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८६) जैन युग-निर्माता।
" समाज, वैभवके नशे में मदोन्मत्त हो रहा है, विलासकी मदिग पीते तृप्त नहीं होता। उसने अपने आपको इन्द्रियों और मनकी आज्ञाके आधीन कर दिया है, वह अपने कर्तव्यको बिलकुल भूल गया है।"
" पूर्वजन्मकी प्रतिज्ञाके अनुसार मुझे उसके इस झूठे स्वप्नको भंग करना होगा, मुझे उसे लोक कल्याणके पथ पर लगाना होगा। माज यह अवसर प्राप्त है, मैं इसे जाग्रत करनेका प्रयत्न करूंगा।"
योगेश्वरका उपदेश समाप्त होने पर वह सगजसे मिला और अपने पूर्वजन्मका परिचय दिया। पूर्वजन्मके विछुड़े हुए युगल मित्र आज मिलकर अपने आपको भूल गए। उन्होंने उन आनन्दका अनुभव किया जिसका अवसर जीवनमें कभी ही आता है। फिर उन्होंने अपने जीवनकी अनेक घटनाओंका ११म्पर विनिमय किया। सब बातें समाप्त हो जाने के बाद मणिकेतुने पूर्वजन्ममें की हुई प्रतिज्ञाकी याद दिलाई और साथ ही साथ उनसे कहा-सम्राट् ! आज माफ महान् ऐश्वर्यके स्वामी हैं यह गौरवकी बात है। आपके जैसा वैभव, सौन्दर्य और विलापकी सामग्रिएं किसी विले ही पुण्याधिकारीको मिलती हैं: किन्तु इनका एक दिन नष्ट होना भी निश्चित है। यह वैभव और साम्राज्य मिलकर विछुड़नेके लिए ही है । इसके उपयोगसे कभी तृप्ति नहीं होती। मानव जितना अधिक इसकी इच्छ एं करता है और जितना अधिक अपने को इसमें व्यस्त कर देता है उतना भधिक वह अपनेको बंधन में पाता है और अतृप्तिका अनुभव करता है। अब तक मापने स्वर्गीय भोगोंके पदार्थोका सेवन करके अपनी