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________________ जैन युग-निर्माता । ३१२ ] स्वीकार नहीं करना चाहता । अमानत वही स्वीकार करते हैं जो कुछ अपना नहीं कमा सकते | मैंने उस अपने घनकी कुछ झांकी देखी है, उसकी चमक के आगे यह पुण्यके द्वारा दीपित क्षणिक प्रभा ठहरती ही नहीं है। तुमने उस प्रभाके दर्शन ही नहीं किये हैं । यदि तुम उस वास्तविक प्रकाशके दर्शन करना चाहती हो तो मेरे साथ उस प्रकाश मार्गकी ओर चलो। फिर तुम उस प्रकाशको देख सकोगी जिससे सारा विश्व प्रकाशित होता है। इस क्षीण विलासकी चमक मेर नेत्रोंको चकाचींव नहीं कर सकती। इसमें विलासी पुरुष ही आकर्षित हो सकते हैं - केवल वही पुरुष जिन्होंने आत्म दर्शन नहीं किया है । JTHIIIIIII तुम्हारा यह मादक यौवन और यह विलास किस काम पुरुषको ही तृप्ति दे सकता है मुझे नहीं । मेरी वासना तो मर चुकी है, उसे जीवित करनेकी शक्ति अब तुममें नहीं है । निष्फल प्रयत्न करके मेरा कुछ समय ही ले सकती हो इसके अतिरिक्त तुम्हें मुझसे कुछ नहीं मिलेगा । बालाओ ! तुम्हें मेरे द्वारा निराश होना पड़ रहा है, इसमें मेरा अपराध कुछ नहीं है । मेरा पथ पहले ही निश्चित था । मैं अपने निश्चित पथपर चलने के लिए ही अग्रसर होरहा हूं । तुम्हें यदि मेरे जीवन से स्नेह है यदि तुम मेरे जीवनको प्रकाशमय देखना चाहती हो यदि तुम चाहती हो कि मेरा जीवन तुम्हारी विलास लीला तक ही सीमित रहकर सारे संसारका बने तो तुम मेरी अवरोधक न बनकर मुझे अपने बंधनों को मुक्त करने में मदद करो ।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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