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२४२] जैन युग-निर्माता । स्पष्ट हो ही जाता है, . ! आज मैंन जसे उस सुन्दरो रमणीको देखा है तमोसे ........ ...
fi, मैं समझ गया . मित्रन बीचमें रोकते हुए कहातभीसे भापका संहासे पूण विक्ति होगई है। भापका मन घृणासे भर गया है ! म कि सो रमणीका मुंह भी नहीं देखना चाहेंगे।"
नहीं मित्र ! आप तो मुझे अपने मना हाल ही नहीं कहने दते, सुदर्शनने पही श घतासे पहा-“मुनिए, तभीसे मेरा हृदय किसी गुप्त देवनास तदा रहा है। "
मित्र, अभी इस विनोदमें और ग्स लेना चाहता था । आश्चर्य प्रकट करता बोल!-- ऐ मित्र ! वेदना ! और हृदयमें ? क्यों ? क्या उसने माप पर कुछ माघात किया है. भाप जैसे सरल और सज्जन व्यक्तिके हृदय पर ! तब तो वह भश्य ही कोई पाषाण-हृदया होगी। देखें, कोई विशेष चोट तो नही आई है?
सुदर्शनका हृदय अब अधीर हो टठा । वह बोला-"मित्रवर ! अब आप अधिक विनोदको स्थान मत दीजिए। मेरी वेदनाको अधिक मत भड़काइए, सचमुच ही मैं उसी समयसे उसकी मोहनी मूर्ति पर आकर्षित हो गया हूं।"
ओह ! मित्र ! क्या कहा ? आप मुग्व होगए है ? उसकी रक्ष्य-कला५५ । बेशरू, क्यों न हो, लक्ष्य भी उसने आपके हृदय पर अचूक किया है तब तो आप उसे अवश्य कुछ पारितोषक देंगे।" देवदत्तका विनोद भन्तिम था!
मुदर्शनका हृदय देवदत्तके परिहाससे माहत हो चुका था।