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था। वे किसी तरह नेमिकुमारको शक्तिहीन बनाने का संकल्प करते हुए राज्यमहल में पहुंचे |
प्रत्येक माता के हृदय में अपने पुत्रसे कुछ भाशाएं रहती हैं । अपने स्नेहका प्रतिफल चाइनेकी अभिलाषा उनके हृदयको निरंतर दी तरंगित किया करती है। उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा होती है पुत्र के विवाद - सुख देखनेकी । पुत्र- वधूके प्रसन्न बदनको देखकर वह अपने हृदयकी संपूर्ण इच्छाएं सफल कर लेना चाहती है इतनेही से उसके हृदयकी साध पूर्ण हो जाती है ।
नेमिकुमार अब यौवन-संपन्न थे । उनका सारा शरीर यौवन के बेगसे भर गया था | उद्दाम यौवनका साम्राज्य पाकर भी काम विकार उनके बालक के समान साल हृदयमें प्रवेश नहीं कर सका था । उनका हृदय गंगाजल की तरह निष्कलंक और वासना रहित था । माता शिवादेवी पुत्रके हृदयको जानती थी, लेकिन पुत्र - वधू पाने की कोमक अभिलाषाका ने त्याग नहीं कर सकती थीं । पुत्र परिणय से होनेवाले आनंदा लोभ उनके हृदयमें था । लेकिन वे अनेक प्रयत्न करने पर भी उनके हृदयमें विवाह की अभिलाषा जागृत नहीं कर सकी थी । लेकिन उनके हृदयकी उत्कट इच्छा अभी मरी नहीं थी, वे प्रयत्नमें थीं । उन्होंने अपने इस प्रयत्न में श्रीकृष्णजीको भी सम्मिलित करना चाहा ।
दयासागर नेमिनाथ ।
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उस दिन मध्याह्नका समय था जब माता शिवादेवीने विवाह मंत्रणा के लिए श्री कृष्णजीको अपने राज्यमहकमें बुलाया। उन्हें योग् शासन पर बिठलाकर स्नेहभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखा, फि! उनके