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३..] जैन युग-निर्माता। अंतमें धरातलमें नाकर विगम लेती है उसी प्रकार निश्चय अथवा श्रद्धा रहित मनुष्य संमाएकी अनेक प्रकारकी विडम्बनाओंका अनुभव करता वार वार मार्ग परिवर्तन करता, अंतमें निराश बनकर अधःपातकी शरण लेता है । श्रद्धा यह एक सुमेरु पर्वत सदृश अडिग निश्चय है। देवता भी जिसे चलित नहीं कर सके ऐसी दृढ़ता और अनुभवकी पक्की सरकपर बनी हुई वग्वृत्ति है । ऐसी श्रद्धा हुन ५ हे पुरुघों में होती है। श्रेणिक राजा ऐसी अनुपम श्रद्धा वनवाले थे और इसी श्रद्धाके कारण इतिहासमें उनका नाम स्वर्णाक्षरों में कित है।
श्रेणिक गमाको जिनदेव जिनगुरु और जैनधर्म पर असाधारण श्रद्धा थी। एकवार ददुक नापक देवने उनकी परीक्षा कानेका निश्चय किया।
श्रेणिक जैन मधुओं को परम विगी, तपस्वी और निष्पृह मानते थे। जैन साधुओं में जो विगवृत्ति, उन जैसी निःस्पृहता अन्यत्र कहीं भी संभव नहीं, ऐनी उनको दृढ़ श्रद्धा थी। एक समय मार्गमें जाते हुए उन्होंने एक जैन मुनिका दशन किया । ____उसका भेष जैन +धुमें बिल्कुल मिलता था, ऐसा होते हुए भी उसके एक हाथमें मछली पकानेका जाल था और दूसरा हाथ मांस भक्षण करनेको तैयार हो इस प्रकार रक्तसे सना हुआ था। एक जैन साधुकी ऐसी दशा देखकर राजा श्रेणिकका हृदय कांप उठा ।
राजाको अपने समीप माते देख मुनिने जाल पानी में डाला, मानो जसकी मछली पकड़ने का उसका नित्यका अभ्यास हो । यह "माचारमष्टता राजाको मसा प्रतीत हुई।