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२६२] जैन युग-निर्माता । सारा संसार स्वर्णमय बन गया था, उसने स्नान किया और देवमंदिरको चल दी।
द्वार प्रवेश करते ही उसे महात्माके दर्शन हुए। उसने भक्ति और श्रद्धासे र प्रणाम किया। महात्माने आशीर्वाद दिया : तु मुखी हो। भरे ! यह क्या ? यशोभद्राके नेत्रोंसे अश्रुधारा बह चली। महात्मा विचलित हो रठे । बोले-पगली, तु रोती है ?
महात्माजी ! कहते हुए उपका हृदय करुण हो उठा । वह बोली-योगिरज ! आप सब जानते हैं, कहिए । कच मैं पुत्रन्ती होऊगी ? मैं अभागिनी क्या कभी मां इन्द मुन सकंगो ? बतलाइए क्या मुझे पुत्र-सुख मिलेगा ? महात्मा बोले-" बहिन? शन्त हो। संपामें को सब कुछ मिलता है, तुझे भी मिलेगा। तेरे पुत्र होगा-ऐपा पुत्र जो अपने उन्नत आदर्शसे संपारको चक्ति का देगा, जिपकी यशवनिस संसार गूंज रठेगा, उन्नत मस्तक जिसके चाणों पर लोटेगे जिसकी चरित-चन्द्रिका भूतलपर अपनी उज्ज्वल किरणे फैलायेंगी ऐका पुत्र तेरे | किन्तु '.... महात्मा मौन होगए ।
यह सुनकर पुत्रकी उत्कट इच्छा रखनेवाली यशोभद्राका हृदय हर्षसे फूल उठा-पर महात्माके अंतिम ३.०द 'किन्तु', को वह समझ न सकी । वह भातुर होकर बोली-महात्मा ! कहिए इस "किन्तु"का क्या मतलब? इसने मेरे हर्षित हृदयको बेचैन कर दिया है। इसने उस अनंत भानंदके दरवाजे को बंद कर दिया है जिसमें में शीघ्र प्रवेश करना चाहती थीं। इस " किन्तु ' की पहेलीको शीघ्र दल कीजिए।
महात्मा कुछ सोचकर बोले-पहिन ! तुझे पुत्र-रत्न तो प्राप्त होगा