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________________ (१४) आत्मजयी पार्श्वनाथ । (महान् धर्मप्रचारक जैन तीर्थंकर ) पार्श्वकुमार माज प्रातःकाळ ही भ्रमण करके अपने साथियों सहित वापिस लौटे थे। रास्तेमें उन्होंने जटा बढ़ाए और लंगोटी पहिने हुए एक साधुको देखा वह अपनी धूनिके लिए एक बड़े भारी लकको फाड़ रहा था। एक ओर उसकी धून मुलग रही थी। उसकी नटाएं पैरों तक कटक रही थीं। तमाम शरीरमें धूल लगी हुई मी । एक रंगी हुई लंगोटी उसके शरीर पर थी, पास ही मृग छाला और चिमटा पड़ा हुमा था। देखनेसे वह घमंटी मालूम पड़ता था। पार्श्वकुमार उस तपस्वी के सामनेसे निकले, उसने अपने सामनेसे निकलते हुए देखकर उन्हें बुलाया और बड़े घमंडके साथ बोलाक्योजी ! तुम बड़े मंडी मोर दुर्षिनीत मालम पड़ते हो।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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