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________________ २२८] जैन युग-निर्माता। वह मरी नहीं थी, उसके प्राण अभी शेष थे। कलिंगको यह सब मालुम हो चुका था, इसने भय और उशतकी आशंकासे उसे एक कोठरी में बन्द कर दिया। ___ वसंतसेना उस कोटरी में बन्द रहते हुए बाहाके लोगोंकी बावाज सुनती थी, उसे यह निश्चित रूपसे मालूम हो गया था कि मेरा प्रियतम चारुदत्त मेरे वपके अपराधमें पकड़ा गया है, उसे यह भी पता लग गया था कि राजा द्वारा आज उसे फांसीका दण्ड दिया जायगा । उसके प्राण अपने प्रियतमको बचाने के लिये तड़फड़ा उठे, परन्तु अपनी असहाय अवस्थाको देखकर उसका आत्मा विफल हो रहा था । अंतमें एक उपाय उसे सूझा । कोठरोके ऊपर एक खिड़की थी, वह किसी तरह उस स्थानपर पहुंची। अब उसने चिल्लाना पारम्भ किया, उसकी चिल्लाइट सुनकर एक व्यक्ति उसके निकट आया। वसंतसेनाके गलेमें एक हार अब भी था । उसने उस हारका लालच देकर उम व्यक्तिसे द्वार खोलने को कहा । वह अपने प्रयत्नमें सफल हुई, कोठरीका द्वार खुला था। वसंतसेना अशक्त थी। न्यायद्वार तक ज ने की शक्ति उसमें नहीं थी। लेकिन आज न जाने किसी दैवी शक्तिने उसके अंदर वेवेश किया था। आज तो यदि उसे सात समुद्र पार करना हो तो यह पार कर जाती ऐसी शक्तिका भावाहन उसने अपने में किया था। चारुदत्तको वसंतसेनाके वधके अपराधमें प्राण दंड दिया जा चुका था । बधिक उसे वध स्थलपर ले जा चुके थे । दर्शकके रूपमें चंपापुरकी समग्र जनता उसके चारों ओर चित्र लिखितसी खड़ी थी।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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