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पवित्र-हृदय चारुदत्त। [२२९ पत्नी और माता शोक समुद्र में गोते लग रही थी। फांसीका फंदा गले में अब पहा, कि तर निर्दय-हृदय बधिक चारुदत्तके प्राणों को कुछ क्षणका विश्राम ही दे रहे थे। इसी बीच बहुत दृरसे हांफनी चिलाती हुई वसंतसेना दर्शकोंको दिखी । वह सब दर्शकोंके बिलकुल निकट मा गई थी। बोलनेकी शक्ति उसमें नहीं थी, उसने बधिकोंको हाथके इशारेसे आगे बदनको रोकते हुए एक क्षणके लिए गहरी सांस ली । फिर उसने बधिकोसे आज्ञाके स्वरमें कहा
वधिक ! श्रेष्ठी चारुदत्तके बंधन खोल दो-वह अपराधी नहीं है। मैं बतलाऊंगी अपराधी कौन है। मुझे राजाके साम्हने ले चलो।
चारों ओरसे वर्षकी ध्वनि स्टी । राजाको यह सब मालम हुआ। वह शीघ्र ही वध स्थलपर आया, वसंतसेनाने कलिंगदत्तको अपने प्राण बधका अपराधी सिद्ध किया । चारुदत्त निर्दोष साबित होकर छोड़ दिया गया।
वसंतसेना अब चारुदत्तके कुटुम्ब में सम्मिलित हो गई थी। चारुदत्तकी पत्नी ने अपने हृदयके उच्चतम स्थानमें जगह दी थी। वह उसे अपने प्राणों से अधिक प्रिय समझने लगी थी, उसके हृदयका द्वेष धुल गया था, पतिके सिंहासन पर दोनोंका भासन था। किसीको इससे द्वेष नहीं था, अनुताप नहीं थ', माताने अपने प्रेमका प्रसाद दोनोंमें पुत्रवधुओंकी भावना के रूपर्म बांटा था।
बसंतसेनाका स्नेह चारुदत्त पर अब चौगुना बढ़ गया था, लेकिन वह स्नेह वासनाका नहीं था, उसमें कोई कामना नहीं थी,