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जन युग-निर्माता। इसीलिए उनके राज्यमें व्यसनी और दुगचारी पुरुषों का अस्तित्व नहीं था।
उनके दो पुत्र थे-एक संजयन्त दूसरे जयंत । गज्य प्रांगणकी शोभा बढ़ाते हुए वे दोनों गलक दर्शकों का मन मुग्ध करते थे। दोनों ही प्रतापशाली सूर्य और चन्द्र के समान प्रकाशवान थे। दोनों कुमारोने बड़े होनेपर न्याय और साहित्यका अच्छा अध्ययन किया था। सिद्धांत और दर्शनशास्त्र के वे मर्मज्ञ थे, वे अब यौवनसान थे; शरीर संगठनके साथ२ सौन्दर्य और कलाका पूर्ण विकास उनमें हुआ था।
उस समयका शिक्षण आज जैसा दोषपूर्ण नहीं था। माजका शिक्षण मानसिक विकाम और चरित्र निमणके लिए न होकर केवल उदर पूर्ति और विलासका साधन बना हुआ है । भास्तिक विज्ञान और उसके विकापकी ओर हमका थहा भी लक्ष्य नहीं है। उसका पूर्ण ध्येय भौतिक विज्ञान और उसके विकासको ओर ही है। युवकों के मनमें गुप्त रूप में विकसित होनेवाली वासना और काम लिप्माको वह पूर्ण सहायता देता है। स्वदेश. जातिपम्मान, स्वाधीनता और आत्मगौरवको भावनाओंको आज.या शिक्षण छूना भी नहीं है, उसने युवकों के सामने एक ऐमा वातावरण पैदा कर दिया है जो उनके लिउ भयंकर विनाशकारी है । विदेशी सभ्यता और भावनाओं को यह उत्तेजित करता है और पूर्व गौरद के संस्कारोंकी जड़को नष्ट करता है। इस भयानक शिक्षणके मोहमें भारतीय युवकों का जीवन और देशकी संपत्ति स्वाहा हो रही है, और उसके बदले उन्हें गुलामी, मानसिक पाप और भोगविलासका उपहार मिल रहा है । इस शिक्षणके साथ ही युवकों के मानसिक परम