज बारह वर्षके बाद अपनी पुत्रीको शिक्षा दी थी। वह बोली-वसंत ! अब तेरा यह बसंत तो पतझड़ बन गया, अब इस सूग्वे मरुस्थलसे क्या आशा है ? अब तो यह निर्धन और कंगाल होगया है, अब तुझे अपने प्रेमका प्याला इसके मुंइसे हटाना होगा, अब तुझे किसी अन्य वैभवशालीकी शरण लेनी होगी।
वसंतसेनाका माथा आज ठनका था, ६ कलिंगसेनाका जाल समझ गई थी, वसंतसेनाको चारुदत्तसे अकृत्रिम स्नेह होगया, वह उसके वैवव पर नहीं किन्तु गुणोंपर अपने यौवनका उन्माद न्योछावर कर चुकी थी। सालहृदय चारुदत्तको वह घोखा नहीं देना चाहती थी। उसने कांपते हृदयसे कहा-मां मेरे प्रेमके संबंधमें तुझे कुछ. कहनेका अधिकार नहीं है। चारुदत्त मेरा प्रेमी नहीं किन्तु पति है।
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पवित्र हृदय चारुदत्त ।
[२१९
बेश्या होकर भी मैंने उसे पति रूपमें प्रःण किया । उसका हृदय महान है। उसने अपना अपरिमित द्रव्य मेरे यौवन पर नहीं किन्तु निष्कपट प्रेमपर कुर्धान किया, मैं उसके प्रेमसे लइराती लतिकाको नहीं तोड़ सकती।
मांने कहा- वसंत : वेश्याकी पुत्री के लिए पति और प्रेमके शब्दोंको केवल प्रपंचताके लिए ही अपने मुंहपर लाना होता है, वास्तव में न तो उसे किसीसे प्रेम होता है और न कोई उसका पति होता है। वेश्या-पुत्री होकर यह अनहोनी बात तेरे मुंहसे आज कैसे निकल रही है ? प्रिय वसंत ! हमारा कार्य ही ऐसा है जिस विधिने पैसा पाने के लिए बनाया है, प्रेमके लिए नहीं। यदि हम एकसे इस तरह प्रेम करें तो हमारा जीवन निर्वाह ही नहीं होसकता। मैं तुझसे कहे देती हूं, अब अपने द्वार पर चारुदत्तका आना में नहीं देख सकूगी।"
वसंतसेनाने यह सब सुना था लेकिन उसका हृदय तो चारुदत्तके प्रेमपर बिक चुका था, वह उन्हें इस जीवनमें धोखा नहीं दे सकती थीं, जो कुछ वह कर नहीं सकती थी उसे कैसे करती ? जिसके चरणों के निकट बैठकर उसने प्रेमका निश्छल संगीत सुना था, जिसके हृदयपर उसने अपने हृदयको न्योछावर किया था, जिसके मकपट नेत्रोंका आलोक उसने अपने अरुण नेत्रों में झलकाया था, जो सरल स्मृतियां उसके अन्तस्थलपर चित्रित होचुकी थीं उन्हें वे कैसे भुला सकती थी ? बस प्रेम दानके अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर सकी।
चारुदत्त अब भी उसी ताह आता था और जाता था। यद्यपि वह निर्धन हो चुका था पान्तु वसंतसेनाके प्रेमका द्वार उसके लिए भान भी उसी तरह खुला था ।
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२२.]
जैन कुन-निर्माता।
कलिंगसेना मधिक समय तक यह सब न देख सकी, एक रात्रिको जब चारुदत्त, बसंतसेनाके. साथ गाढ़ निद्रामें सो रहा था, उसने अपने सेवकों के द्वारा उसे ठयाकर घर भेज दिया ।
चारुदत्तके उन्मादका नशा आज प्रथम दिन ही टूटा था, भाज उसकी पत्नीने उसके नेत्रों में एक अनोखी ज्योति देखी थीं। उसने मी नेत्र भरकर भाज अग्नी पत्नी के सौन्दर्यका अवलोकन किया था। दोनोंके नेत्र एक विचित्र द्विविधासे भरे हुए थे।
च रूदत्त के हृदय १५ वसंतसेनाके प्रेमका आकर्षण अभी था लेकिन उसको निधनताने उसे लजित कर दिया था। माज अपना अपार द्रव्य खोकर उमने द्रव्य के मूल्यको समझा था ।
दुखी माता और पत्नी ने निर्धनतासे संतापित चारुदत्त के हृदयको म्नेहाससे मिंचन किया । उसे भानी कंगाली स्वट की, द्रव्योपार्जनकी चिंताने उसके सोये मनको भाव जमा दिया था।
पत्नी के पास छिपे हुए गुप्त धनको लेकर उसने व्यापारकी दिशामें प्रवेश किया । उमने द्रव्य कमानेमें अपना मन और शरीर दोनोंको व्यस्त कर लिया था, लेकिन दुर्भाग्यने उसका पीडा नहीं छोड़ा था। लाभकी इच्छासे उसने व्यापार किया , लेकिन उसमें वह अपना बचा हुआ सारा धन खो बैठा।
चारुदत्त द्रव्य कमानेके लिये स हो गया था। अपने पौस और साहसकी बाजी पनके लिये लमा देना भता था। बने जीवनको भी वह पक्के पीछे खरे बस देना , उसने ऐसा किया भी।
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पवित्र हृदय बारुदस ।
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धन कमाने के लिए अपने कुछ साथियों के साथ वह रत्नद्वीपको चल दिया । मार्ग में जाते हुए उसे तथा उसके साथियों को लुटेरों ने लूट लिया था। चारुदत्त के पास धन नहीं था इसलिए वे उसे अपने साथ पकड़ कर ले गए । वे उसका देवो पर बलिदान कर देना चाहते थे, लेकिन उनके सरदारको उसकी युवावस्था और सुन्दरता पर तरस आ गया, उन्होंने उसे एक भयानक जंगलमें छोड़ दिया ।
जंगलमें उसे एक जटाजूट तपस्वी के दर्शन हुए | तपस्वीने उसे अपनी मोहक बातोंके जाल में फंमाना प्रारम्भ किया । बइ बोलायुवक ! मालूम पड़ता है, तुम घनकी लालसा से ही जंगलों में पर्यटन कर रहे हो, मैं तुम्हें इस चिंनासे अभी मुक्त किए देता हूं देखो ! इस जंगलमें एक बावड़ी है जिसमें रसायन भरा हुआ है 1 उस रसायनको प्राप्त कर लेनेपर तुम चाहे जितना स्वर्ण उपसे तैयार कर सकते हो, लेकिन तुम्हें इसके लिए थोड़ा साहस और दृढ़ता से कार्य लेना होगा, मैं तुम्हें एक रस्सेसे बांधकर उस वापी में छोड़ दूंगा और तुम्हें एक तुंबी दूंगा, पहले एक तूंबी रसायन तुम्हें मुझे लाकर देना होगी इसके बाद तो वैभवका दरवाजा तुम्हारे लिये खुला दी है, तुम चाहे जितना रसायन अपने लिए ला सकते हो
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द्रव्योपासक सरल - हृदय चारुदत्त तपस्वीकी मीठी बातों में आ गया, उसने ब्यानी स्वीकृति दे दी । तापसीके अब पौवारह थे । वह बारुदको वापीके निकट ले गया और उसके गले में रस्सी बांधकर हाथमें एक तंबी देकर उसे वापीमें उतार दिया |
बाफी बहुत गहरी थी, उसमें काफी अंधेरा भी था, नीचे
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. २२२]
जन युग-निर्माता।
का उसने ज्योंही तुंबीको वापी में रस भरने के लिए डाला उसे किसी व्यक्तिके कराहने की आवाज सुनाई दी, भयसे उसके होश गुम होगए। वापी में पड़े व्यक्तने बड़े धैयसे हाथ हिलाया, वह धीमे स्वरमें बोलाअभागे पथिक ! तू कौन है. तेरा दुर्भाग्य तुझे यहां खींचकर लाया है। मैं तेरा हितचिंतक हूं, तूंची ले जानेके पहिले तू मेरी बात सुनले, इससे ते करप ण होगा।
चारुदत्त वापी में पड़े व्यक्ति की बात ध्यानसे मुनने लगा । वह बोला-यह तम्बी बढ़ा दुष्ट है । इसने मुझे तेरी तरह रसायनका लोम देकर इस वापी में पटका है । एकवार मैंने उसकी तूंवी भाकर उसे दे दी. लेकिन दुमरीवार जब मैं रसायन लेकर रसेसे ऊपर चढ़ रहा था इस निदयने रम्सको बीच में से काट दिया जिससे मैं इस वापी में पड़ा सड़कर अपने जीवनकी घड़ियां व्यतीत कर रहा हूं. अब मेरी मृत्युमें कुछ समय ही शेष है इसलिए मैं तुझे चेतावनी देना हूं तु इस दुष्ट के जालसं शीघ्र निकलने का प्रयत्न कर ।
चारुदत्तकी बुद्धि कृन कर गई थी, वह अपने छुटकारेके लिए कुछ भी नहीं सोच पाता था। उम्ने करुण होकर अपरिचित व्यक्तिसे ही इस मृत्यु-मुग्वसे निकलने का मार्ग पूछा
अपरिचिन ने कहा- चारुदत्त ! तुझे अब यह करना होगा, तू इस तुम्बीको लेकर उस दुष्ट तपम्वोको दे दे और दृ-री बार जब वह तेरे पकानेको सम्सी डालेगा तब उसमें इस बड़े पत्याको जो मैं तुझे दे रहा हूं बांध देना और तू इस वापीकी उस सीढ़ी पर जो कुछ र दिख रही है उस पर बैठ जाना, तुझे बंधा देखकर वह दुष्ट
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वित्रप हृदय चारुदत्त ।
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तास रस्सा काट दे।। और तेरी जगह यह पत्थर वापी में गिर जायगा ! इसके बाद मैं तुझे वापी से निकलनका उपाय बतलाऊंगा। अब अधिक समय नहीं है, कहीं वह दुष्ट अपनी इस बातको सुन लेगा तो तेरे प्राण बचाना कठिन हो जायगा ।
चारुदत्तने तुम्बी इससे भर कर ऊपर पहुंचा दी, तापसी तुम्बी लेकर प्रसन्न हुआ । दूपरी वार चारुदत्त ने अपने स्थ न पर पत्थर कांच दिया, तामसीने उमे बो चसे ही काट दिया । पत्था वावही में गिग और च रुदत्त के प्राण बन गए।
चारुदत्त अपने प्राणों को सुरक्षिन देख पपन्न हुआ, उमने वापी में पड़े व्यक्तिसे बाहिर निकलने का मार्ग पूछा, अपरं चिकने कहा-संध्या समय इस वापीका २स पनेके लिए एक बहा गोद माना है, भाज संध्याको भी वह आया । तुम उपकी पूछ रह का इम वा विकासे निकल जाना, भय मत काना, पृछ मरबूनीसे पक रहना, गोरकी कृगसे तुम वापसे बाहिर निकल जाओगे।
___ अपरिचित व्यक्तिके उपकारको चारुदत्त नहीं भूल सका, वह उसकी सहायता काना चाहता था, लेकिन मारि चन अब मृत्युके सन्निकट था, प्रयत्न करके भी वह उसे वाहिर न निकाल सकता था, उसने नमोकार मंत्र जाप करने के लिए दिया और उसका महत्व समझाया।
गोहकी कृपासे वह अब वापीक बाहिर था, लेकिन इस भयानक जंगलमें अपना कुछ कर्तव्य नहीं सोच सकता था। संध्या समय हो गया था, वह तापसीकी दृष्टि से बचना चाहता था, इसलिए वह जंगल में एक ओर बढ़ चला।
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२२८]
जैन युग-निर्माता। वह मरी नहीं थी, उसके प्राण अभी शेष थे। कलिंगको यह सब मालुम हो चुका था, इसने भय और उशतकी आशंकासे उसे एक कोठरी में बन्द कर दिया। ___ वसंतसेना उस कोटरी में बन्द रहते हुए बाहाके लोगोंकी बावाज सुनती थी, उसे यह निश्चित रूपसे मालूम हो गया था कि मेरा प्रियतम चारुदत्त मेरे वपके अपराधमें पकड़ा गया है, उसे यह भी पता लग गया था कि राजा द्वारा आज उसे फांसीका दण्ड दिया जायगा । उसके प्राण अपने प्रियतमको बचाने के लिये तड़फड़ा उठे, परन्तु अपनी असहाय अवस्थाको देखकर उसका आत्मा विफल हो रहा था । अंतमें एक उपाय उसे सूझा । कोठरोके ऊपर एक खिड़की थी, वह किसी तरह उस स्थानपर पहुंची। अब उसने चिल्लाना पारम्भ किया, उसकी चिल्लाइट सुनकर एक व्यक्ति उसके निकट आया।
वसंतसेनाके गलेमें एक हार अब भी था । उसने उस हारका लालच देकर उम व्यक्तिसे द्वार खोलने को कहा । वह अपने प्रयत्नमें सफल हुई, कोठरीका द्वार खुला था।
वसंतसेना अशक्त थी। न्यायद्वार तक ज ने की शक्ति उसमें नहीं थी। लेकिन आज न जाने किसी दैवी शक्तिने उसके अंदर वेवेश किया था। आज तो यदि उसे सात समुद्र पार करना हो तो यह पार कर जाती ऐसी शक्तिका भावाहन उसने अपने में किया था।
चारुदत्तको वसंतसेनाके वधके अपराधमें प्राण दंड दिया जा चुका था । बधिक उसे वध स्थलपर ले जा चुके थे । दर्शकके रूपमें चंपापुरकी समग्र जनता उसके चारों ओर चित्र लिखितसी खड़ी थी।
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पवित्र-हृदय चारुदत्त। [२२९ पत्नी और माता शोक समुद्र में गोते लग रही थी। फांसीका फंदा गले में अब पहा, कि तर निर्दय-हृदय बधिक चारुदत्तके प्राणों को कुछ क्षणका विश्राम ही दे रहे थे। इसी बीच बहुत दृरसे हांफनी चिलाती हुई वसंतसेना दर्शकोंको दिखी । वह सब दर्शकोंके बिलकुल निकट मा गई थी। बोलनेकी शक्ति उसमें नहीं थी, उसने बधिकोंको हाथके इशारेसे आगे बदनको रोकते हुए एक क्षणके लिए गहरी सांस ली । फिर उसने बधिकोसे आज्ञाके स्वरमें कहा
वधिक ! श्रेष्ठी चारुदत्तके बंधन खोल दो-वह अपराधी नहीं है। मैं बतलाऊंगी अपराधी कौन है। मुझे राजाके साम्हने ले चलो।
चारों ओरसे वर्षकी ध्वनि स्टी । राजाको यह सब मालम हुआ। वह शीघ्र ही वध स्थलपर आया, वसंतसेनाने कलिंगदत्तको अपने प्राण बधका अपराधी सिद्ध किया । चारुदत्त निर्दोष साबित होकर छोड़ दिया गया।
वसंतसेना अब चारुदत्तके कुटुम्ब में सम्मिलित हो गई थी। चारुदत्तकी पत्नी ने अपने हृदयके उच्चतम स्थानमें जगह दी थी। वह उसे अपने प्राणों से अधिक प्रिय समझने लगी थी, उसके हृदयका द्वेष धुल गया था, पतिके सिंहासन पर दोनोंका भासन था। किसीको इससे द्वेष नहीं था, अनुताप नहीं थ', माताने अपने प्रेमका प्रसाद दोनोंमें पुत्रवधुओंकी भावना के रूपर्म बांटा था।
बसंतसेनाका स्नेह चारुदत्त पर अब चौगुना बढ़ गया था, लेकिन वह स्नेह वासनाका नहीं था, उसमें कोई कामना नहीं थी,
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(१४)
आत्मजयी पार्श्वनाथ । (महान् धर्मप्रचारक जैन तीर्थंकर )
पार्श्वकुमार माज प्रातःकाळ ही भ्रमण करके अपने साथियों सहित वापिस लौटे थे। रास्तेमें उन्होंने जटा बढ़ाए और लंगोटी पहिने हुए एक साधुको देखा वह अपनी धूनिके लिए एक बड़े भारी लकको फाड़ रहा था। एक ओर उसकी धून मुलग रही थी। उसकी नटाएं पैरों तक कटक रही थीं। तमाम शरीरमें धूल लगी हुई मी । एक रंगी हुई लंगोटी उसके शरीर पर थी, पास ही मृग छाला और चिमटा पड़ा हुमा था। देखनेसे वह घमंटी मालूम पड़ता था।
पार्श्वकुमार उस तपस्वी के सामनेसे निकले, उसने अपने सामनेसे निकलते हुए देखकर उन्हें बुलाया और बड़े घमंडके साथ बोलाक्योजी ! तुम बड़े मंडी मोर दुर्षिनीत मालम पड़ते हो।
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श्री पाश्वनाथको पूर्व वरीका उपसर्ग व धर्णन्द्र नथा पद्मावती देवी द्वारा उपसर्ग निवारण ।
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आत्मजयी पार्श्वनाथ। [२३३ कुमारने सरकतासे कहा:-कहिए। मैंने भापका क्या अपमान किया है।
तपस्वी नरा जोग्से बोला-देखो, मैं तुमसे बड़ा इं, तपस्वी ई इसलिये तुम्हें मुझे नमस्कार करना चाहिए था ।
कुमार न्न होकर बोले:-बाबा खाली भेष देखकर ही मैं किसीको नमस्कार नहीं करता, गुण देखकर करता हूं।
तपस्वी कोधित म्बरसे बोला:-क्योंजी, क्या मुझमें गुण नहीं है ? देखो ! मैं रातदिन कठिन तप करता हूं और बड़ी२ तकलीफोंको सहता हूं। मैं बड़ा तपम्वी और महात्मा हूं।
कुमारने फिर कहा: अज्ञानतासे अपने शरीरको अपने माप दुःख पहुंचाना तप नहीं कहलाता । बड़ी तकलीफें सहन कर लेना भी तप नहीं है। गरीब और निधन लोग तो हमेशा ही कठिनमे कठिन तकलीफें सहन करते हैं। जानवा भी हमेशा सादी गरमी और भूख प्यासको सहते हैं लेकिन वह नर नहीं कहलाता । यह तो मत्म हत्या है।
तापसका क्रोध और भी बढ़ गया। वह बोला-देखो, मैं भागके सामने बैठा हुआ कितना कठिन योग साधन करता हूं।
कुमार सी तरह फि। बोले:-अ गके सामने बैठना ही तप नहीं है। इसमें तो अनेक जीवोंकी हिंसा ही होती है। बागजी, ज्ञानके विना योग साधन नहीं हो सकता, यह तो केवल ढोंग है।
तापस अपने कोषको नहीं रोक सका । वह बोला:-ऐं ! क्या कहा ? मैं योगी नहीं हूं यह सब मेरा ढोंग है ! भागमें नीबकी हिंग होती है ! भरे ! तू क्या कह रहा है, मैं चुपचाप तेरी सब बातें सुन
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२४०] जैन युग-निर्माता।
मुदर्शन-नगरके प्रसिद्ध श्रेष्ठो सागादत्तका सुपुत्र था। वह युवा हो चुका था। लेकिन उसका विरक्त मन विवाहकी ओर अभी तक माकर्षित नहीं हुआ था। माताने उसकी शादीके लिए अनेक प्रयत्न किए थे कई सुन्दर कन्याओंको वह निर्वाचन क्षेत्रमें का चुकी थी। लेकिन सुदर्शनके मनपर कोई भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकी थीं। उसका मन विषय विरक्त अबोध बालककी ही तरहका था । ___मित्र उसे अपनी विनोद मंडलीमें लेजाते थे लेकिन मौनके अतिरिक्त उन्हें सुदर्शनसे कुछ नहीं मिलता था। वे उसकी इस नीरसतासे चिंतित थे। लेकिन उनका कोई प्रयत्न सफल नहीं होता था। माज उसके मित्रने उसे चितित देखा था। सुदर्शनकी भावभंगीसे वह उसके हृद्गत विचारों को समझ गया था। उसकी इस बेवसी पर प्रसन्न : बट अपने मनमें बोला- मालुम होगया, आज यह महात्मा किसी सुन्दरी के रूप जाल में फंस गये हैं । मदनदेवका जादू माज इनपर चल गया है इसीलिए आज यह किसी रमणीके रूपके उपासक बने बैठे हैं। मैं तो यह सोच ही रहा था, रमणीके कुटिल कटाक्षके सामने इनका ज्ञान और विवेक अधिक दिन तक स्थिर नहीं रहे सकेगा। भाज वह सब प्रत्यक्ष दिख रहा है। वह सदर्शनके हृदयको टटोलते हुए बोला-मित्र ! भान आप इस प्रकार वितित क्यों होहे है ! क्या आपके पूजा पाटमें भाज कोई अंतराय
आगया है ! अथवा आपके स्वाध्यायमें कोई उपसर्ग उपस्थित होगया है ? बतलाइए आपके सिपर यह चिंता का भूत क्यों सवार है !
सुदर्शन मानो किसी स्वप्नको देखते हुए नाग उठा हो बोला-..
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शीलवती सुदर्शन। [२५१ ओह ! मित्र भाप हैं ! कुछ नहीं, माब में बैठा बैठा कुछ यूं ही विचार कर रहा था।
मित्र उसके मनकी भावनाओंको कुरेदता हुआ भागे बोलानहीं, मालूम होता है माज भापके भोजनमें अवश्य ही काई समक्ष पदार्थ बागवा होगा । अथवा मापके साम्हने किसीने मणी पुगण भारम्भ कर दिया होगा सीसे पापका हरय........।
सुदर्शन अपने हृदयके वैगको स्थिर कर मित्रको आगे बढ़नेसे रोकता हुआ वोडा-" नहीं मित्र ! भाप इतनी भाषिक क्लानाएँ क्यों कर रहे हैं ? भाज ऐसी कोई बात नहीं हुई है, मैं पूर्ण बाथ हूं, बाप मुझे पान इस तरह क्यों बना रहे हैं!
मित्रने हंसी का फबाग छोड़ते हुए कहा-वाह मित्र ! खूब रहे उलटे चोर कोतवालको डांटे! आपने खूब कहा, मैं भापको बना रहा हूं या माप अपने मन का हाल छिग कर मुझे अंटसंट उत्तर देकर बना रहे हैं। लेकिन यह याद रखिए जाननेवालोंसे आप मनका हाल नहीं छिश सकते, छिनेकी आप कितनी ही कोशिश कीजिए सब बेकार होंगी, आपकी बखेिं तो माफ साफ उत्तर दे रही है कि भाज भाप किसी खास तरह की चिंतामें ग्रस्त हैं।
सुदर्शन कच्चा खिलाड़ी था। उसने प्रेमकी चौरहका पासा फेंकनेको अभी उठाया ही था । वह अपने मनकी उमड़ती भावनाओं को दगा नहीं सका। वह खुल कर बोला-मित्र ! सचमुच भाप मेरी अवस्थाको मान गए है, क्या करूं मनका मेद काल छिगने पर भी
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२४२] जैन युग-निर्माता । स्पष्ट हो ही जाता है, . ! आज मैंन जसे उस सुन्दरो रमणीको देखा है तमोसे ........ ...
fi, मैं समझ गया . मित्रन बीचमें रोकते हुए कहातभीसे भापका संहासे पूण विक्ति होगई है। भापका मन घृणासे भर गया है ! म कि सो रमणीका मुंह भी नहीं देखना चाहेंगे।"
नहीं मित्र ! आप तो मुझे अपने मना हाल ही नहीं कहने दते, सुदर्शनने पही श घतासे पहा-“मुनिए, तभीसे मेरा हृदय किसी गुप्त देवनास तदा रहा है। "
मित्र, अभी इस विनोदमें और ग्स लेना चाहता था । आश्चर्य प्रकट करता बोल!-- ऐ मित्र ! वेदना ! और हृदयमें ? क्यों ? क्या उसने माप पर कुछ माघात किया है. भाप जैसे सरल और सज्जन व्यक्तिके हृदय पर ! तब तो वह भश्य ही कोई पाषाण-हृदया होगी। देखें, कोई विशेष चोट तो नही आई है?
सुदर्शनका हृदय अब अधीर हो टठा । वह बोला-"मित्रवर ! अब आप अधिक विनोदको स्थान मत दीजिए। मेरी वेदनाको अधिक मत भड़काइए, सचमुच ही मैं उसी समयसे उसकी मोहनी मूर्ति पर आकर्षित हो गया हूं।"
ओह ! मित्र ! क्या कहा ? आप मुग्व होगए है ? उसकी रक्ष्य-कला५५ । बेशरू, क्यों न हो, लक्ष्य भी उसने आपके हृदय पर अचूक किया है तब तो आप उसे अवश्य कुछ पारितोषक देंगे।" देवदत्तका विनोद भन्तिम था!
मुदर्शनका हृदय देवदत्तके परिहाससे माहत हो चुका था।
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२५०
जैन युग-निर्माता। एने लगती है। प्रेम वह मंत्र है जिसमें वासना और विलामकी भावनाएं नष्ट होजाती हैं । प्रेम वह अपृव बस्तु है जि के द्वारा मानव ईश्वरके क्षिात् दर्शन कर सुख और शांतिके अन साम्राज्यको प्राप्त करता है। तू इस पवित्र शब्दका गला मन घट : अमर तू प्रेम ही काना चाहता है तो अपने पवित्र पातिव्रत धर्मसे प्रेम कर जो तेरे जीवनको स्वर्गीय बना देगा।
कपिगगका मन अभी तक शांत नहीं हुआ था। वह अपने अंतिम शस्त्र का प्रयोग करना चाहती थी। उसने अपने नत्रों को अधिक मादक बना लिया था: बचनों में मधुकी मधुरताका पाहन कर लिया था। वह बोली- प्राणेश ! मापके मुंहसे धर्म धर्मकी बात मैं ईवार सुन चुकी हं. लेकिन मैं नहीं समझनी कि धर्म क्या है ? और उससे क्या सुरूर मिलता है ! कुछ समयको यह मान भी लें कि तरह महके कष्ट देका शरीरको तपानिमें तपाकर और प्राप्त सुखों का त्याग कर हम धर्मके द्वग पालोको स्वर्ग सुख प्राप्त कर लेंगे, लेकिन आपके उस धर्मके साथ भी तो उसी स्वर्गीय सुखका सवाल लगा हुआ है। फिर परलोकके अपप्त सुखोकी लालसामें वर्तमान मुखको ठुकरा देना ही क्या धर्मकी भापकी व्याख्या है ? तब इस व्यायाको आप परलोकके लिए ही रहने दीजिए। इस लोकके लिए तो इस समय जो कुछ प्राप्त है उसे ग्राण कीजिए । स्मरण रहे आपके शब्द जालमें बह शक्ति नहीं है जो उन्मत्त रमणीके तर्कके सामने स्थिर रह सके । उसे तो भाप कब रहने दीजिए और मुझे अपना आलिंगन देकर मेरे नीवन भोर यौवनको कृतार्थ की जिए ।
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शीलवती सुदर्शन । [२५१ कपिला अपना कथन समाप्त कर आगे बढ़ी, वह सुदर्शनका मालिंगन करना चाहती थी। सुदर्शनने देखा, जानेका द्वार बंद था। एक क्षण में भारी भनकी भाशंभ से मालूम हुई। उसने देखा ज्ञानसंभव काम नहीं चलता है। उसने अब छरुका आलम्बन लिया, मानेको पंछे हटाते हुए व बोला
"थोड़ासा ठहरिए, आप यह क्या अनर्थ कर रही हैं ? बाप सोच रखिए आपको मेरे भलिंगनसे कुछ भी तृप्त नहीं मिलेगी, केवल पश्चात्ताप मिलेगा। माप जिस आशासे मुझे ग्रहण कर चाहती हैं वह भाशा मापकी पूर्ण नहीं होगी।"
कपिला तेजित होकर बोली- मेरी शा अवश्य पूर्ण होगा, क्यों नहीं होगी ? आपका आलिंगन मुझे जीवनदान देगा'
सुदर्शन सी म्बरमें बोला- नहीं होगी, कभी नहीं हो रमणी ! तु जिसे अनंग २६से भा सुन्दर प्याला समझ रही है उस तृप्ति प्रदान कानेकी जरा भी शक्ति नहीं है। जिसे तू शांति प्रदायक चन्द्रबिंब समझ रही है वह गहुके कठिन ग्रास ग्रसित है। पुरुषत्व विहीन और रति क्रिया क्षीण पुरुषके आलिंगनसे तुझे क्या तृप्ति, क्या पुस्ख मिले!? इसमें न तो रतिदान देनेकी शक्ति है और न मदनकी स्फूर्ति है !"
कपिला चौककर बोली-" है ? भाप यह का कह रहे हैं ? नहीं मुझे विश्वास नहीं होता, माप यह सब मुझे छलने का प्रयत्न कर रहे है। मैं आपकी बातका विश्वास नही कर सकती।"
सुदर्शनने अत्यंत विशासके स्वरमें कहा-"माश्चर्य है, तुम्हें
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२५२] जैन युग-निर्माता। मेरी बातपर विश्वास नहीं होता! तुम्हारी समझमें क्या यह नही माता कि जिस रमणीकी दिव्य रूप राशिके उन्मत्त लीला विलासने तीक्ष्ण और कुटिल कटाक्ष पातमें स्निग्धता और तृप्तिकर स्पर्शने देवताओं के हृदय भी विवलित कर दिए। ब्रह्माके व्रतको भंग कर दिया, विष्णुको अपना दास व I लिया और महर्षियोंकी तपस्याको नष्ट कर डाला उसका प्रभाव मेरे जैसे साधारण व्यक्तिपर नहीं पड़ता। मेरे घुमन्वहीन होने के लिए इससे अधिक प्रमाण और क्या चाहिए।"
मुदर्शनकी बातसे कपिला अत्यंत निराश हो चुकी थी। वह पश्चात्तापके स्वामें बोली- ओह ! तब मैंने व्यर्थ ही अपने हृदयको कलंकित किया ।"
सुदर्शन यह सुनने के लिए वहां खड़ा नहीं रहा । वह शीघ्र ही कपिलाके घास बाहिर निकल गया।
बसंत ऋतु माई। वसंतोत्सव मनाने के लिए नगर निवासी उन्मत्त होकर उपवनकी ओर जाने लगे। सुदर्शन भी अपनी पत्नी और पुत्रोंके साथ वसंतोत्सव मनाने गया था। महारानी ममया भी यह उत्सव मनाने गई थी। उनके साथ विप्र पनी कपिला और उसकी मन्य सखियां भी थीं।
महारानी अमयाने सदर्शनके सुन्दर पुत्रोंको देख कर मनी दासीसे पछा-" चपला, क्या तू बता सकेगी यह सक और पुष्ट बालक किमके हैं।"
चपकाने कहा-महारानी जी ! यह सुन्दर बालक नगरके प्रसिद्ध पनिक हो सर्शनके है।
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शीलवती सुदर्शन । [२५३ सुदर्शनके यह बालक हैं, सुनकर कपिला एकदम सिहर उठी, अनायास उसके मुंइसे निकल गया-" सुदर्शनके बालक ! मुर्शन तो पुरुषत्व हीन है।"
रानीने कपिलाके हृदयकी यह सिहरन देखी, उसके कहे शब्दोंको सुना। यह सब उसे अत्यंत रहस्यजनक प्रतीत हुमा । उसने कपिलासे यह सब जानना चाह।।
कपिछा टत्ते में कर कह तो चुकी थी पान्तु उसे अपनी गातार बढी लज्जा आई, वह कुछ समयको मौन रह गई। फिर बोली"महारानी जी कुछ नहीं, मैंने सुदर्शनके संबंध किसीसे यह सुना था।"
उसके बोलने के ढं। और लज्जामाल मुंहको देखकर सनीको उसके कहनेपा मंदेह होगया. 46 बोली- नहीं कपिला, तू अपने हृदयको स्पष्ट पातको मुझमें छुरा रही है, तू सत्य कह. तूने यह कैसे जाना है ? "
कापला अपने हृदयकी बातको छपा नहीं सकी, उसने अपने ऊपर वीती हुई सारी घटना रानीको कह सुनाई।
कपियकी कहानी सुनकर गनीके हृदयमें एक विचित्र आकर्षण हुका । करुणः और हास्यकी घागएं तीव्र गतिसं बहने लगी। अपने हृदयमें सब भावनाएं लेकर वह वसंतोत्सवसे लौटी।
रानी अभयाका हृदय भान अत्यंत चंचल हो उठा था। कितने ही प्रयत्नों द्वारा दबाये जानेपर भी अब उसके हृदयकी चंचलता नहीं रुक सकी तब उसने अपने हृदयकी हलचकको अपनी पाय पंडिता पर प्रकट किया।
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२६२] जैन युग-निर्माता । सारा संसार स्वर्णमय बन गया था, उसने स्नान किया और देवमंदिरको चल दी।
द्वार प्रवेश करते ही उसे महात्माके दर्शन हुए। उसने भक्ति और श्रद्धासे र प्रणाम किया। महात्माने आशीर्वाद दिया : तु मुखी हो। भरे ! यह क्या ? यशोभद्राके नेत्रोंसे अश्रुधारा बह चली। महात्मा विचलित हो रठे । बोले-पगली, तु रोती है ?
महात्माजी ! कहते हुए उपका हृदय करुण हो उठा । वह बोली-योगिरज ! आप सब जानते हैं, कहिए । कच मैं पुत्रन्ती होऊगी ? मैं अभागिनी क्या कभी मां इन्द मुन सकंगो ? बतलाइए क्या मुझे पुत्र-सुख मिलेगा ? महात्मा बोले-" बहिन? शन्त हो। संपामें को सब कुछ मिलता है, तुझे भी मिलेगा। तेरे पुत्र होगा-ऐपा पुत्र जो अपने उन्नत आदर्शसे संपारको चक्ति का देगा, जिपकी यशवनिस संसार गूंज रठेगा, उन्नत मस्तक जिसके चाणों पर लोटेगे जिसकी चरित-चन्द्रिका भूतलपर अपनी उज्ज्वल किरणे फैलायेंगी ऐका पुत्र तेरे | किन्तु '.... महात्मा मौन होगए ।
यह सुनकर पुत्रकी उत्कट इच्छा रखनेवाली यशोभद्राका हृदय हर्षसे फूल उठा-पर महात्माके अंतिम ३.०द 'किन्तु', को वह समझ न सकी । वह भातुर होकर बोली-महात्मा ! कहिए इस "किन्तु"का क्या मतलब? इसने मेरे हर्षित हृदयको बेचैन कर दिया है। इसने उस अनंत भानंदके दरवाजे को बंद कर दिया है जिसमें में शीघ्र प्रवेश करना चाहती थीं। इस " किन्तु ' की पहेलीको शीघ्र दल कीजिए।
महात्मा कुछ सोचकर बोले-पहिन ! तुझे पुत्र-रत्न तो प्राप्त होगा
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[ २६३
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किन्तु पुत्र प्राप्ति के साथ ही तुझे पति वियोग होगा । पुत्र जन्मके समय ही तेरे स्वामी इस संसारकी मायाका त्याग कर तपस्वी बन जायेंगे ! ध्यानगम होगए हैं। वह उठी, डोले में झूलती हुई अपने
सुकुमार सुकुमाल ।
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यशोभद्राने सुना-देखा, महात्मा देव दर्शन किया और हर्ष विषाद के घर चल दी ।
( २ )
कालकी चाल नियमित है । संसारके प्राणी जो नहीं बनना चाहते उसे समय बना देता है । जो देखना नहीं चाहते है समय अपनी परिवर्तन शक्ति में वही दिखला देता है । समयकी गतिने यशोद्रा के लिए वह अवसर ला दिया जिसके लिए वह अत्यन्त उत्सूक थी ।
वह अब गर्भवती था । अपन हर्मके डिंडोलेको वह हौले हौले झुका रही थी, उसका हृदय किसी अभूतपूर्व आशा के प्रकाशसे जगमगा रहा था । नगर के टद्यानमें कुछ तस्वी महात्मा पधारे थे । सुरेन्द्रदत्त उनके दर्शन के लाभको संवरण नहीं कर सके । ने शीघ्र ही उद्यनमें पहुंच गए । महात्माकोका उपदेश चल रहा था संसारकी नश्व ताका नम दिग्दर्शन होरहा था, उपदेश प्रभावशाली था | सुरेन्द्रदत्तके हृदय पर इस उपदेशने इतना गहरा रंग जमाया कि वे उसी में रंग गए, घरकी सुधि गई। पत्ली के प्रेमका तूफान भंग हुआ और वैभवका नशा उतर गया । अधिक सोचने के लिए उनके पास समय नहीं था । वे उसी समय तपस्वी बन गए ।
इधर, उसी समय यशोभद्राने एक सुन्दर बालकको जन्म दिया । उसके प्रकाशसे सारा घर जगमगा उठा । स्वजन हितैषियोंके समूह से
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२६४] जैन युग-निर्माता . पा व्याप्त होगया, मंगल गान होनेलगा और याचकों को अभीष्ट वस्तु मिलने लगीं। कैसा माश्चर्य जनक प्रसंग था यह । इघर पुत्र जन्म उधर पति वियोग ! संसार कितना रहस्य मय है !
मुन्द्रदत्तने पुत्र जन्मका संवाद सुना, पर थे तो इस दुनियांसे बहुत दूर चले गये थे। इतनी दूर कि जहांसे लौटना ही अब असंभव था।
यशोभद्राने भी सुना, पति तपम्वी बन गए हैं। उसे कुछ लगा पर ह तो पुत्र-जन्मके हर्षमें इतनी अधिक मम थी कि उसे उस समय कुछ अनुभव ही नहीं हुआ।
शुम्यताके अवगुंठनमें छिपा हुभा सुरेन्द्रदत्तका प्रांगण भाज बाहकोंकी चहल पहलसे नाग उठा था, बालकों के समूहसे घिरे हुए सुकुमालको देखकर माताका हृदय उस अकरिस्त मुस्खका अनुभव कर रहा था. जो मे जीवनमें कभी नहीं मिला था। मकुमालका शरीर चमकते हुए सोनेकी तरह था। कीमती वस्रोस मजर जर नह बास्य चारसे चलता था, तब दर्शकों के नेत्रु उसकी और वरवस विंच नाते थे। बालकके सरल और भकृत्रिम स्नेह-सुघाको पीकर मां अपने हृदयको तृप्त करने लगी।
शंकित हृदय कहीं विश्राम नहीं पाता । कुछ समयसे यशो. भद्राका हृदय अपने पुत्रकी ओरसे किसी अज्ञात भयसे भरा रहता है। बहना हुमा सुकुमार नपसे अपनी लीलामोंसे टसे प्रसन करने लगा तभीसे उसके हृदयको गुप्त माशंका और भी अधिक बढ़ने
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सुरुमार सुकुमाल
[२७३
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महात्माका चातुर्मास समाप्त हो गया, माज उनके उज्जयिनीसे विहार करने का दिन था। सबेरे चार बजेका समय था। वे पाठ कर रहे ये उनका स्वर भान कुछ ऊंचा हो गया था देवताओंके वैभवका वर्णन था। एक भावाज सुकुमारके कानों तक पहुंची। वह पूर्व स्मृतिके तार झनझना उठे। किसी ने उसे जगा दिया । वह बोळ उठा-" अरे ! मैं आज यह क्या सुन रहा हूं " स्वर कुछ
और ऊंचा होगया । पूर्वजन्मकी उसकी स्मृति जागृत हो उठी। यह तो मेरे ही पूर्व वैभव वर्णन है । मरे में क्या था और याज क्या हूं ! वे विकासके दिन किसताह चले गये । वे मुग्वः मम नयां आज मेरे नंतापट पा कुछ मोटी मोठी थाकियां दे ही हैं ना क्या उसी तरह यह भी नष्ट हो जायगा । ज ऊं उनसे दी मालन करूं।"
बद उठा-रात्रि कुछ अवशेष थी। शुन्यगतिमे दी महलसे नीचे उन । और सीधे महात्मा के पास चला गया । माज उसके लिये कोई पतिबंध नहीं था ! यदि होता भी तो वह उसे कुचल डालता। उसकी मनोभामना आज अत्यंत प्रबल हो उठी थी। जाकर महात्माको पणाम किया । बोला - " महात्मा ! हा भगे और कहिये मेग वह सम्र ज्य नो गया-यह साम्राज्य मेरा मन कबतक स्थिा रहेगा !" महात्मा बोले -" पुत्र तु टंक समयपर आ गया, बस अब थोड़ा ही समय शेष है : '' मुझे हर्प है । तू आ तो गया । तेरी उम्रके बस भर तीन ही दिन बाकी हैं। तुझे जो कुछ करना हो इतने समयमें ही अपना सब कुछ कर डाल ।
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जैन युग-निर्माता ।
२७४ ]
सुकुमालने सुना--परदा उलट गया था। अब उसे कुछ दूसरा ही दृश्य दिख रहा था । खुल गये थे उसके हृदय कपाट | उसे कुछ कुछ अपना बोध होने लगा । साधु फिर बोले- मानवकी महत्ता केवळ विश्व मत्र एकत्रित करने में नहीं है । अनन्त वैभवका स्वामी बनकर ही वह सब कुछ नहीं बन जाता । वास्तविक महत्ता तो त्याग में है - निर्मम होकर सर्वस्व दानमें ही जीवनका रहस्य है । स्वामी तो प्रत्येक व्यक्ति बन सकता है। ज्ञान लय, हिंसक और व्यसनव्यस्त व्यक्ति भी वैभव के सर्वोच्च शिखर पर आसीन हो सकते हैं । किन्तु त्यागी विरले ही होते हैं। वे सर्वस्व त्याग कर सब कुछ देकर भी उस अकालनिक सुखका अनुभव करते हैं जिनका अंश भी रागी बात नहीं कर सकता ।
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सुकुमाल आगे और अधिक नहीं सुन सका । बोला-महात्मन: अधिक मत कहिये में अब सुन न सकूंगा मैं लज्जाएं मग जाता हूँ । मैंन आजतक अपने को नहीं समझा। ओइ ! कितना जीवन मेरा व्यर्थ गया ! अब नहीं खोना चाहता । एक एक पल में अपने उस विषयी जीवन के प्रायश्चितमें लगाऊं ॥ | मुझे आप दीक्षा दीजिये | अभी इसी समय- मुझे आप अपने चरणों में डाल लीजिये |
साधुने दक्षा दी। सुकुमालका सुकुमार हृदय आज कटोर पत्थर बन गया ।
बड़ाई के भयंकर मैदान में शत्रुओंको विजित कर देना बीरता अवश्य कहलायगी | मयंकर गर्जना और चमकते हुए नेत्रों से मनुष्यों को
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सुकुमार सुकुमाल ।
[२७५ भयभीत कर देने वाले मि के पंजोंसे खेलना आश्चर्यजनक अवश्य है। अरुण नेत्रों वाले काले नागको नचाने में भी बहादुरी है किन्तु यह सब भाले संसारको बहकान के साधन है । कोई भी व्यक्ति इनसे अ. संतोष प्राप्त नहीं कर सकता। वह वीरता और चतुर्थ स्थायी विजय प्राप्त नहीं करता । ब? बड़े महादुर्गेपर विजय प्राप्त करनेवाले बादा ह भी अनमें इस दुनिया में विजिल होकर गये है, हां ! अपने आप पा विजय पाना वास्तविक वीरता है। प्रलोभनोंकी घुडदौडमें ॐ गं बहनेकले मन पर बामनाको रंगभूमिमें नृत्य करनेवाली इन्द्रियों २२. काबू पाने में अपना गुलाम बनाने में दो बारित्वका दम्य है।
___ साधु. १२वी, यानी शः जितने ही महत्वपूर्ण हैं उन्हें प्राप्त कानके लिये उतनी ही साधना, तपस्या और त्या को आवश्यकता है। केवल मात्र नम रहने अथरगेरुर वन धारण कर लेनेसे ही वह पद प्राप्त नहीं हो जाता है। जब तक वह अपनी कामनाओं
और लालमाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, टमकी इच्छए. मर नहीं जाती तबतक तो केवल दो मात्र ही है। वे व्यक्ति जो अपने गाईरथ जीवनको ही सफल नहीं बना सके, माधनोंक प्राप्त होते भी जो अपनको अग्रसर नहीं कर सके और गृहस्थ जीवनको कक्षामें अनुत्तीर्ण होकर यश, सम्मान और इच्छाओं की लालसाओंसे आकर्षित होकर अपनी अकर्मण्यताको ढकने के लिये तपस्वी या महात्माका स्वांग रचते हैं और भोले संसारको ठगने के लिये तरह तरह के माया जाल रचते हैं वे तपम्वी नहीं भात्म वंचक है। वे मरनेको ईश्वरका प्रतिनिधि बहनेवाले तीव्र प्रतारणाके पात्र हैं, माडंरकी मोटमें अपने
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२७६] जैन युग-निर्माता। छिद्रको ढकनेवाले उन व्यक्तियोंसे शांति और साधना सदसों कोसा दूर भागती है । उनका अस्तित्व न रहना ही श्रेयस्कर है।
सुकुमाल तपस्वी बना नहीं था। अंतरकी उत्कट भात्म साधनाने उसे तपस्वी बना दिया था। यह संसारका भूखा वैरागी नहीं था वह तो तृप्त तपस्वी भा। उसकी मात्मा तपस्वी बननेके प्रथम ही अपने कर्तव्यको पहचान चुकी थी। वह जान गया था संसारके नम चित्रको।
रत्न दीपकोंके प्रकाशके अतिरिक्त दीप प्रकाशमें अश्रुपूर्ण हो नानेवाले अपने नेत्रोंकी निबेलताको वह सम्झता था कमल वासित सुगंधित चांवलों के अतिरिक्त साधारण तन्दुरूके म्बादको सहन न कर सकनेवाली अपनी जिहाकी तीव्रताका उसे अनुभव था । मखमली गद्दोंपर चलनेके अतिरिक्त पृथ्वीपर न चलनेवाले पैगेकी नुकमारताका उसे ज्ञान था । उसे अपने शरीर के अणु भणुका पता था । वह एक स्टेज पर उनको ला चुका था, अब उसे उन्हें दूसरी ओर ले जाना था। मन तो उसे उन्हींसे दूसरा दृश्य अंकित कराना था। अभी तो वह उनकी गुलामी कर चुका था। उसके इशारे पाच चुका था, सब सुकुमारके इशारे पर उनके नाचनेकी बारी थी . बहुत मजबूत कठोर उसे बनना था। वह बना । एक क्षण में ही दृश्य परिवर्तित हो गया । पलक मारते ही उसने अपने स्वामित्वको पहचान लिया, मानो यह कोई जादू था कड़ाकेकी दोहरीका समय, पाषाण कणमय पृथ्वी, उसके पैरोंसे रक्तकी धारा बहने लगी किन्तु उसे तो
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२८२ ] जन युग-निर्माता । पथ पर छोड़ दूंगा, अशांत और दुखी जनताका मैं पथ प्रदर्शन करूंगा, उसके लिए मुझे अपना सर्वस्व त्याग करना होगा । लोककल्याणके लिए मैं सब कुछ करूंगा, तपस्वी बनकर मैं भग्नी मात्माको पूर्ण विकसित करूंगा और पवित्र आत्म-ध्वनिको संसारभरमें फैल ऊंगा। यह विचार आते ही वे बालब्रह्मचारी महावीर ताम्बी बनने के लिए तैयार हो गए।
त्रिशला माताको अपने पुत्र के विचार ज्ञात हुए। पुत्र वियोग के मथाइ दुखसे उनका हृदय विकल होगया । वह इस दुखको सह न सकी । रोते हृदयसे बोली- पुत्र ! मैं अबतक पुत्रवधूके मुखोसे वंचित रहकर भी तुम्क्षरा मुंह देखकर संतोष कर रही थी लेकिन अब तुम भी मुझे त्यागकर जा हे हो अब मेरे जीवनका क्या सहारा रहेगा?
पुत्र ! इतने बड़े (ज्य वैभव का त्याग तुम क्यों कर रहे हो । क्या गृहस्थजीवनमें रहकर तुम लोक-कल्याण नहीं कर सकते ! महलों में रहनेवाला तुम्हारा यह शरी। ताम्याके कठिन कष्टको कैसे महान कर सकेगा ? मैं प्रार्थना क ती हूं कि जननी के पवित्र प्रेमको तुम इसतरह मत टुकरामो गृहस्थ जीवन में २८ कर ही संमारका कल्याण करो।"
नननीको सान्त्वना देते हुए महावीर बोले-"जननी ! इम उत्मवके समयमें माज यइ खेद कैसा ? तेग पुत्र संसार का उद्धार करने जारहा है, आत्मकल्याणके प्रशस्त पथका पथिक बन रहा है, यह जानकर तो तेरा हृदय गौरवसे भर जाना चाहिए ।
गौरवमयी जननी ! गृहस्थ जीवन के पावन मा मेरी मारमा स्वीकार नहीं करती, अब तो यह संसारमें मात्मस्वातंत्र्य और समताका
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महावीर वर्द्धमान । [२८३ साम्राज्य स्थापित करने के लिये तड़फड़ा उठी है, तुम से इस जीर्ण बंधनमें बद्ध रखने का हठ मत करो, अब उसे स्वछंद विचरने की ही अनुमति दो।
वर्द्धमान महावीर ने अपने पवित्र उपदेश द्वारा जननी और जनकके मोहजालको छिन्न भिन्न कर दिया । उनसे आज्ञा लेकर वे तपश्चरणके लिए वनकी ओर चल दिए।
अपने शरीरको महावीरने ताश्चाणकी ज्वालामें डाल दगा था, तीव्र आंचसे कर्ममल दृर होकर आत्मा पवित्र बनाने लगा था, तपम्याकी भांवमें एक और आंच लगी।
वे अनेक स्थानों३र भ्रमण करते हुए एक दिन उज्जयिनी के स्मशानमें ध्यानस्थ थे, स्थ गु नामक स्ट्रने उन्हें देखा । पूर्व जन्म्के संस्कारों के कारण उसने उनकी शांति भंग करनेका कुमित प्रयत्न किया । उन पर अनेक भमहनीय पत किए लेकिन महावीर किसी ताह भी तपश्चग्णसे चलित नहीं हप । अत्याचारी की शक्तिका अन्त होगया था, इस उपमर्गने महावो के तपम्वी हृदयको और भी दृढ़ बना दिया।
महावीने नेह वर्ष तक कठिन माघना की । अन्नमें उन्हें इस आत्म साधना का फल के सरके में मिला- उन्होंन सर्वज्ञता प्राप्त की।
महावीर बर्द्धमान महान् अात्म संदेशवाहक थे। सर्वज्ञता प्राप्त करते ही विश्व कल्याण के लिए उनका उपदेश प्रारम्भ हुआ। विशाल समाम्थल निर्माण किया गया था। उनका उपदेश सुनने के लिए जनसमूह एकत्रित होने लगा।
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२८४] जैन युग-निर्माता ।
__ भारतमें विरोधकी जड़ जमानेवाली विषमताकी बेलिपर उन्होंने प्रथम प्रहार किया। क्रियाकांड के पालने में पली हुई अंध परम्परा और महंमन्यताको उन्होंने समूल नष्ट कर दिया । के दल जाति अधिकारों के बल २३ स्वयंको रच्च और अन्यको नीच सम्झनेवाली कुत्सित भावनाके भयंकर तूफानको शांत करने में उन्होंने अपनी पूर्ण शक्तिका प्रयोग किया. मानद हृदयमें कुंठिन पड़ी आत्मोत्थानकी भावनाको बल दिया और गिरे ए मनोचलको जागृत, विकसित और प्रोत्साहित किया ।
अपनेको तुच्छ और हीन समझनेवाले, सामाजिक और धार्मिक साधनों टुकार हुए मानवों के मनमें उन्होंने तीक्ष्ण यात्म सम्मानकी प्रकाश सिरों को प्रविष्ट कराया ।
दकाए हुए दीन हीन मानवोंकी मारम-शक्ति इतनी कुंठित डा चुकी थी कि वे समझ नहीं सकते थे कि हम मानद हैं, हमें भी कोई अधिकार प्राप्त हैं।
मांध घर्मिक ठेकेदारों ने मानव शक्तिको बेकार कर दिया था। वे सोच ही नहीं सकते थे कि हमें भी इस गाढ़ अंधकामें कमी प्रकाशकी किरणों का प्रदर्शन प्राप्त हो सकता है। हम इस भयंकर जहाडकी काल काटरी से कभी निकल भी सकते हैं।
महावको नहत्व और हीनत्वकी चिकाल से जड़ जमानेवाली उस भावनाको नष्ट करने में काफी शक्ति और भारमनल का प्रयोग करना पड़ा । विषमताकी लहरे प्रचंड थीं। हिंसा और दंभका अकांड तांडव थ', किन्तु महावीरके हृदयमें एक चोट थी वे इस विषमतासे तिलमिला उठं थे। मानव मात्रके कल्याणकी तीव्र भावनाने उन्हें हद
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महावीर बईमान। [२८५ निश्चयी बना दिया था। माघ धर्माधिकारियोंका उन्हें कड़ा मुकाबला करना पड़ा किन्तु वे अपनी मनोभावनाओंके प्रचारमें उत्तीर्ण हुए। मानवताके संदेशको मानवोंके हृदय तक पहुंचाने में वह सफल हुए। उनकी यह सकस्ता साम्यवादका शंखनाद या, मनुष्यकी विजय थी और विशेष महत्ताका दर्शन कराने वाली स्वर्ण किरण थी।
मानवोंने उस स्वर्ण प्रकाशमें अपनी शक्तिको विकसित करने. वाले स्वर्ण पथको देखा। किन्तु उनके पद उसपर चलने में शंकित थे उन्हें उसपर चलने के लिए उन्होंने प्रेरित किया, परिचालित किया और इच्छित स्थानपर चलने की शक्ति प्रदान की। वे उन पथके पथिक पने जिसपर चलनेकी उन्हें चिकाससे लालसा थी। सम...! की सरिताके वेशमें पम्पके किनारे दह गए और एक विशाल नट बन गया, 3 साम्यवादके दर्शन हुए।
साम्यवादका रहस्य उन्होंने जनताको समझाया
धर्म और सामाजिक क्रियाओं में किसी भी जातिके मानवको समानाधिकार है। निर्धनता, शुद्धता मथना स्त्रीत्वको शृम्बलाई धार्मिक तथा आत्म माधनमें किमी प्रकार बाधक नहीं होमती: जानित अथवा व्यक्तिगत अधिक रोका धार्मिक पदम्या में कोई अधिकार नहीं। धर्म प्राणीमात्रके कल्याण के लिए है। जितनी भाइचकता धर्मकी एक घनिक के लिए है उतनी ही निर्धन के लिए है। धर्मको लेकर प्रत्येक प्राणी अपना आत्म कल्याण कनेके लिए स्वतंत्र है। यह उनका दिव्य संदेश था।
महावीर के समस्तमें प्रत्येक जातिके बी-पुरुषको धौरदेश
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२९.]
जैन युग-निर्माता ।
उनके इन सिद्धांतोंने विश्वमें अमरत्वका साम्राज्य स्थापित किया।
भगवान महावीरने साम्यभाव और विश्वप्रेमका शांतिपूर्ण साम्राज्य लाने के लिए महान् त्यागका अनुष्ठान किया। उन्होंने थपने जीवनके ३० वर्ष इस महान उपदेशमें वा दिए।
मानी आयुके अन्त समयमें वे विहार करते हुए पावापुरके उद्यानमें आए । वह कार्तिक कृष्णा अमावस्याका प्रभातकाल था । रात्रिकी कालिमा क्षीण होनेको थी। इसी पवित्र समयमें उन्होंने इस नश्वर संसारका त्याग कर निर्वाण प्राप्त किया। देवताओं और मनुष्यों के सामने एकत्रित होकर उनका निर्वाणोत्सव मनाया, उनके गुणों का कीर्तन किया और उनकी चरणरजको अपने मस्तकपर चढ़ाया।
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[१८]
श्रद्धालु श्रेणिक (बिंबसार)
(अनन्य शृद्धालु महापुरुष)
राजा बिचार शिकार खेलकर वनसे लौटे थे। उनका मन आज अत्यन्त खिन्न हो रहा था। अनक प्रयत्न करने पर भी भान उनके हाथ कोई शिकार नहीं लगा था । लौटते समय उन्होंने जैन साधुको खड़े देखा। अब वे अपने क्रोधको काबूमें नहीं रख सके । आज सबेरे शिकारको जाते समय भी उन्होंने इन्हीं साधुको देखा था। उन्होंने सोचा-इस नंगे साधुके दिखाई दे जाने के कारण ही पान मुझे शिकार नहीं मिला। वे बहुत झुंझलाए हुए थे। जंगलसे लौटते समय उसी स्थान पर साधुको निश्चल खड़े देखकर उनके हृदयमें बदला लेनेकी तीव्र इच्छा जाग्रत हो स्टी।
राजा किंवसारके अधिक क्रोधित होनेकी एक बात और दी। कल ही उनकी रानी चसनाने बौद्ध भिक्षुओंका परीक्षण किया था। परीक्षण में वे बुरी तरहसे पराजित और लजित हुए थे। उस परीक्षणसे रजा किंवसारका जैन-द्वेषी हृदय और भी भड़क उठा था। वे जैन साधुमात्रसे अत्यंत रुष्ट होगए थे और नौद्ध साधुओं के पराभवका बदम ह किसी वाह लेना महते थे।
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२९२ ]
जैन युग-निर्माता |
प्रसंग यह था - राजगृहमें बौद्ध भिक्षुकका एक विशाल संघ माया या । संघ आगमनका समाचार चिंवसारने सुना । वे अत्यंत प्रस्न होकर गनी चेनासे बौद्ध भिक्षुकों की प्रशंसा करने लगे । वे बोले" प्रिये ! तू नहीं जानती कि बौद्ध भिक्षु ज्ञानकी किस उत्कृष्टताको प्राप्त कर लेते हैं । संसारका प्रत्येक पदार्थ उनके ज्ञानमें झलकता है । के
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परम पवित्र हैं। वे ध्यान में इतने निम्न रहते हैं कि यदि उनसे कोई कुछ प्रश्न करना चाहता है तो उसका उत्तर भी उसे बड़ी कठिनता से मिलता है। ध्यान से वे अपनी आत्माको साक्षात् मोक्षमें लेज ते हैं । वे वास्तविक तत्वों के उपदेशक होते हैं ।
चेलनाने बौद्ध भिक्षुकोंकी यह प्रशंसा सुनी। उन्होंने नम्रता से उत्तर दिया- "मार्य ! अदि आपके गुरु इस तरह पवित्र और ध्यानी हैं उन उनका दर्शन मुझे अवश्य कराइए। ऐसे पवित्र महात्माओं का दर्शन करके मैं अपनेको कृतार्थ झूवी | इतना ही नहीं, यदि मेरे परीक्षणकी कसौटी पर न च ज्ञान और चारित्र | निकला तो मैं आपसे कहती हूं, मैं भी उनकी उपासिका बन जाऊंगी | मैं पवित्रताकी उपासिका हूं, मुझे वह कहीं भी मिले। यह हठ मुझे नहीं है कि वह जैन साधु ही हो, सत्य और पवित्र आत्मा के दर्शन जहाँ भी मिलें वहां मैं अपना मस्तक झुकाने को तैयार हूं. लेकिन बिना परीक्षण के यह कुछ ही होसकेगा । मैं आशा करती हूं कि आप मुझे परीक्षणका अवसर अवश्य देंगे "
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शनीके सरल हृदय से निकली वार्ताका राजा बिवसारके हृदयपर गहरा प्रभाव पड़ा । उन्होंने बौद्ध साधुओंके ध्यानके लिए एक विशाल
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श्रद्धालु श्रेणिक विसार ।
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मंडप तैयार कराया। बौद्ध साधु उस मंडा में ध्यानस्थ होगए । उनकी दृष्टि बंद भी, ससिको रोककर काष्टके पुतलेकी तरह समाधिमें मन थे ।
राजा विसार रानी के साथ वहां पहुंचे। रानी चेलनाने उनके परीक्षण के लिए उनसे अनेक प्रश्न किये लेकिन भिक्षुओंने उन्हें सुनकर भी उनका कोई उत्तर नहीं दिया । पासमें बैठा हुआ एक ब्रह्मवारी यह सब देख रहा था। वह रानी से बोला- माताजी ! यह सभी
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भिक्षुक इस समय समाधिमें मन हैं। सभी साधुओं की आत्म शिवालय में बिराजमान हैं। देह सहित भी इस समय ये सिद्ध हैं इसलिए आपको इनसे कोई भी उतर नहीं मिलेगा ।"
ब्रह्म बारीके इस उत्तरसे चलनाको कोई संतोष नहीं हुआ । लेकिन वह तो पूर्ण परीक्षण चाहती थी । वह जानना चाहती थी कि भिक्षुकी आत्मा वास्तव में सिद्धालय में है, या यह सब ढोंग है । इस परीक्षणका उसके पास एक ही उराय था, उसने मंडप के चारों ओर अमि लगबा दी और उनका दृश्य देखने के लिए कुछ समयतक ठो
खड़ी रही, फिर कुछ सोच समझ कर अपने राजमहलको चलदी !
अम चारों ओर सुलग उठी। जब तक अभिकी ज्वाला प्रचंड नहीं हुई ये बौद्ध भिक्षुक ध्यानस्थ भेंट रहे, लेकिन अग्मिने अपना प्रचंड रूप धारण किया, तो वे अपनेको एक क्षण के लिए ध्यान में स्थिर नहीं रख सके । जिस ओर उन्हें भागनेको दिशा मिली के उसी ओर भागे । कुल क्षणको वका वातावरण बहुत ही अशांत होगया, जब वह स्थान साधुओंसे विककुक रिक्त था ।
एक क्रोधित भिक्षुने जाकर यह सब यात राजा बिनसारको सुनाई तो राजाके कोषका कोई ठिकाना नहीं था, उन्होंने रानीको
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२९४ ]
जैन युग-निर्माता ।
उसी समय बुलाया | कांपते हुए हृदयसे वे बोले-“रानी ! तुम्हारा यह कृत्य सहन कानेयोग्य नहीं, मैं नहीं समझता था कि मतद्वेष में तुम इतनी अभी हो जाओगी। यदि तुम्हें बौद्ध भिक्षुकों पर श्रद्धा नहीं थी तो तुम उनकी भक्ति भले ही न करतीं, लेकिन उनके ऊपर ऐसा प्राणान्तक उपसर्ग तो तुम्हें नहीं करना चाहिए था। क्या तेरा जैन धर्म इसी तरह भिक्षुओंके निर्देयता से प्राण घातकी शिक्षा देता है ? तेरे बरं क्षणकी अंतिम कसौटी क्या बेकसूर प्राणियों का प्राणघात ही है ?
कुपित नरेशको शांत करती हुई चेलना बोली- "नरेश्वर ! मेरा लक्ष्य उन्हें जगमी तकलीफ देनेका नहीं था और न मेरे द्वारा उन बौद्ध मिक्षुकोंको थोड़ा सा भी कष्ट पहुंचा है। मैं तो ब्रह्मचारी के उत्तासे ही यह सम्झ चुकी थी कि ये बौद्ध भिक्षुक निरे दमी हैं, ये अमिकी ज्वालाको सह नहीं सकेंगे और भाग खड़े होंगे। में तो आपको इनके मौन नाटकका एक दृश्य ही दिखलाना चाहती थी, इसे आप स्वयं देख लीजिए । "
वे साधु समाधिस्थ नहीं थे, यदि उनकी आत्मा समाधिस्थ होती तो वे शरीरको जल जाने देते। शरीर के जलने से उनकी सिद्धालय में विराजमान आत्माको कुछ भी कष्ट नहीं होना चाहिए था । वह समावि ही कैसी जिसमें शरीर के नष्ट होनेका भय रहे, समाधिस्थ तो अपने शरीर के मोहको पहले ही जळा बैठता है, फिर उसके जलने और मरने से उसे क्या भय हो सकता है ?
महाराज ! वास्तव में आपके वे भिक्षु समाधिस्थ नहीं थे । उन्होंने मेरे का उत्तर न दे सकने के कारण मौनका दंभ रचा था,
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श्रद्धालु श्रेणिक
सार
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उनका दंग अब प्रकट होगया, आप अपने बौद्ध भिक्षुकों के इस दंभको स्पष्ट देखिए, क्या यह सब देखते हुए भी आपकी उपर श्रद्धा रहेगी ?
रानीके युक्तियुक्त वचन सुनकर महाराज निकत्तर थे। लेकिन अपने गुरुओं के इस परामनसे उनके हृदयको गहरी चोट लगी। ध्यानस्थ जैन साधुओं को देखकर आज उनकी वह चोट गइरी हो गई थी, उन्होंने साधुके ध्यानका परीक्षण चाहा। उन्होंने किसी तरहका विचार किए विना ही अपने शिकारी कुत्ते उब पर छोड़ दिए ।
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साधु परम ध्यानी थे । उनके ऊपर क्या उपसर्ग किया जारहा है. इसका उन्हें ध्यान भी नहीं था । उनकी मुद्रा उसी तरह शांत और निर्विकार थी । उनका हृदय उसी तरह आत्मध्यान में गोते खा रहा था। उनकी मौन शांतिका उन शिकारी कुत्तों पर भी प्रभाव पड़े बिना नहीं रहा । सिक्से हिंसक पशु भी आज उनकी इस शांतिसे प्रभावित हो सकता था । कुत्ते उनके सामने आकर मंत्र की लिन सर्पकी तरह शान्त खडे रह गए ।
वित्रसारकी आज्ञा के विपरीत कार्य हुआ। वे कुत्ते दौड़ा कर साधुकी समाधि भंग करना चाहते थे, लेकिन सायुकी समाधिने कुर्तोको भी समाधिन्थ बना दिया। वे यह दृश्य देखकर दंग रह गए, साथ ही उन्हें साधुके इस प्रभाव पर ईर्षा भी हुई। वे सोचने लगेयह साव अवश्य ही कोई मंत्र जानता है जिसके बलसे इसने मेरे बलवान हिंसक कुत्तोंको अपने वशमें कर लिया है, लेकिन में इसके मंत्र बलको अभी मिट्टी में मिलाये देता हूं। मैं अभी इस दुष्ट जादूगरका सर घड़से उड़ाए देता हूं फिर देखूंगा कि इसका जादू कहाँ रहता
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वे ईर्षा के सामने कर्तव्यको भूल गए थे विवेकको उन्होंने ठुकरा दिया था एक न्यायशील राजा होकर भी उन्होंने अन्याय और अत्य नाके सामने सिर झुका लिया था कृपाण लेकर वे आगे बढ़े, इमी एक भयंकर काळा सप उनके सामने फुंफकारता हुआ दौड़ा। मुनके मस्तक पर पड़नेवाली कुशण सपेके गले पड़ी इस अचानक आक्रमणने उनके हृदयको बदल दिया था, बदले की भावना नष्ट नहीं हुई थी । लेकिन उसमें कुछ कमी मध्य आगई थी, साधु के 'लेमें मरा हुआ सर्प डालकर ही उन्होंने मन बदलेकी भावना शांत कर ली ।
साधु यशोष के गलेमें सपे डाका मे प्रसन्न थे। सोच रहे थे, साधु अवन गलेमे को निकाल कर फेंक देगा, लेकिन अब इस समय इतना बदला ही काफी है, संध्या का समय भी हो चुका था, वे संतोषी हुए अपने महलको चल दिए । ( २ )
मिजो कुछ कर आये थे उसे वे गुप्त रखना चाहते थे, लेकिन हृदय उनके कृत्यको भरने अंद' रखने को तैयार नहीं था । वह उसे निकाल बाहर फेकना चाहता था, तीन दिन तक तो उन्होंने अपने इस कृत्यको मनी से अपटा। लेकिन चौथे दिन जब रात्रिको में राज्य महल में अपनी शय्या पर लेटे हुए थे उनका साधुके साथ किया हुआ दुष्कृत्य उबल पड़ा । वह गनी पर प्रकट होकर ही रहना चाहत भ । राजा काचार थे, उन्होंने साधुके ऊपर सर्प डालने की कहानी कह सुनाई ।
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३..] जैन युग-निर्माता। अंतमें धरातलमें नाकर विगम लेती है उसी प्रकार निश्चय अथवा श्रद्धा रहित मनुष्य संमाएकी अनेक प्रकारकी विडम्बनाओंका अनुभव करता वार वार मार्ग परिवर्तन करता, अंतमें निराश बनकर अधःपातकी शरण लेता है । श्रद्धा यह एक सुमेरु पर्वत सदृश अडिग निश्चय है। देवता भी जिसे चलित नहीं कर सके ऐसी दृढ़ता और अनुभवकी पक्की सरकपर बनी हुई वग्वृत्ति है । ऐसी श्रद्धा हुन ५ हे पुरुघों में होती है। श्रेणिक राजा ऐसी अनुपम श्रद्धा वनवाले थे और इसी श्रद्धाके कारण इतिहासमें उनका नाम स्वर्णाक्षरों में कित है।
श्रेणिक गमाको जिनदेव जिनगुरु और जैनधर्म पर असाधारण श्रद्धा थी। एकवार ददुक नापक देवने उनकी परीक्षा कानेका निश्चय किया।
श्रेणिक जैन मधुओं को परम विगी, तपस्वी और निष्पृह मानते थे। जैन साधुओं में जो विगवृत्ति, उन जैसी निःस्पृहता अन्यत्र कहीं भी संभव नहीं, ऐनी उनको दृढ़ श्रद्धा थी। एक समय मार्गमें जाते हुए उन्होंने एक जैन मुनिका दशन किया । ____उसका भेष जैन +धुमें बिल्कुल मिलता था, ऐसा होते हुए भी उसके एक हाथमें मछली पकानेका जाल था और दूसरा हाथ मांस भक्षण करनेको तैयार हो इस प्रकार रक्तसे सना हुआ था। एक जैन साधुकी ऐसी दशा देखकर राजा श्रेणिकका हृदय कांप उठा ।
राजाको अपने समीप माते देख मुनिने जाल पानी में डाला, मानो जसकी मछली पकड़ने का उसका नित्यका अभ्यास हो । यह "माचारमष्टता राजाको मसा प्रतीत हुई।
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श्रद्धालु श्रेणिक बिनसार ।
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“मरे महाराज ! एक जैन साधु होकानी निर्दयता दिखकाते हुए तुमेह कुछ सजा नहीं माती ! मुनिके मेषमें यह दुष्कर्म नत्यंत मनुचित है" श्रेणिकने तड़पते हुए मन्त:काणसे यह शब्द कहा।
"तू हमारे जैसे कितनोंको इस प्रकार रोक सकेगा! संघमें मेरे जैसे एक नहीं किन्तु असंख्य मुनि पके हैं जो इसी प्रकार मत्स्य. मांय दूग अपनी भाजीविका चलाते है ।" मुनिने उत्तर दिया।
राजाका भात्मा मानो कुचल गया। उसकी भांखों के भागे अंधकार छा गया । महावा म्वामी के संघके मुनि ऐमा निर्बल मार्ग प्राण करें यह उसे बहा त्रासदायक प्रसीत हुभा।
वह भागे चका : उस आचार भ्रष्टताका श्य बद्द भूल नहीं मका मुनिकी दुर्दशाका विच र कर वह क्षणभर मनमें दुखित होने लगा।
थोड़ी तू। पर उसे एक मध्वी मिली, उसके हाथ पैर भट्टावरसे रंगे हुए थे। 38की कगार आँख कृत्रिम ते जसे चरती थीं, वह पान चाबनी हुई रानाके सामने भाका खही हो गई।
"तुम मावी हो कि वेश्या ! म, ध्वी के क्या ऐसे शृङ्गार और मलंकार होते हैं ! " ग्लानिपूर्वक जाने पूछा ! ___ सवा खिल खिलाकर हंस पह!-" तुम तो केवल अलंकार और , ही देखते हो । किन्तु यह मेरे दरमें छह सात मासका गर्भ है यह तुम क्या नहीं देखते ?"
_ भ्रष्टाच की माक्षत् मृति ! उसकी खिल मिलाने निहुर दामने राजा श्रेणकको दिगमूह बना दिग । यह स्व. है अथक सत्य, इसके निर्णयके पथन ही साध्वी जसी स्त्री बोली--
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३०२ ]
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" तुम मुझ एकको आज इस बेषमें देखकर सम्भवतः आश्चर्य से स्तब्ध हुए हो, किन्तु राजन् ! तुमने जो तनिक गइरी खोज की होती तो तुम समस्त साध्वी संघको मेरी जैसी स्त्रियोंसे भरा हुआ देखते । जो आंखों से अंधा और कानोंसे बधिर रहा हो उसे अन्य कौन समझा सकता है ?
जैन युग-निर्माता |
जैन साधु और साध्वियों में रक्खी हुईं श्रद्धा कितनी निश्वक है यह तुम जान गये होंगे।
उपरोक्त शब्द श्रेणिक श्रवण नहीं कर सका, उसने कानों पर हाथ रखते हुए कहा :
दुराचारियों ! तुम संसारको भले ही अपने जैसा मान लो, किन्तु महावीर प्रभूका साधु साध्वियों का संघ इतना भ्रष्ट, पतित अथवा शिथिलाचारी नहीं हो सकता है । तुम्हारे जैसे एक इसप्रकार भ्रष्ट - चरित्र के ऊसे अन्य पवित्र साधु साथियोंके संबंध में निश्चय करना आत्मघात है। मैं तो अब तक ऐसा मानता हूं कि जैन साधु और साध्वियों का संघ तुम्हारी अपेक्षा असंख्य गुणा उन्नत, पवित्र और
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सदाचार परायण
अन्त में श्रेणिक राजाकी परीक्षा करने आया हुआ दर्दुरक देव राजा के पैरों पर 'गर पड़ा और उसने उनकी अचल निःशंक श्रद्धाकी मुक्त कंठसे शमा की ।
प्रबल आन्नियों के सामने श्रेणिकका श्रद्धा-दीर न बुझ सका । अवक श्रद्धा* कारण राजा श्रेणिक, भविरति होने पर भी अगली चौबासीक प्रथम तीर्थकर होंगे !
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(१९) महापुरुष जम्बूकुमार। (वीरता और त्यागके आदर्श)
(१)
विक्रम संवतसे ५१० वर्ष पहिलेकी बात है यह । उस समय मगध देशमें राजा बिंचसाका राज्य था। राजगृइ उनकी राजधानी थी। उसी राजगृही में अईदत्तजी राज्यके सुपसिद्ध श्रेष्ठी थे । उनकी धर्मपत्नी जिनगती थी । वीर जम्बृकुमार इन्हींके पुत्र थे।
प्रसिद्ध विद्वान् । विमलराज' के निकट उन्होंने विद्याध्ययन किया था। पूर्वजन्म के संस्कारके कारण वे अत्यंत प्रतिभाशाली थे। विमल राजने अपने मुयोग्य शिष्यको थोड़े ही समयमें शास्त्र संचालनमें निपुण बना दिया था। उच्च कोटि के साहित्यका अध्ययन भी उन्हें कराया था। वे मरने विद्वान् गुरुके विद्वान् शिष्य थे।
बाळकपनसे ही वे बड़े साहसी और वीर थे। उनका सुगठित शरीर दर्शनीय था। एक समय उनके साहसकी मच्छी परीक्षा हुई।
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३.४] जन युग-निर्माता।
वे राजमार्गसे जा रहे थे, इसी समय उन्होंने देखा कि रानाका प्रधान हामी विगड पहा है । महावतको जमीन पर गिराकर वह अपनी सूडको घुमाता दौड़ा आ रहा है। यमगजको ताह जिसे वह सामने पाता उसे ही चीरकर दो टुकड़े कर देता था। उपकी भयंकर गर्जना सुनकर ना की जनता भयसे व्याकुल होकर इधर उधर भागने लगी। मदोन्मत्त हाथी जम्बूकुमारके निकट पहुंच गया था। वह उन्हें अपनी सूरमें मानेका प्रयत्न कर ही रहा था कि उन्होंने उसकी सूंड पर एक भयानक मुष्टिका प्रहार किया। वजकी तरह मुष्टि के प्रहारसे हाथी बड़े जोसे चिंघार उठा। फिर उन्होंने अपने हाथके सुदृढ़ दंडको घुमाकर उसके मस्तक पर मारा। मस्तक पर दंड पड़ते ही उसका सारा मद चू। चू हो गया । वह नम्र होकर उनके सामने स्वहा हो गया । मदोन्मत्त हाथी अब बिलकुल शान्त था।
नगरकी संपूर्ण निना भयभीत दृष्टि में यह सब दृश्य देख रही थी। हाश्रीको निर्मद हुभा देख सभी के हृदय इपसे खिल गए । उनके सिम्से एक भयानक संकट टल गया ।
जनताने जम्बूकुमा के इस साहसकी प्रशंसा की और गजा विसारके राज्य दरबारसे इस वीरता के उपलक्ष्य में उन्हें योन्य सम्मान मिला।
जम्बूकुमारकी वीरता १० नगरका धनि के श्रेष्ठी समाज मुग्य था। प्रत्येक घनिक उनके साथ अपना संबंध स्थ पित करनेको इन्ठुरू था। मुन्दरी कन्याएं उनका स्नेह पानेको लालयिर थी।
जंबूकुमार वैदिक धन नहीं पड़ना चाहते थे : उवका
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महापुरुष जम्बूकुमार । [३०५ हृदय भाजीवन भविवाहित रहकर विश्व कल्याण करनेका था। उनकी भावनाएं महान थीं। वे अपनी शक्ति का वास्तविक उपयोग करना चाहते थे। वे चाहते थे जीवनका प्रत्येक क्षण संसारका मार्गदर्शक बने । जातको सद्धर्मका संदेश सुनानेको उनकी इकट अभिलाषी थी। माता पिता उनके विचारों से परिचित थे, लेकिन वे शीघ्रत शीघ्र ई वैवाहिक बंधनों में बंधा हुमा देखना चाहते थे । उनके विचारों को सहयोग मिला । श्रेष्ठी सागादत्त, कुबेग्दत्त, वैश्रवणदत्त
और श्री दत्तने उनपर अपना प्रभाव डाला । चारों ने उन्हें चारों ओरसे बांधना चाहा अंतमें वे फिल हुए । जानु कुमार की हार्दिक मनोभावनाओं को जानते हुए भी ऋषभदत्तने उ विवाहका वचन दे डाला। उनका विवाह शीघ्र ही होने वाला था किन्तु इसी समय इसके बीच में एक घटनाने रंगमें भंग कर दिया।
केलपुरके आजा मृग ङ्क थे । उनकी सुदरी कन्या विलासवतो का वाग्दान राजा बिच सासे हो चुका था। राजा मृगाङ्क उन्हें अपनी कन्या देनेको तैयार थे । कन्या भी उन्हें हृदयमे अपना पति स्वीकार कर चुकी थी । यह विवाह सम्बन्ध शीघ्र ही होनेवाला था। इसी समय एक और घटना घटी।
रत्नचूल एक अभिमानी युवक था । गजा मृगांक पर उसकी शक्तिका प्रभाव था । वह था भी शक्तिशाली, उसने अपनी शक्तिसे विलासवतीको अपनी पत्नी बनाना चाहा। उन्होंने राज मृगांकके पास अपना संदेश भेजकर विकासवतीको अपने लिए मांगा । मृगांक
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जन युग-निर्माता।
अपनी कन्या राजा बिंबसारको दे चुके थे। लचूलकी शक्तिका उन्हें परिचय था, लेकिन किसी हारूतमें उन्हें यह बात पसंद न थी। उसने अपनी कन्या देनेसे इनकार कर दिया ।
सचूसको मृगांककी यह बात असह्य हो उठी। उसने अपनी संपूर्ण सैना लेकर कालपुर पर चढ़ाई कर दी।
मृगांक इस युद्ध के लिए तैयार नहीं था। उसकी शक्ति नहीं थी कि वह रत्नचूलका मुकाबला कर सके । इसलिए इस संकटके समय अपनी यात्मरक्षाके लिए राजा बिंवसारसे उसने सहायता मांगी। बिंवसारने सहायता देना तो स्वीकार कर लिया लेकिन वे चिंतामें पह गए कि रत्नचूल जैसे वीरके मुकाबलेमें किस बहादुरको भेजा जाय । लेकिन उनके पास अधिक सोचने के लिए समय नहीं था, उन्हें शीघ्र ही सहायता भेजनी थी। अपने वीर सैनिकों को बुलाकर उनसे इस कार्यका वीड़ा उठाने के लिए उन्होंने कहा। मभी वीर सैनिक मौन थे, जंबुकुमार भी इस सभा निमंत्रित थे । वीरोंकी कायाता पर उन्हें शेष भागया वे अपने स्थानसं ठे और बीड़ा उठाकर उसे चवालिया ।
राजा बिवसाने उनके इस साहसकी प्रशंसा की और उनके सिर पर वीर पट्ट बांधकर मृगांक की सहायताके लिए वीर सैनिकों को साथ ले जानकी आज्ञा दी। बुकुमारको अपनी भुजाओं पर विश्वास था। वे अपनी वीरताके भावंशम बोले। महाराज ! मुझे आपके सैनिकों की मावश्यकता नहीं, मेरी भुजाएं ही मेरी सेना है। मैं अकेला इंसस तैनिकों के बराबर हूं। में अकेला ही जाता हूं । साप निश्चित रहिए, देखिए आपके आशीर्वादसे वह अभिमानी रकचूल अभी Prod aman
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महापुरुष जम्बृकुमार। [३०७ जंबुकुमार अकेले ही रत्नचूलके शिविरकी ओर चल दिए । अपनी सैनाके बीचमें बैठा हुआ रत्नचूक पोदनपुरके किले पर आक्रमण करनेकी आज्ञा दे रहा था। इसी समय जंबुकुमार उनके सामने बेधड़क हुंचा। उसने न तो उन्हें प्रणाम ही किया और न भादर सूचक कोई शब्द हो कहा। अकह कर उनके सामने खड़ा हो गया।
एक अपरिचित युवकको इस तरह वेधड़क अपने सामने खड़ा देखकर रत्नचूलको बहुत क्रोध आया। उसने तेजम्बरमें कहा“ अमिमानी युवक, तू कौन है? अपनी मृत्युको साथ लेकर यहां किम रद्देश्यसे माया है?” बुकुमाग्ने कहा-" मैं राजा मृगाङ्कका दृत हूं। में आपको उनका यह संदेश सुनाने माया हूं। माप वीर हैं वीरोंका कार्य किसीकी वाग्दत्ता कन्याका अपहरण काना नहीं है। पापको अपने इस गलत शब्दों को छोड़ देना चाहिए और इस अपगपके लिए क्षमा मांगना चाहिए ।
लचूल इन शब्दों को सुनकर भड़क उठा। वह बोला-" दृत तुम वंशक बाक्य मूर हो। मेरे साम्हने मताह निःशंक बोलना अवश्य हो साहसका कार्य है । तुम्हाग मूर्ख गजा मेरी वीरतासे अपरिचित नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य उसका साथ देहा है। इसीलिये उसने तुम्हें मेरे पास ऐसा कहनेको भेजा है । दून तुम अवध्य हो, जाओ और उस कायर मृगांकको युद्ध के लिए भेजो।"
"राजा मृगांक आप जैसे व्यक्तिके साम्हने युद्ध कानेको मायेगे ऐसी माशा छोड़ देना चाहिए । आपसे युद्ध करने के लिए तो मैं ही काफी हूं, यदि भापको युद्धकी बढ़ी हुई अपनी प्यास
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बुझाना है तो भाइए हम और आप निपट लें।" यह कहकर वीर जम्बुकुमार ताल ठोककर रत्नचूलके सामने खड़ा होगया ।
रत्नचूलने अपने सैनिकों को जम्बुकुमार पर आक्रमण करनेकी माज्ञा दी । सैनिक अ ज्ञा पालन कानेवाले ही थे कि पलक मरते ही बुकुमार रत्नचूनसे शि गए । सैनिक देखते ही रह गए और दोनोंमें भयंकर युद्ध होने लगा, यह युद्ध इतना शीघ्र हुआ जिसकी क्सिोको संभावना नहीं थी । जंबुकुमाग्ने अपने तीव्र शस्त्र के प्रहारसे ही रत्नचूलको घसायी कर दिया। सैनिकों ने देखा, रत्नचूल अब जंबुकुमा के बंधन में पा चुका है।
___ रत्नचूलके बंधन युक्त होते ही मैनिकोंने शस्त्र डाल दिए । जंबुकुमार विजयके माथ साथ गजा मृगांक और विलासवतीको भी अपने साथ राजगृह ले गए। वहां बड़े उत्सबके साथ राजा बिचमारका विलासवती से, पाणिगृहण हुआ। इस विजयसे वीर जंबुकुमारका गौरव चौगुना बढ़ गया।
सुधर्माचार्य उस दिन राजगृहक उद्यानमें आए थे। उनका कल्याणकारी उपदेश चल रहा था। जंबुकुमारके विक्त हृदयको उनका उपदेश चुभा । धर्मके दृढ़ प्रचारक बननकी उनकी भावना जागृत हो उठी। युद्ध क्षेत्रका विजयी वीर, भात्म विजयी बननेको तड़प उठा । भाचार्यसे उसने साधु दीक्षा चाही।।
साधु जानते थे जंबुकुमारके सन्तस्तलको, लेकिन अभी थोड़ा समय उसे वे और देना चाहते थे अंदर सोई हुई गुप्त लालसाको
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जैन युग-निर्माता ।
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स्वीकार नहीं करना चाहता । अमानत वही स्वीकार करते हैं जो कुछ अपना नहीं कमा सकते | मैंने उस अपने घनकी कुछ झांकी देखी है, उसकी चमक के आगे यह पुण्यके द्वारा दीपित क्षणिक प्रभा ठहरती ही नहीं है। तुमने उस प्रभाके दर्शन ही नहीं किये हैं । यदि तुम उस वास्तविक प्रकाशके दर्शन करना चाहती हो तो मेरे साथ उस प्रकाश मार्गकी ओर चलो। फिर तुम उस प्रकाशको देख सकोगी जिससे सारा विश्व प्रकाशित होता है। इस क्षीण विलासकी चमक मेर नेत्रोंको चकाचींव नहीं कर सकती। इसमें विलासी पुरुष ही आकर्षित हो सकते हैं - केवल वही पुरुष जिन्होंने आत्म दर्शन नहीं किया है ।
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तुम्हारा यह मादक यौवन और यह विलास किस काम पुरुषको ही तृप्ति दे सकता है मुझे नहीं । मेरी वासना तो मर चुकी है, उसे जीवित करनेकी शक्ति अब तुममें नहीं है । निष्फल प्रयत्न करके मेरा कुछ समय ही ले सकती हो इसके अतिरिक्त तुम्हें मुझसे कुछ नहीं मिलेगा ।
बालाओ ! तुम्हें मेरे द्वारा निराश होना पड़ रहा है, इसमें मेरा अपराध कुछ नहीं है । मेरा पथ पहले ही निश्चित था । मैं अपने निश्चित पथपर चलने के लिए ही अग्रसर होरहा हूं । तुम्हें यदि मेरे जीवन से स्नेह है यदि तुम मेरे जीवनको प्रकाशमय देखना चाहती हो यदि तुम चाहती हो कि मेरा जीवन तुम्हारी विलास लीला तक ही सीमित रहकर सारे संसारका बने तो तुम मेरी अवरोधक न बनकर मुझे अपने बंधनों को मुक्त करने में मदद करो ।
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महापुरुष जम्बूकुमार । [३१३ ___ एक दिनके लिए बनी हुई बालापनियोंने अपने पतिके अन्तस्तलकी पुकार सुनी । वह पुकार केवल शाब्दिक नहीं थी। यह किसी निवल भात्माका दंभ नहीं था। वह एक बलवान आत्माकी दिव्यवाणी थी । बालाओं के हृदयको उमने बदल दिया । वे आगे कुछ कहनेको असमर्थ थीं। अपने इस जीवनके स्वामी के चरणोंपर उन्होंने मम्तक डाल दिया । करुण स्वासे बोली-"स्वामी यह जीवन तो अब मापके चरणोपर अर्पित होचुका है, इसे अब हम किसकी शाणमें ले जाय आप हमारे मागके दीपक हैं भाप ही हमें मार्ग दिखलाइए । हमारा कर्तव्य क्या है यह हमें समझाइए।" ____ जम्बुकुमारका हृदय एक भारसे हलका होचुका था । अबतक मो उनके लिए बोझ था वही उनका सार्थक ही बन रहा था। उनके साम्हने एक ही पथ था । उसी पयपर चलने का उन्होंने आदेश दिया।
मार्ग साफ होचुका था । उसपर चलन भरका विलंब था। माता पिता अब उनके भवरोधक नहीं रह गए थे।
विपुल चल पर · गौतमस्वामी केवली' की शरणमें सब पहुंचे माता, पिता, पत्नियां, विद्युत चोर और उसके साथी सब एक ही पथके पथिक थे ।
___ चौबीस वर्षके तरुण युवक ने गणाधीश गौतमके चरणों में अपने नीवनको डाल दिया । गौतमने उनके विचारों की प्रशंसा की और लोककल्याणका उपदेश दिया। गणाधीशका माशीर्वाद लेका वे अपने गुरु सुधर्माचार्य के निकट पहुंचकर बोले-" गुरुदेव ! क्या मेरी परीक्षा समाप्त हो चुकी है या भभी कुछ और मंजिलें तय करनी है ?"
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३१४ ]
जैन युग-निर्माता ।
गुरुदेव उन पर प्रसन्न थे । बोले-" जंबुकुमार ! तुम तेजस्वी त्यागी हो। तुम्हारा सांसारिक कर्तव्य समाप्त हो चुका है तुम्हें दीक्षा दूंगा ।" सुधर्माचार्यने उन्हें साधु दीक्षा साथ पिता दत्त, विद्युत चोर और उसके ५०० साधु दीक्षा ली।
1 अब मैं दी। उनके साथियोंने भी
जंबुकुमारने उग्र तपश्चरण किया । तपश्चर्याके प्रभाव से उन्हें पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त हुआ। जिस दिन उन्हें यह अद्भुत शास्त्र ज्ञान उपरन्त्र हुआ था उसी दिन उनके गुरु धर्माचार्यको कैवल्य प्राप्त हुआ ।
जंबुकुमार तपश्चर्य के क्षेत्रमें अब बहुत आगे बढ़ गए थे । उन्होंने अपने बढ़े हुए तपके प्रभावसे कर्म बंधनको कमजोर कर लिया था। पैंतालीस वर्षकी आयुर्मे जंबुकुमारको केवस्य लाभ हुआ । कैवल्य के प्रभाव से आत्मदर्शन हुआ ।
चालीस वर्षका जीवन धर्मो देश और संसारको शांति सुखके पथ प्रदशन में व्यतीत हुआ ।
कार्तिकी कृष्णा प्रतिपदाको वे मधुपुरीके उद्यान में अपने योगोंका निरोध कर बैठे, इसी समय उनका आत्मा नश्वर शरीर से निकल कर मुक्ति स्थानको पहुंचा । जनताने एकत्रित होकर उनका गुणगान किया और उनकी पुण्य स्मृतिको अग्ने हृदयमें धारण किया ।
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[२०]
तपस्वी-वारिषेण ।
( आत्मदृढ़ता के आदर्श )
( १ )
मगघसुन्दरी राजगृहकी कुशल और प्रवीण वेश्या थी । वह अत्यन्त सुन्दरी तो थी ही लेकिन उसकी कामकला चातुर्यता और हावभाव विलासोंकी निपुणताने उसे और भी विमुग्ध कर दिया था - उसके भावपूर्व गायन, मृदु मुस्करान और तिरछी चितवन पर अनेक युवक विवेकशून्य होजाते थे अपना हृदय और सर्वस्व समर्पित कर देते थे ।
afts और विलासप्रिय मानवोंको अपने विलास से भरे कृत्रिम लावण्यके ऊपर आकर्षित करने में वह अत्यंत निपुण थी। वह किसी को मधुर वाक्य विलाससे, किसीको आशापूर्ण कटाक्षसे, किसीको नयनाभि
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जैन युग-निर्माता |
1
३१६ ]
रंजित नृत्य से और किसीको स्निग्ध आलिंगन द्वारा अपने रूप जाल में फंसा लेती थी और उनका धर्म और वैभव समाप्त कर देती थी ।
राजगृह में उसके अनेक प्रेमी थे, लेकिन उसका वास्तविक प्रेम किसी पर नहीं था । उसके अनेक सौन्दर्योपासक थे, लेकिन वह किसीकी उपासिका नहीं थी, उसकी उपासना केवल द्रव्यके लिए थी । उसके अनेक चाहनेवाले थे, लेकिन वह केवल अपनी चाहकी विक्रेता थी ।
अपनी रूपकी रम्सीमें बांधकर उसने अनेक युवकको दुर्व्यसन के गइरे गट्टेमें पटक दिया था। उम गर्त में कोई मानव अपने स्वास्थका स्वाहा कर अनेक रोगों का उपहार लेकर निकलता था, और कोई अपना संपूर्ण वैभव फूंककर पथ २ का भिखारी बनकर निकल पाता था । कोई न कोई उपहार पास किए विना उसके द्वारसे निकल जाना कठिन था ।
उसकी सीधी. साल किन्तु कपटपूर्ण बातों और उदीप्त विलास मदिगके पानखे उन्मत्त, विवेकशूल्य मानत्र, विषय सुख शांतिकी इच्छा रखते थे । उसके तीव्र दाहक और प्रबल वेगस्ने बहनेवाले कृत्रिम प्रेमकी मिक्षा चाहते थे और सौन्दर्यकी उपासनामें तन्मय रहकर प्रसन्न होना चाहते थे । किन्तु उन्हें यह नहीं मालूम था कि यह मायाबीपनका जीवित प्रतिबिंब, दुर्गतिका जागृत दृश्य, अधःपतन सर्वनाश और अनेक आपत्तियोंका विधाता केवल धन वैभव खींचने का जाल है |
आज सबेरे मगध सुन्दरी विलास वस्तुओंसे पूर्ण अपनी उच्च अट्टालिका पर बैठी थी। इसी समय कोकिलकी मनोमोहकको वृकने
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तपस्वी वारिषेण । [३१७
ANART उसके सामने वसंतको मुग्ध कर सौन्दर्यको उपस्थित कर दिया, उसके हृदयमें रागरंग और विलासकी उदीप्त भावना भर दी। वह हृदयहारी वसंतकी शोभा निरीक्षणके लोभको संवरण नहीं कर सकी। मादक शृङ्गारसे सजकर वसंत उत्पव मनाने के लिए वह रामगृह के विशाल लपवनकी ओर चल पड़ी । उपवनके जवीन वृक्षोपर विकसित हुए मधु' कुसुमोको देखकर उस दिनोदिनीका हृदय खिल उठा। पधुरमसे भरे हुए पुष्प समूहपा गुजार करते हुए मधुपों के मधुर नादने उसके हृदयको मुग्ध कर दिया । उम्बनकी प्रत्येक शोभासे उसका हृदय तन्मय हो उठा था । कोकिलका कलिन • नन पक्षियों का मधुर कलाव और प्रेमका संदेश सुनाते हुए एक डाल से दृपरी डाली पर कुदकना, चहचहाना दृश्यको वाप छीन रहा था।
उपवनके सजीव सौन्दर्य देवने हुए उसकी दृष्टि एक दम पोर जा पही यह एक चमकता हुआ हार था जो श्रीकीर्ति श्रेष्ठ के लेमें पड़ा हुआ था । मगधन्दरीका मन उनकी मोहक प्रभा पर ग्ध होगया । वह आश्चर्य चकित होकर विचार करने लगी। मैंने बतक कितने ही धनिकों को अपने कर जाल में फंपाया और नसे अनेक अमूल्य उपहा प्राप्त किए, लेकिन इपलाइके सुन्दर रिसे मे। कंठ अबतक शामित नहीं होसका, यह मेर सौन्दर्य के लिए त्यन्त लज्जाकी बात है। अब इम हारसे कंट मुशोभित होना हिए नहीं तो मेग सारा आकर्षण और चातुर्य निष्फल होगा। ____नारियों को अपनी स्वाभाविक प्रकृतिके अनुमार बहुमूल्य वस्रों और भूषणोंसे प्राकृतिक प्रेम हुमा करता है। अधिकांश महिलाएं
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३१८] जैन युग-निर्माता। चमकीले भूषण और भड़कीले वस्त्रोंको पहन कर ही अपनेको सौभाम्य शालिनी समझती हैं । वेशक उनमें स्गुणों के लिए कोई प्रतिष्ठा न हो, विद्या और कलाओं का कोई प्रभाव न हो, शील और सदाचारका कोई गौरव न हो, लेकिन वह केवल नयनाभिरंजित वस्त्र और भूषणों से ही मापनको अलंकृत कर लेनेपर ही कृत कृत्य समझ लेती हैं। अपनेको सम्पूर्ण गुण सम्पन्न और महत्त्वशालिनी समझ लेने में फिर उन्हें संकोच नही होता। इसलिए ही नारी गौरवके सच्चे भूषण और अनमोल रत्न विद्या, कला, सेवा, संयम, सदाचार भादि सद्गुणों का उनकी दृष्टिमें कोई महत्व नहीं रहता। संपारमें यश और योग्यता प्राप्त करनेवाले बहुमूल्य गुणों का वे कुछ भी मूल्य नहीं समझतीं, और न उनके पानेका उचित प्रयत्न करती हैं। वे हरएक हालतमें अपनेको कृत्रिमतासे सजाने का ही प्रयत्न करती हैं । गहनों के इम बढ़े हुए प्रेमके कारण वे अपनी आर्थिक परिस्थितिको नहीं देखतीं वे नहीं देखती जेवरों से सजकर स्वर्ण परी बनने की इच्छा पूर्तिके लिए उनके पतिको कितना परिश्रम करना पड़ता है, कितना छल और कपट काके अर्थ मंग्रह करना पड़ता है। और वे किस निर्दयतासे उनके उस उपार्जित द्रव्यको जेवरोंकी बलिवेदी पर बलिदान कर देती हैं। कितनी हो भूषणप्रिय महिलाएं अपनी स्थितिको भी नहीं देखती और दूसरी धनिक बहनों के सुन्दर गहनोंको देखकर ही उनके पानेके लिए अपने पति और पुत्रोंको सदैव पीड़ित किया करती हैं, और सुन्दर गृहस्थ जीवनको अग्नी भूषण प्रियताके कारण कलह और झगड़ेका स्थान बना देती है।
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३२४] जैन युग-निर्माता। बहुमूल्य हारसे अब तक सूना ही है । ओह ! उस चमकदार हारकी प्रभा भब तक मेरी आंखों के साम्हने नृत्य कर रही है। यदि उसे पहनकर मैं तुम्हारे साम्हने पाती तो तुम मेरे सौन्दर्यको देखते ही रह नाते । यदि तुम्हारे जैसे कुशल प्रियतमके होते हुए भी मैं वह हार नहीं पा सकी तो मेरा जीना बेकार है । प्रियतम ! बोलो क्या वह हार तुम मेरे लिए ला सकते हो ? माह ! यदि वह सुन्दर हार मैं पा सकतीयह कहते हुए उसके मुंह पर फिर एक विषादकी रेखा नृत्य काने लगी।
विद्यतने उसे सान्त्वना देते हुए दृढ़ताके स्वामें कहा-ओह प्रियतमे ! इस साधरण में कार्य के लिए इतनी अधिक चिंता तुने क्यों की ? मैं समझता था इतनी लम्बी भूमिका के अन्दर कोई बड़ा रहस्य होगा। लेकिन यह तो मेर बाएं हाथका खेल है। उस तुच्छ हाके लिए तुझे इतनी बेचनी हो रही है ! तू से अब दृा कर । विद्युतके हस्त कौशल को और साथ ही अंग श्रेष्ठी के इस चमकते हुए हारको अपने गले में पह! मी ही देवेगी ।।
मगवसुन्दरी इपसे खिल उठी थी, उसने पूर्णदुकी हंसी विखेरते हुए कहा-प्रियतम ! अहा ! आप वह हार मुझे ला देंगे ? आए अवश्य ही ला देंगे। आप जैसे प्रियतमके होने में उम म कसे वंचित रह सकती हूं ? हार देकर आप मेरे हृदयके संच स्वामी बनेंगे। प्रियतम ! भाज मापके सच प्रेमकी परीक्षा होगी। मैं देखती हूं कितनी शीव्र मेरा हृदय हासे विभूषित होता है। . विद्युत सब एक क्षण भी वहां नहीं ठहर सका। हार हरणके लिए वह उसी समय श्रीषेण श्रेष्ठीके महलकी ओर चल पड़ा। उसने
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तपस्वी वारिषेण । [३२५ भानी कलाका परिचय देते हुए श्रेष्ठोके शयनागारमें प्रवेश किया। श्रीषेणके गले का चमकता हुआ हा उपके हाथमें था। हार लेकर वह महलके नीचे उतरा । उसका दुर्भाग्य माज उसके पास ही था। नीचे उतरते हुए राज्य-सैनिकों ने उसे देख लिया। विद्यु ने भी उन्हें देखा था। उसका हृदय किसी अज्ञात भयसे धाक उठा । लेकिन साहस और निर्भयताने उRका साथ दिया, नीचे उतरकर अब वह राज पथपर था।
विद्युतने हार चुरा तो लिया लेकिन वह उसकी चमकती हुई प्रभाको नहीं छिप मका । उपके हाथमें चमकते हुए हारको देवकर मैनिक उसे पकड़ने के लिए उसके पछ दौटे। सैनिकों को अपने पीछ दौस्ता देख विद्यत भी अपनी रक्षा के लिए तमातिसे दोहा । भागने में वह सिद्धहम्न था। प्रत्येक मार्ग उसका देखा हुआ था। वह इघर उघासे पक्क' काटना मन को धोखा देता हुआ जन शुन्य स्मशानके पास पहुंचा। उपने को बचाने का माम प्रयत्न किया था। लेकिन आज उपका साग कौशल वकार था, वह अपने को बचा नहीं मा ! मनिक उपके पीछे तीन से दौड़े दर माह थे। उसने साइप करके पीछे की ओर देवा, मानक उसके बिलकुल निकट आ चुके थे। अब वह सैनिकों के हाथ पहनेको हो था-उसका जीवन अब मुरक्षित नहीं था, इमी ममय दैवने उपकी रक्षा की। एक उपाय उसके हाथ लग गया, उसे अनंको बचाने के प्रयत्न में सफलता मिली। पास ही एक वृक्ष के नीचे राजकुमार वारिग योग सावन का रहे थे, उसने उस बहुमूल्य हारको उनके सामने फेंक दिया और स्वयं वे पासके पेड़ोंकी झुरमटमें जा छि।।
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जैन युग-निर्माता .
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(४)
राजकुमार बारिषेण राजगृहके प्रसिद्ध नरेश बिंबसा के प्रतापशाली पुत्र थे । माता चलिनी द्वारा उन्हें बाल्यावस्थासे ही धर्म और सदाचार संबंधी उच्चकोटिकी शिक्षा उन्हें मिली थी। रानी चलिनी उच्चकोटिकी धार्मिक प्रतिभाश ली महिला थी, पथभृष्ट हुए राजा विचसारको उन्हाने धर्मके श्रेष्ठ मार्गपर लगाया था। विदुषो और धर्मशीला माताके जीवनका प्रभाव बारिशके कोमल हृदय पर पड़ा था।
बालकों के जीवनकी सच्ची साक्षिका और उसे सुर्य ग्य बनानेवाली सर्वश्रेष्ठ शिक्षिका उसकी जननी ही है। पुत्रको जो शिक्षा जननी बाल्यावस्था से ही सालतापूर्वक हंसते और खेलते हुए देखकर उसके जीवनको मधुर और मुखमय बना सकती है उसकी पूर्ति सैकड़ों शिक्षिकाओं द्वारा भी नहीं हो सक्ती । माता पिताके आ चरणों को बालक बाल्यावस्था से ही ग्रहण करता है । पिताकी अपेक्षा बालकको माताके संक्षण में अपना साधक जीवन व्यतीत करना पड़ता है। बालकका हृदय मोमके सांचकी तरह होता है, माता जिस तरह के चित्र उसके मानस पटल पर उतारना च हे उस समय आसानी से उतार सकती है। बालक माता के प्रत्येक संसार उमके आचाण, विचार और संकलों का अपने अन्दर एक सुन्दर चित्र ननाता रहता है, वह जो उस समय उसका दायरा केवल माताकी गोद तक सीमित रहता है उसके चारों ओर वह जिन विचारोंके रंगों को पाता है उन्हींसे अपने विचारों के धुंधले चित्रों को चित्रित करता है। समय पाकर उसके वही धुंधले चित्र वही अपरिपक्व विचार एक हद संसासका स्थान ग्रहण कर लेते हैं। वही
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तपस्वी वारिषगर। [३२७ संकर उसके जीवनसाथी होते हैं। समयकी गति और अनुकूल बायु उन्हीं विचारोंको जीवन देकर पृष्ट करती है।
विदुषो चेलिनी हम मनोविज्ञानको जानती थी। उसने वरिषं. मके जीवनको पवित्रताके सांचेमें ढालने का महान प्रयत्न किया था । उसने उप वातावरणसे अपने पुत्रको बचाने का प्रयत्न किया था जिसमें पड़कर बच्चों का जीवन नष्ट हो जाता है।
अधिकांश महिलाएं भाने बालकों को मारघरमें मग्न रखकर उनके जीवनको विलासमय बना देती हैं। शृंगार और बनावट द्वारा उन्हें हाथका विलौना ही बनाए रहती है । जग जरामी बातों में उन्हें डग धमकाकर और मृतका भय दिखाकर उनका हृदय भयसे भर देती हैं। विद्या, कला, नीति और सदाचारके स्थान पर असभ्यतापूर्ण विदेशी शृङ्गार और बनावट से उनका मन और शरीर सजाती रहती है। उनके स्वान के लिए शुद्ध और पवित्र वस्तुएं न देकर बाजारको सड़ी गली मिठाइयों और नमकीनोंकी च ट लगाकर उन्हें इन्द्रिय लोलु। बनाती हैं। भृष्ट, दुगवारी, व्यसनी तथा विवेकहीन सेवकों की संशितामें देका उनकी उन्नति और विकाम मार्ग बन्द कर देती हैं। उन दुर्व्यसनी सेवकों से वह गंदी गालियां सीखते हैं। अपवित्र आचरणाम अग्ने हृदयको भाते हैं और अपने जीव को निम्नतर बनाते हैं। उनके हाथमें जीवन विकसित करनेवाली पवित्र पुस्तके न देकर उन्हें जेवर्शसे सजाती हैं, विद्या और ज्ञानसंपादनकी अपेक्षा वे खेलको ही अधिक पसंद करती हैं। विदेशी खिलौनों और महकदार भूषणों के स्वरीदने में जितना द्रव्य वे बरबाद
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३३६ ] जैन युग-निर्माता ।
महाराज ! इतने अचंमेकी बात मैंने भान तक नहीं देखी। राजकुमारके शरीरके अन्दर बड़ा ही चमत्कार है, माप चलकर देखिए, मैंने उनके शरीरपर तलवारका वार किया लेकिन उनके पुण्यमय शरीर पर उसका कुछ भी असर नहीं हुआ।
बधिकके द्वारा कुमार वारिषेणके सम्बंधमें इस आश्चर्यजनक घटनाका होना सुनकर महाराज अपने मंत्रियों सहित वहां जानेका प्रयत्न करने लगे। इसी समय उन्होंने अपने दाबामें एक व्यक्तिको भाते हुए देखा-वह विद्युत चोर था। विद्युत यद्यपि अत्यंत निष्टु' प्रकृतिका पुरुष था लेकिन जब उपने प्रजाप्रिय कुमार वारिषेगके निर्दोष प्राण नष्ट होने का संवाद सुना तब उसका हृदय जो कभी किसी घटनासे नहीं पिघस्ता था-करुणासे आई हो उठा । इसी समय उमने बधि. कोंके द्वारा कुमार वारिपेणकी विचित्र रीतिसे प्राण रक्षाका समाचार सुना । अब उसे अपने अपराधके प्रकट होने का भी भय हुआ था इसलिए यह शीघ्रसे शीघ्र महाराज के पास अपना अपराध प्रकट कानेके लिए भाया था। आते ही वह महाराजाके चरणों में गिर पड़ा
और बोला-महाराज ! आप मुझे नहीं जानते होंगे। मैं आपके नगरका प्रसिद्ध चोर विद्युत हूं, मैंने इस नगामें रहकर बड़े २ अगष किए हैं। यह ममौलिक हार मैंने दी चुराया था लेकिन अपनेको सैनिकों के हाथसे बचता हुआ न देखकर ध्यानाथ हुए कुमारके माम्हने फेंक दिया था। वास्तवमें कुमार बिलकुल निर्दोष हैं। हारका चुगनेवाला तो मैं हूं, भाप मुझे प्राण दण्ड दीजिये । विद्यतचोरके कथनस महाराजको कुमार बारिषेणकी निर्दोषताप पूर्ण विश्वास होगया । वे शीघ्र ही वधस्थलकी आर पहुंचे।
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तपस्वी वारिषेण ।
[ ३३७ क्रूरकी मालाओं से सुशोमिन, पुण्यकी पवित्र यामासे परिपूर्ण काजकुमार बारिषेणकी भव्य मुखमुद्रको उन्होंने दूर से ही देखा उसे देखकर राजा विवसारको अपने द्वारा दी गई अन्यायपूर्ण दंड'ज्ञा पर बहुत ही पच्छा गए हुआ, उनका हृदय पश्चातापके वेगसे भर आया । वह बने पुत्रका दृढ़ आलिंगन कर हृदयके आतापको अश्रुओं द्वारा चहाते हुए बोले- पुत्र ! कोषकी तीव्र भावना में बहकर विचारशून्य टोफर मैंने तेरे लिए जो दंडाज्ञा दी थी उसका मुझे बड़ा खेद है । जैसे सत्यवती और सचरित्र पुत्रके दिए संपूर्ण जनता के समक्ष जो तकरणे व्यवहार किया है उसे मैं अपना महान् अपराध समझता हूँ । आह ! कोके वेगने मुझे बिलकुल अज्ञानी बना दिया था इसकि मैं तेरी पवित्रनापर तनिक भी विचार नहीं किया । पुत्र ! तू किस्कुल निर्दा। है, तू मेरे उम अन्याय ना भविचारपूर्ण कार्यके लिए क्षमा प्रदान कर | वास्तव में तू सच्चा और दृढ़ प्रतिज्ञ है। धार्मिक के इस अपूर्व चमत्कारने तेरी सत्यनिष्ठाको सारे संसार में अखंड रूप से विस्तृत कर दिया है। देवों द्वारा किए आश्चर्यजनक कार्यने तेरी मच्चरित्रता पर अपनी हड़ छाप लगा दी है, तेरी इस अलोकिक दृढ़ना और क्षमता के लिए तुझे मैं हार्दिक धन्यवाद देता हूं ।
महाराज के पश्चाताप पूर्ण हृदयसे निकले करुण उद्वारोंसे कुमार वा रषेणका हृदय विनय और प्रेमसे आविर्भूत होगया । कहने लगापिताजी ! आपने मुझे दंड देकर न्यायकी रक्षा और कर्तव्य पालन किया है आपका यह अपराध कैसे कहा जा सकता है? कर्तव्य पालन कभी भी की कोटि में नहीं आ सकता। हां, यदि आप मुझे सदोष
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३३८.] जैन युग-निर्माता। समझ कर भी पुत्र प्रेमसे मा+र्षिहाका मुझे उचित दंह नहीं देते तो यह अवश्य ही आपका भाव होता । ___ जो गजः मनुष्य प्र। अथवा व्यवहारिक सबन्ध पड़कर न्यायका उल्लघन करते हैं वह न्यायकी हत्या करनेवाले अवश्य ही अपराधी हैं। मैं जानता हूं मैं अघी नहीं था, लेकिन आपके न्यायने तो मुझे माधी ही पाया था, फिर आप मुझें दंड न देते तो बाकी जनता इसे क्या समझो क्या वई यही नहीं समझती कि मापने पुत्र-ममें
I न्यायकी अज्ञ' की है, ऐसी दशामें आप क्या उस लोकापवादको महन करते हुए न्यायकी रक्षा कर सकते ? कभी नहीं ! आपने मुझे दंड दका न्याय त की रक्षा करते हुए प्रजावत्सलताका पूर्ण परिचय दिया है, म पकी हम न्यायगयणतासे आपका सुयश संपारमें विस्तृत रूपमे प्रख्यात हो।।। मुझे आपके न्यायका गौरव है. मे। हृदय उस समय जितना प्रमन्न था उतना ही अब भी प्रमन्न होरहा है।
यह तो मेर पूर्व जन्मक कृतमोका संबंध था जिसके कारण मुझे अपराधों की श्रेणी में माना । । कर्मफल प्रत्येक व्यक्ति के लिए मोगना अनिवार्य है इ के लिए किसी व्यक्तिको दोष देना मूर्खता है।
धर्मभक्त पुरुषों के साहस, दृढ़ना और धार्मिक्ताका परीक्षण तो उपसर्ग और भापनिये ही हैं। यदि मेरे ऊपर यह उपसर्ग न माया होता, इस तरह मेरा तिरस्कार न हमा होता तो मेरे सद्भाचरण और मात्म दृढ़ता का प्रभाव मानवों पर कैसे पडता ? चंदन नितना घिसा जाता है पुष्प यंत्रमें जितने पेले जाते हैं उनसे उतना ही अधिक सौम्म विकसित होता है। स्वर्ण जितनी तेम आंच पाता है, उतनी ही अधिक चमक बह पाता है। इस तरह धार्मिक और कर्तव्य नित
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हवती बर्द्धमान अनंतशक्ति महात्मा महावीरने, कठोर उपसर्गौके साम्हने विजय प्राप्त की । आत्म शक्ति बढ़े हुए भगवान् महावीरने कथानकी संरक्षता में अपनी समस्न आत्म शक्तियका संगठन किया फिर पद दलित कराए और क्षीण हुए मोड सुभटपर भयंकर प्रहार क्रिया । ध्यानकी तं व्रनाके साम्हने मोह एक क्षणको भी स्थिर नहीं रह सका | उसके साथी कोष, मान, माया, लोभ राग, द्वेष अ. दिके पैर भी उखड़ गए, उसका सम्पूर्णन: पतन हुआ |
महावीरके निर्मल आला अनंत ज्ञानका प्रकाश फुगत हुआ उसके उदित होते ही संपूर्ण आत्म गुण विकसित होगए, केवलज्ञान - और अनंनदर्शनकी दिव्य शक्ति उन्होंने नगर के सभी पदार्थों का
दिग्दर्शन किया !
( ४ )
आत्मविजयी महात्मा महावीर के अलौकिक ज्ञान साम्राज्य का महा महोत्सव मनाने के लिए स्वर्गाधिपति इन्द्र देवताओंके समूह सहित आया। उनके अज्ञान म्राज्यको महिना प्रदर्शि करने के लिए कुबेर को उनका सुन्दर सभास्थल बनाने का आदेश दिया । मानवों के हृदयों में आश्चर्य हर्ष और आनंदकी धारा बहानेवाला सभास्थल बन गया । उसमें चार समाएं थीं समा के बीचमें सुन्दर सिंहासन था, सिंहासन पर बैठे हुए भगवान महावीरके दिव्य शरीरका दर्शन कर देव और मानव अपने नेत्रोंको सफल बनाने लगे ।
महावीर के समवश- णमें प्रत्येक जातिके मानवको समान अधिकार था । प्राणी समुदाय उनका भाषण सुननेको उत्पुरु था, लेकिन
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गणराज गौतम।
[३४९
उनकी दिव्यध्वनि प्रष्ट नहीं हुई। इन्द्र ने इसका कारण जानना चाहा, वे कारण ममझ गए। मरण यह था कि उनकी दिव्य ध्वनिसे प्रकट होनेवाले उपदेशोंकी व्याख्या काला कोई विद्वान उप समय वहां उपस्थित नहीं था। इन्द्र की इस मार को इल करना चाहते थे । मानवों के चंबल चित्तको वे जानते थे उपस्थित जनता महावीरकी वाणी सुनने को कितनी उत्सुक है उन्होंने हम समस्याके सुरझाने का पयत्न किया और वे उसमें सफल भी हुए । समस्याका एक ही हल था-गोतम ब्रह्मणको लाना । पन्तु उसका लाना भी तो क'ठन था लेकिन उसे कौन लाए ! अंतमें इन्द्र ने स्वयं इस कायको अपने हाथमें लिया । होने जनताको संबोधित करते हुए कुछ समयको धैर्य रखने का आदेश दिया और फिर वे ब्राहाका वेष घाण कर विद्वान् गौतमको लगके लिए चले दि० ।
गौतम शिष्य मंडली के समृमें बैठे हुए अपनी प्रतिम के प्रबल तेजको प्रकाशित कर रहे थे । वे दीर्घ शिखाधारी भने पांडिन्या । अनुचित अहंकार रखनेवाले वेद विषय ११ गंभीर ६. ख्यान दे रहे थे उनका हृदय अत्यंत प्रसन्न और सुख मम था। विवेचना करते हुए उन्होंने एक बार अपनी शिष्र मंडलीकी ओर गंभीर दृष्टि मे देवा । शिप्यमण सरल और मौन रूपसे गुरुदेवके मुस्वसे निकले गंभीर विवेचा को स्मुक्ताके साथ सुन रहे थे। इसी समय शिवा मृत्रसे येष्टित एक शरीरधारी ब्रह्मगने य रूपान सभामें प्रवेश किया ब्रह्मण अत्यंत वृद्ध था उसके चेहरे से विद्वत्ता स्पष्ट रूपसं झलक रही थी व्यास न सुनने की इच्छासे व से पीछे एक स्थान ।। बैठ गया ।
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जैन युग निर्माता |
गौतमका विवेचन वास्तवमे विद्वत्त पूर्ण था । बड़े झरने के फलकलनादकी तरह धारावाहिक रूपसे बोल रहे थे । गंभीर तर्क और युक्तियों ने अपने सिद्धान्तकी पुष्टि करते जाते थे । शिष्यमंडली मंत्रमुक्की तरह उनका व्याख्यान सुन रही थी । ओजस्विनी भाषा में विवेचन करते हुए विद्वान गौतम सचमुच डी सरस्वती के पुत्रकी तर
लुम पड़हे थे। उनकी उत्तिएं उनकी गवेषणाएं और उनकी वक्तृताका ढंग चमत्कारिक था : विद्वानोंकी दृष्टिमें आजका व्याख्यान उनका अत्यंत महत्वपूर्ण था, व्याख्यान समाप्त हुआ : धन्य धन्यकी उच्च ध्वनि समाम्थान गूंज उठा । सम्पूर्ण शिष्यमंडलीने एक स्वर से इम अभूतपूर्व व्याख्यानका अनुमोदन किया ।
शिष्य समूह में बैठा हुआ एक वृद्ध पुरुष ही ऐसा थ जिसके मुंहसे न तो कोई प्रशंसात्मक शब्द ही निकला और न उपने इस व्याख्यानका कुछ भी समर्थन ही किया। वह केवल निश्चल दृष्टिसे उनके मुंडकी ओर ही देखता रहा । विद्वान् गौतम उसके इस मौको सहन नहीं कर रूके वे कुछ क्षणको सोचने लगे। मेरे जिस भाषणको सुन कर कोई भी विद्वन प्रशंसा किए बिना नहीं रह सक्त उसके प्रति हम ब्राह्मणकी इतनी उपेक्षा क्यों है ? इमने अरना कुछ भी महत्त्व प्रदर्शित नहीं किया। तब क्या इसे मेरा भाषण रुचा नहीं ! अच्छा तब इसे अपने भाषणका और भी चमत्कार दिखलाना चाहिए। देखूं इसका मन कैसे मुग्ध नहीं होता है। मैं देखता हूं यह ब्रझण अब मेरी प्रशंसा किए बिना कैसे रह सकता है ? वे अपने प्रखर पत्की घारा बहाते हुए अपने विशाल ज्ञानका परिचय देने बये ।
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ANNA
गणराज गौतम । ... [३५१ इस अतिम व्याख्यानमें उन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिमाके चमत्कारको प्रदर्शित कर दिया था। उनकी शिष्य मरली ने भी उनका इस तरह धारावाहिक और तक तथा गवेषणा पूर्ण भाषण भी नहीं सुना था, यह चित्र लिस्ति थे। द्विगुणित नयध्वनिसे एक बार सभा मंडप फिर गूज उठ'. हा रस्यान सम हुआ, विद्वान गौतमका साग शरीर पसीने से तर हो । था। अन्य दिन की अपेक्षा माज अपने भाषणमें उन्हें अधिक :: क हा था मान देखा वृद्ध ब्राह्मण म भी मौन । के हो ५१ म । [षण का कुछ भी प्रभाव पहा नहीं दिस्वता था।
गौ14 अपने अ श्चर्यको ही रोक सके. दृद्ध ब ह्मणकी ओर एक तीव्र इष्टि डालने हए वे बोले । विपन ! तुमने मेर म पांडित्य भरे हुए चमत्कारिक भाप का कुछ भी अनुमोदन नहीं किया । क्या तुम्हें मेरा यह ६८ च्यान नहीं रुचा ? तब क्या में भक्षण सो नष्ट नहीं था! क्या में समान कोई महा विद्व न इस पृथ्व'- मंडलपर तुमने देखा है ? मुझम + ष्ट हो तुमने मेरे इस भाषण की प्रशसा क्यों नहीं की ?
वृद्ध ब्रह्मणने कहा-विद्वान गौतम ! आको अपनी विद्वताका इतना अभिमान नहीं होना चाहिए, मापसे सहस्रगुणी अधिक प्रतिभा रखनेवाले विद्वान् इम थ्वी मंडलपर हैं
__ आश्चर्यसे अपना मम्तक हिलाते हुए सम्पूर्ण शिप्पमंडली ने एक स्वासे कहा-कदापि नहीं, गुरूराजके समान प्रतिभा संन्न पुरुष इस पृथ्वी मंडकपर दूसरा कोई हो ही नहीं सकता। उनका स्वर कोषपूर्ण था।
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३५६] जैन युग-निर्माता । सर्वज्ञ घोषित करनेवाला दिगम्बर महावीर तेरा गुरु है ? अच्छा चल, मैं उससे अवश्य ही विवाद करूंगा और तेरे प्रश्नका भी उत्तर दूंगा।
ब्राह्मण बेषधारी इन्द्रराज जो कुछ चाहते थे वही हुभा । वे किसी तरह ज्ञानमदसे मदोन्मत्त गौतम ब्राह्मणको भगवान् महावीरके सभास्थल में लेजाना चाहते थे, जिसे गौतमने स्वयं ही स्वीकृत किया। वे प्रसन्न होकर बोले-विद्व न गौतम ! हम आपकी बातसे सहमत हैं, आप शीघ्र ही मेरे गुरुके पास चलिए ।
महावीरके सभास्थल की महिमा बढ़ने वाला सभ के बीच में एक विशाल मानस्तंभ था जिम पा जैनत्वका प्रदर्शक केशरिया झंडा लहरा रहा है। मानस्तंभके चारों ओर शांति का साम्राज्य स्थापित करनेवाली दिगम्बर मूर्तियां विराजमान थीं। छवषधारी इन्द्रके माथ २ चरते हुए दृसे ही मानम्तमकी देखः । उसे देखते ही उसके हृदय पर विलक्षण प्रभाव पहा, वह महावीर की माता का विचार ने लगाउसके हृदयका मिथ्या कार उस मनातमको देते हैं। कुछ कम हो गया, उसका मन अब २२२ औ शान्त था। सरनाक पव'हमें वह कर उसने बहन महायों के समाचल प्रवर ।
अनंत दीति सूर्यमुलको पभाको लजि - कनेवरटेको उमने देखा, दाता औणि मानव मूह शांत रम्र सौर मांत हुमा उनका उपदेश म. को 'क हुशाटा है। एक बार पूर्ण दृष्टिसे उन्होंने उनके प्रति... और वार लि मुख मंडलको देखा, उनकी शांत मुद्राका गौतमक हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा,
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गणराज गौतम । [३५७ उनका मन विनय और भक्तिसे नम्र हो गया। कभी किसी के साम्हने न झुकनेवाला उनका मस्तिक भगवान महावीरके लागे झुका, उनका सारा अभिमान गलित हो गया।
हृदयकमईकार नष्ट होते ही सद्विचारकी भावनाएं लहराने लगीं, वह बोलने लगे- अहा ! जित महात्माका इतना प्रभाव है, जिसके समवशरण की इतनी महिमा है, बहे ऋषि, महात्मा और तत्वज्ञानी जिसकी चरणसेवामें उपस्थित हैं, उस महात्मा नहावीरसे वादविवाद काके मैं किमताह विजय प्राप्त कर सकता हूं? इनके साम्हने मेरा वाद करना हास्य करने के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। सूर्यमंडलके सामने क्षुद्र जुगनू की ममता करना, केवल अपनी मुविनाका परिचय देना ही कहा जायगा। खेद है मुझे अपने अशरज्ञानका इतना अभिमान रहा, लेकिन मुझे इप है कि मैंने उपकी तइको शीम ही पालिया ।
यह सच है जबतक कोई साधारण मानव अपने साम्हने किसी समाधारण व्यक्ति को नहीं देखता, तबतक उसे अपनी क्षुदतःका भान नहीं होता, और उसे बहा अभिमान रहता है। उंट जचतक पहाडकी उच्च चोटीके साम्हने से नहीं निकलता तबतक अग्नेको संसार में सबसे ऊंचा मानता है, लेकिन पहाडके नीचसे माते ही उसका अपनी उच्चताका सारा अभिमान गल जाता है। मेरी भी आज वही दशा है। सत्य ज्ञान और विवे कसे रहित में अपनको पूर्ण ज्ञानी मानता हुआ में अबतक कूमंडूक ही बना था, लेकिन महात्माके दर्शनमात्रसे मेरा सारा भ्रमजाल भंग होगया । अब यदि मैं अपनेको वास्तविक मानव बनाना चाहता हूं तो मेरा कर्तव्य है कि मैं इनसे वादविवाद
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३५८) जैन युग-निर्माता . न करूं नहीं तो इस विवाद में मुझे मिवाय हास्य और अपमान के कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। मे। जो कुछ गौरव आज है वह भी नष्ट हो जायगा । इसके अतिरिक्त में इनके उम ब्राह्मण शिप्यके प्रश्न उत्तर देने में भी असमर्थ रहा, इसलिए मुझे अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार इनका शिष्यत्व ग्रहण करना चाहिए, ऐसे सर्व पूज्य महात्मा शिप्य बनना भी मेरे लिए एक महान गौत्वकी बात होगी। इस तरह विचार करते हुए महामना गोतमने अपने संपूर्ण शरीरको पृथ्वी तक झुका का भगवान महावीका साग प्रणाम किया । मोड कर्मका परदा भंग इ। नानेसे उनका हृदय सम्2 ग श्रद्धा और ज्ञानसं भर गया था, उन्होंने भक्तिके आवेशमें जाकर भगवान महावी सुन्दर इ.ब्दों में स्तुति की, फिर उनका शिष्य बन कर पूर्ण ज्ञान प्रत कामे की प्रार्थना की। भगनान महावीग्ने अपनी करण की महान घा। बहाने हुए उसे अपनी शरण में लिया और उसे जश्वी दशा प्रदान की। गौतमके साथ उसके दोनों बंधओं में सनी रिप्याने मी जैश्वरी दीक्षा ग्रहण की ! 'जैन धमकी जय' से मारा भासमान गंज उठा।
सभा स्थित सभी व्यक्तियोंन गौतमके इस समयोगी सुकृत्यकी सराहना की । मभिमानके शिखर पर बढ़ा हुभा वित्रादी गैतम एक समय में ही भाव न महावीरका प्रधान शिप्य धेन गया। साधुओंक गणने भी हैं अपना प्रधान स्वीकार किया, और उन्हें मणाकी उपाधि प्रदान की। यह सब कार्य पलक मारत हुआ. माना किसी जादूगरने जादू कर दिया हो, ऐया यह सब कार्य होगया । भगवान महावीरके यह अद्भुत मार्षणका प्रभाव था जो अहिंसा और सत्यके
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गणगज गौतम .
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रहस्यसे विमुम्ब रियाज्ञान मक्त गौ-. Dr HIT : मोक्षलक्ष्मीका महापात्र - सा । धन्य : ।। . पष्ट और धन्य भह मनोनी सोमा
पाखंडों का धंय कानेवाली, मिना यादियों की मद्रविमर्द और सत्यार्थ धर्मका इम्य दध 'टत नेताली मात्र न ड वर' वाणी का प्रकाश हा। उनका दियव निदा तस्व. पंन मनाय, नक पदाये, हा के जव, छड लेदया ननियों के
पास, शंच मामान, नान और गृहस्थोंक ५२४ और का विवेतन न ... गृध और च जीवनके +70147 जाने लगे औ क : 15: भा का ओंका नारा " । जयनी'त ज ५. म्। एत का विश्व
शमें फटमने लगा, म..अपना मियाार त्या मान व शामकी शरण माए । नदी डि ताई .. श्रा। अज्ञानताका अधेि । मागा । अत्याचार और नाच रोक 1की, हि और बलिदान पथात अमिव •ष्ट हुश्रा औ सभी पाणी मुख और शांति की गयी लेने लगे
कतिको कृष्ण अमाव-2 की जानी राय थी, ., मय कुछ तारे झिममिल हो रहे थे, म कामना गुनास, मंद पाने के लिए रात्रिको क्षीण चादरें छिग हुअा मुमकुम ! ५, अन्वतम कुछ समयमें ही अपने साम्राज्यमे हाथ धानको शा. प्रभात होने में
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जैन युग-निर्माता।
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उन्होंने अपना अल्प समय ही ऋषि अवस्थामें व्यतीत का पाया था कि पूर्वजन्मके असाता कर्मने उनके ऊपर आक्रमण किया। उन्हें महा भयानक भस्मक रोग उत्पन्न हुआ, क्षुवाकी ज्वाला उग्र रूपमे धधकने लगी, मुनि अवस्थामें जो मला रूखा सुवा मोजन उन्हें प्राप्त होता था वह अमिमें सूखे तृणकी तरह भस्म होजाता था और क्षुधाकी ज्वाला सी भयानक रूप से जलती रहती थी, इससे उनका शरीर प्रतिदिन क्षीण होने लगा ।
इस भयानक वेदनासे स्वामीजी तनिक भी विचलित नहीं हुए और इस दारुण दुःखको सातापूर्वक सहने लगे, किन्तु इस रोगने उनके लोककल्याण और जनसेवा वृत्तिके मार्गको रोक दिया था।
म्वामी समंतभद्र कायरता पूर्वक आलस्यमें पड़े रहका आना जीवन व्यतीत नही करना चाह थे। वे अपने जज के प्रत्येक क्षणसे जैनधर्मकी प्रभावना और उपके सत्य संदेश में ..) पवित्र बनाना चाहते थे इस मार्ग ६६ व्याधि कटकम्वरूप डोई थी. इतना ही नहीं था किन्तु अब तो 4-4 भयाक कान के कारण शास्त्रोक्त नुनिजीवन बिताने में भी हो वद केरल मात्र नाम र
.. नीय केवल मुवषरे में ही था । ५६ नहीं कि सुनिता धारण करते हुए नि, हलना । नादि जाननमें उन्हें मुनिष नाता, कार अपनी वेदनाकी किंचित् भी चर्चा करते तो गृहस्थों द्वारा उन्हें गरिष्ट मिष्ट स्निग्य भोजन प्राप्त
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श्री समन्तभद्रस्वामीका स्वयंभूस्तोत्र रचते ही महादेवी पिंडी फटकर चन्द्रप्रभस्वामीकी प्रतिमा प्रकट होना व नमस्कार करना ।
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स्वामी ममन्त भद्र।
हो सकता था किन्तु इस 41 क्रियाओं को वे मुनि वेषको कलंकित काना समझते थे, और नियाविरुद्ध जीवन विताना भी ये उचित नहीं समझते थे। उस समयको परिस्थिति उनके सामने महा भयंकर थी । उनै जीवनसे म ह नहीं था शरीरको तो वह इस मात्मासे करमे भिम मान चुके थे । शरीर में उन्हें कोई खेद नहीं था, में यदि ग्वेद था, तो यही ' लोककल्याणकी भावनाएं ममी पूण नहीं हो की थी शगर द्व र म मा और अन्य पाणियों की उन्नतिकी ललपा सभी ना तृप्त नहीं हो पई थी. किन्तु इस महा भयंकर व्याधिके माम्न का कुर यश नहीं था । अन्ततः उन्होंन मन्याम द्वारा नश्वर शगम अपना सम्म त्याग देनेका निश्चय किय ।
मौभाग्यसे उन्हें लोक पाणारी मनु.वी गुमका संपर्ग प्रप्त हुआ था, उनमें समयोचित विमा का विमान था उन्हें अपने प्रिय शिष्पकी भावना ज्ञात हुई न्या शास्त्र की मंशाम दुन्दुभि पजाने वाले अपने प्रतिभाश ली शिष्या श्रममयमें वियंग होजाना है इच्छिन नी था। वह ममझा थे मो ममतमदमे लोक का भवि. ध्यमें अधिक पाण होगा इक द्वारा मंगाको न्यायके रूमें जैन दशन पता कर उनके जीव को श्रमाय नष्ट हा नहीं देखना चहने थे किन्तु ऐमा अनाथामें वह मुनिवेष धारण कर, रह भी नहीं सन थे तु पवार नन्होंने दामाजीको समीप बुलाकर कहा:
न' तुम जि 41 होषक व्याधिसे निर्मुक्त होनेका उद्योग करो आ• के लिए चाहे जहां जिस वेपमें विचरण करो। स्वस्थ
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________________ 370] जैन युग-निर्माता। हो नानेपर तुम फि' मुनि दीक्षा धारण कर सकते हो / यदि शरीर स्थिर रहता है तर धर्म और लोकका कल्याण कर सकते हो, लौकिक और भात्मिक कल्याणके लिए शरीर एक अत्यंत आवश्यक साधन है, इस साधनको पाकर इसके द्वारा संपारकी जितनी अधिक सेवा की जा सके कर लेना चाहिए, किन्तु वह सेवा स्वस्थ शरीर द्वारा ही की जा सकती है। भातु, तुम कुछ समयके लिए संघसे स्वतंत्र रहकर अपने शरीरको स्वस्थ बनाओ। व मीजी ने अपने गुरु महाराज की समयोचित माज्ञा स्वीकार की, इस वेप द्वारा भात्माल्याणकी गतिको उन्होंने रुकते हुए देखा मस्तु, उन्होंने इस वेषका त्याग करना उचित समझा और दिगंबर मुद्राका त्याग कर दिया। भब वे अपने स्वास्थ्य सुधारके लिए स्वतंत्र थे / मुनिवेषकी बाधा उन्होंन अपने ऊस टा दी थी, और यह कार्य उनका उचित ही था / पदके आदर्श अनु पार कार्य न कर सकने पर यही कही अत्यंत उचित है कि इनसे नीचे पदको ग्रहण कर लिया जाय किन्तु भादर्शमें दोष लगाना यह अत्यन्त घृणित और हानिपद है। किन्तु इसके प्रथम तो वह दिगम्बर थे, उनके पास कोई दस्वादि था ही नहीं, और इस दिंगबर वेष द्वारा किसी प्रकारके वस्त्रादिकी याचना नहीं कर सकते थे, अस्तु / उन्होंने भस्मसे अपने सारे शरीरको मलंकृत कर लिया और इसपकार जीवनके अत्यन्त प्रिय वेषका उन्होंने परित्याग कर दिया इस वेषका परित्याग करते समय उनका हृदय किसना रोया था, मानसिक वेदनासे वह कितने संतापित हो उठे