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जैन युग-निर्माता
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प्रिय अनुज ! सस्नेहाशीर्वाद !
तुम्हारा पत्र मिला, पढ़कर आश्चर्य हुआ। तुम मेरे भाई हो, मैं चाहता था तुम्हारे सम्मानकी रक्षा हो और मुझे तुमसे युद्ध न करना पडे । तुम स्वयं आकर मेरा प्रभुत्व स्वीकार कर लो, किन्तु मै देख रहा हूं, तुम बहुत उदंड होगए हो। मैं तुम्हें समझा देना चाहता हूं, कि राज्यनीतिमें बंधुत्वका कोई स्थान नहीं है वहां तो न्यायकी ही प्रधानता है । न्यायतः भारतकी प्रत्येक मृमिपर मेरे अधिकारको मानकर ही कोई राजा अपना राज्य स्थिर रख सकता है, तुम यह न समझना कि बंधुत्वके आगे में अपने न्याय अधिकारों को छोड़ दूंगा । एकवार मैं तुम्हारी उद्धतता के लिए क्षमा प्रदान करता हूं, और में तुम्हें फिर लिखता हूं कि अब भी यदि तुम मेरे साम्हने उपस्थित ढोकर मेरा प्रभुत्व स्वीकार कर लोगे, तो तुम्हारा राज्य और सम्मान इसी तरह सुरक्षित रहेगा। लेकिन यदि तुमने फिर ऐसा धृष्टता की तो मुझे यह सहन नहीं होगा और उसके लिए मुझे तुमसे युद्ध करना होगा । मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ । तुम्हारे सामने दो चीजें उपस्थित हैं, आधीनता अथवा युद्ध । दोनोंमेंसे तुम जिससे भी चाहो स्वीकार कर सकते हो । तुम्हारा - भरत (नक्रवर्ति ) ।
दूतने पत्र लाकर बाहुबलिको दिया, पत्र पढकर बाहुबलिका आंतरिक आत्म सम्मान जागृत हो रठा, लेकिन वे इतने बड़े युद्धका उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं लेना चाहते थे इसलिए उन्होंने मंत्रियों से परामर्श कर लेना उचित समझा ।
मंत्रियोंने कहा - महाराज ! हम युद्धके इच्छुक नहीं हैं, लेकिन