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जैन युग-निर्माता। हूं इसी छोटेसे कांटेने उनके मनको व्यथित कर रखा है, मैं उनके हृदयके इस शरको निकालूंगा ।
चक्रवति भातका मन पहिलेसे ही बदल चुका था। राज्य सनीका अब उनें वह मोड नहीं रह गया था, वे शीघ्र ही उनके चरणों में नत होकर बोले-योगीराज ! यह पृथ्वी स्वतंत्र है, इसका कोई भी स्वामी नहीं है। मानवके मन का अहंकार ही इस निश्चल वसुंधराको सपना कहता है, मेरे मन का अकार अब गल गया है। माप अपने हृदयके कांटेको निकाल दीजिए यह समस्त भूमि भापकी है, भात तो अब आपका दास है, उसका अब अधिकार ही क्या रह गया है ?
भातजीके सरल शब्दोंने योगेश्वरके हृदयका शूल निकाल कर फेंक दिया, उन्हें उसी समय कैवल्यके दर्शन हुए। केवलज्ञान प्राप्त कर उन्होंने विगट विश्वके दर्शन किए।
देवनाओंने उनकी पवित्र अ त्मापर अपनी श्रद्धांजलि अर्पिती और उनकी चरण रजका मस्तक पर चढ़ाकर अपने जीवनको सफल समझा।
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