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________________ महाबाहु बाहुबलि । [७५ हमें अपनी आजादीकी भी रक्षा करना चाहिए है। यह प्रश्न जनता और देशकी स्वतंत्रताका है, इसके लिए हमें अपना सब कुछ बलिदान करनेसे नहीं हिचकना ६ मा । अपनी प्रजाको दूसरों की गुलामी करते हुए हम नहीं देख सगे। हमें अपनी आत्म रक्षा करना होगी, उसका चाहे कितना मूल्य देना पड़े। बाहुबलि जी भी यही चाहते थे. उन्होंन मंत्रियोंके सत्ता की प्रशंसा और फिर उत्ता पत्र लिखना प्रारंभ किया । प्रिय अग्रज. अभिवादनम् । पत्र मिला । जीवन रहते हुए मैं किसीकी साधीनता स्वीकार करना नहीं चाहता यह मा निश्चित मत है। आपने मुझे युद्धकी धमकी दी है, और यदि आपको युद्ध ही प्रिय है, आप युद्ध करके मेरी स्वाधीनता नष्ट कान में ही भाना गौरव और न्याय सम्झते हैं, तो मैं इसके लिए तैयार हूं। मैं युद्धसे नही डरला । यह तो वीगेका एक ग्वेल है. इस मातंकका मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं लेकिन मैं आपको चेतावनी देना हूं कि युद्ध में बाहुबलि का यदि कोई प्रतिद्वन्दी है. तो वह चक्रवर्ति ही हैं, फिर भी आप बहुत सोच समझ कर युद्ध में उतरें नहीं तो यह युद्ध आपको बहुत महंगा पड़ेगा। आपका-बाहुबलि। दृतको पत्र दिया वह शीघ्र ही उसे चक्रवर्तिके पास ले गया। उन्होंने पढ़ा, अमिमें घृतकी आहुति पड़ी। उनके क्रोधका पारा अंतिम डिग्री तक पहुंच गया, नत्र अमिज्वालाकी ताह जल उठे, भुजाएं फडक उठीं, वे अपने भड़कते हुए कोषको रोक नहीं सके ।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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