SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगी सगरराज । ९५ लिए नहीं, लेकिन मैं देखता हूं, मुझे भापके यहांसे निराश होकर लौटना पड़ेगा। आप चक्रवर्ति सम्राट होकर भी मेरी रक्षा नहीं कर सकेंगे? सम्राट् ! आप ऐसा न कीजिए, आप शक्तिशाली हैं, माप उस यमराजसे अवश्य ही युद्ध की जिए और मेरे पुत्र को लौटा दीजिए। वृद्ध तुम नहीं समझते ? यमराजसे युद्ध काना मेरी शक्तिसे बाहर है अच तुम्हारा रोना धोना व्यर्थ है उस बन्द कीजिये और इस वृद्धावस्था में शांतिकी शरण लीजिए । महोदय ! अब आप पुत्रमोहकी छोहिए । यह ममत्व ही आत्मबंधन की वस्तु है। तुम यह नहीं जानते कि सारा संसार स्वार्थमय है. सांगारिक म्नेहके अंदर स्वार्थ ही निहित रहता है नहीं नो वास्तवमें न कोई किमी का पुत्र है और न पिता है । न कोई किसीकी रक्षा करता है और न किमीको कोई माता है । यह यच मंमार का माया मोह है. जिसके का हम ऐमा समझने हैं । माको तो अब मोह त्याग कर प्रसन्न होना चाहिए । भान आपकी आत्मोन्नति के मार्गका कंटक निकल गया, अब आर बंधन मुक्त हैं । आजसे अब अपने जीवनको सफल बनाने का पयत्न कीजिए। यह मानव जीवन आत्म-कल्याण का जेष्ठ साधन है, उसे पुत्र मोहमें पहकर नष्ट म4 कीजिए । अबतक पुत्र मोहके कारण आप अपना कल्याण न कर सके, लेकिन अब तो आप स्वतंत्र हैं इसलिए शोक त्याग कर माधु दीक्षा लीजिए और आत्मकल्याणमें संख्म हो जाइए। सम्राट् ! वृद्धको इस तरह सान्त्वना दे रहे थे इसी समय अग्ने भाइयों की मृत्युसे शोकित राजकुमारने प्रवेश किया। उसका मन देकर हो रहा था। उसने माते ही अपने सभी भाइयों को खाई खोदते
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy