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पवित्र हृदय चारुदत्त ।
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बेश्या होकर भी मैंने उसे पति रूपमें प्रःण किया । उसका हृदय महान है। उसने अपना अपरिमित द्रव्य मेरे यौवन पर नहीं किन्तु निष्कपट प्रेमपर कुर्धान किया, मैं उसके प्रेमसे लइराती लतिकाको नहीं तोड़ सकती।
मांने कहा- वसंत : वेश्याकी पुत्री के लिए पति और प्रेमके शब्दोंको केवल प्रपंचताके लिए ही अपने मुंहपर लाना होता है, वास्तव में न तो उसे किसीसे प्रेम होता है और न कोई उसका पति होता है। वेश्या-पुत्री होकर यह अनहोनी बात तेरे मुंहसे आज कैसे निकल रही है ? प्रिय वसंत ! हमारा कार्य ही ऐसा है जिस विधिने पैसा पाने के लिए बनाया है, प्रेमके लिए नहीं। यदि हम एकसे इस तरह प्रेम करें तो हमारा जीवन निर्वाह ही नहीं होसकता। मैं तुझसे कहे देती हूं, अब अपने द्वार पर चारुदत्तका आना में नहीं देख सकूगी।"
वसंतसेनाने यह सब सुना था लेकिन उसका हृदय तो चारुदत्तके प्रेमपर बिक चुका था, वह उन्हें इस जीवनमें धोखा नहीं दे सकती थीं, जो कुछ वह कर नहीं सकती थी उसे कैसे करती ? जिसके चरणों के निकट बैठकर उसने प्रेमका निश्छल संगीत सुना था, जिसके हृदयपर उसने अपने हृदयको न्योछावर किया था, जिसके मकपट नेत्रोंका आलोक उसने अपने अरुण नेत्रों में झलकाया था, जो सरल स्मृतियां उसके अन्तस्थलपर चित्रित होचुकी थीं उन्हें वे कैसे भुला सकती थी ? बस प्रेम दानके अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर सकी।
चारुदत्त अब भी उसी ताह आता था और जाता था। यद्यपि वह निर्धन हो चुका था पान्तु वसंतसेनाके प्रेमका द्वार उसके लिए भान भी उसी तरह खुला था ।