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________________ तपस्त्री गजकुमार । [२११ कठिनसे कठिन आपत्तियों के सामने भी वह अपना हृदय कठोर चना लेता है, महायुद्ध में हंसते हुए अपने प्राणों को न्यौछावर करने में नहीं हिचकता, किंतु अपमान ! अपना थोड़ा भी अपमान वह सहन नहीं कर सकता । अरमान ओह ! अपमानकी गुम चोट बही भयंकर होती है। वह हृदयमें एक ऐमा घाव र देनी है जो कभी नहीं भरता, घवकी वेदनामे उसका हृदय प्रदा ही पाकुल होता रहता है। कठिन इ.साका घाव शीघ्र ही भा जाना है। धन वैभव किसे मिल जाता है किन्तु अपमानका गला लिप विना कभी किसी प्रकार शांत नहीं होता। इंड युवक गजकुमार द्वग अग्नी पत्नी के अपमान की बात पांमुल अभीतक नहीं भूला था, उसकी वह घाव आज तक उसी तरह हरा भरा था । ज्याधिकार का प्रभाव और गजपुत्र की शक्ति के कारण वह उस समय अपनी पत्नी के सतीत्व दणके बदलेको नहीं चुका सका था। किन्तु जब कभी उमका मरण हो आता था, तब क्रोधसे उसका मुख मण्डल रक्तवर्ण हो जाता था। माग शरीर कांपने लगता और वह साक्षात यमराजकी तरह प्रतीत होता था, किन्तु अपनी हीन शक्तिको विचार कर उसका कोषावेश भंग हो जाता था। आज अनायास ही वह बना घृमहा था. घूमने हुए उपकी दृष्टि 'ध्यानमें मग्न हुए गजकुमार मुनिके नग्न शरीर पर जा पही-उपकी प्रतिहिंसाकी अग्नि भड़क-ठी । गजकुमारको ध्यानमग्न देखकर क्रोधको सुलगती माग धधक रठी । वह दांतोंको मिसमिसाता हुआ क्रोषपूर्ण स्वरसे बोग-" मायावी ! पूर्ण ! मान इस तरह तपश्चरका ढोंग रचे
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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