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२१८] जैन युग-निर्माता।
वसंतसेनाकी अट्टालिका ही उसका निवास स्थान बन गई । पिताके द्वारा उपार्जित अपरिमित धनसे वसंतसेनाका घर भरा जाने लगा।
___ उसकी पतिपामा पत्नी कितनी रोई, उसने कितनी प्रार्थनाएं की लेकिन चारुदत्तके कामुक हृदयने उनको टुकरा दिया, माता सुमद्रा भाज अपने किए पर पछता रही थी। उसने प्रयत्न किया था, अपने प्रिय पुत्रको गृहजीवनमें फंसानका, लेकिन परिणाम विपरीत ही निकला। वह गृह-जालमें न फंपकर वेश्याके जाल में फंस गया । चारुदत्तके जीवनके सुनहरे बारह वर्ष वेश्याके अरुण अधरोंपर लुट गए । उसका धन वेश्याके यौवनपर लुट गया। भाज अब वह धनहीन था, उसकी पत्न के मंच हुए आभूषण भी प्रेमिकाके अघर मधु पर बिक चुके थे।
कलिंगसेनाने आज बारह वर्षके बाद अपनी पुत्रीको शिक्षा दी थी। वह बोली-वसंत ! अब तेरा यह बसंत तो पतझड़ बन गया, अब इस सूग्वे मरुस्थलसे क्या आशा है ? अब तो यह निर्धन और कंगाल होगया है, अब तुझे अपने प्रेमका प्याला इसके मुंइसे हटाना होगा, अब तुझे किसी अन्य वैभवशालीकी शरण लेनी होगी।
वसंतसेनाका माथा आज ठनका था, ६ कलिंगसेनाका जाल समझ गई थी, वसंतसेनाको चारुदत्तसे अकृत्रिम स्नेह होगया, वह उसके वैवव पर नहीं किन्तु गुणोंपर अपने यौवनका उन्माद न्योछावर कर चुकी थी। सालहृदय चारुदत्तको वह घोखा नहीं देना चाहती थी। उसने कांपते हृदयसे कहा-मां मेरे प्रेमके संबंधमें तुझे कुछ. कहनेका अधिकार नहीं है। चारुदत्त मेरा प्रेमी नहीं किन्तु पति है।