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________________ महात्मा रामचन्द्र। [१२१ माक्रमण जारी था, उनका हृदय इस भाक्रमणसे हताश नहीं हुआ था, वे आगे बढ़ने का मार्ग खोज रहे थे। इसी समय उन्होंने देखा, केईने उनके हाथकी मुहर लगामको अपने हार्थों में ले लिया था, अब युद्ध संचालनके लिए वे स्वतंत्र थे। वीर रमणीकी सहायतासे उनका माहम दूना बढ़ गया, उन्होंने पबल पराक्रमके साथ शत्रुओंपर अक्रमण किया । शत्रु सेना पीछे हटने लगी। राजा दशरथ विजयी बने, विजयने उनके मम्तकको ऊंचा उटा दिया । विजयके साथ वीर बाला के ईको उन्होंने प्राप्त किया, उनका उन्मुक्त हृदय के कई की वीरता पर मुग्न था, मानकी विजयका संपूर्ण श्रेय वे के ईको देना चाहते थे. बोले-वीगारी ! तेरी रथ-चातुर्यताने मेर हृदयको जीत लिया है । भग्ने जीवनमें आज प्रथम वार ही मैं इतना प्रसन्न हूं, ६५ प्रमन्नताका कुछ भाग में तुझे भी देना चाहता हं, आर्ये : आजकी इस विजय स्मृतिको चिर स्मरणीय बनाने के लिए मैं इच्छित वरदान देना चाहता हूं तेर लिये जो भी इच्छित हो उसे मांग, मैं तरी प्रत्येक मांगको पूर्ण करूंगा। मैं आपकी हूं, मग कर्तव्य पापके प्रत्येक कार्यमें सहयोग देना है, मैंने आज अपना कर्तव्य ही पूरा किया है । यह प्रसन्नताकी बात है, मैं अपने कर्तव्यमें सफल हुई।" "माप मुझ पा प्रसन्न हैं, मुझे इच्छित वरदान देना चाहते हैं, नारीके लिये इससे अधिक सौभाग्यकी बात और क्या हो सकती है। मैं इस सौभाग्यको स्वीकार करती हूं, आप मेरे वादानको अपने पास सुरक्षित रखिए इच्छा होने पर मैं उन्हें मांग लंगी", केकईने हर्षित
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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