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मेघेश्वर जयकुमार।
जनताका हर्ष उमह उठा । महाराजाने उदास्ताका द्वार खोल दिया, याचकों और विद्वानों के लिए इच्छित दान और सम्मान मिलने लगा। बालक अत्यंत कांतिवान था । अपनी प्रभासे वह कामका भी जय करता था। उसका नाम जयकुमार रक्खा गया ।
जयकुमार बालकपनसे ही स्वतंत्रताप्रिय, स्वाभिमानी और वीर थे। उच्च कोटिकी शस्त्र और नीति शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने अपने गुणों को दृता चमका दिया था । लक्ष्यवेवमें वे अद्वितीय थे, उसकी समता करनेवाला उस समय भारतमें कोई दूसरा धनुधर नहीं था। साहस और धैर्यमें वे सबसे आगे थे । इन्हीं गुणों के कारण उनकी कीर्ति भनेक नगरों में फैल गई थी। उनके साहस और पराक्रमको देखका सोमप्रभजीने उन्हें युवराज पद प्रदान किया था और वे इसके सर्वथा योग्य थे।
संध्याका समय; नीलाकाश चित्रित हो रहा था । माकाशकी पृष्ठ भूमि पर प्रकृति बड़े ही सुन्दर चित्रों का निर्माण कर रही थी लोकन बहुन प्रयत्न करने पर भी वे चित्र स्थिर नहीं रह पाते थे। मालूर पढ़ता था प्रकृति कोई अत्यंत सुंदर चित्र निर्माण करने का प्रयत्न कर रही थी। किन्तु इच्छानुसार सुन्दर चित्र निर्माण कर सकनके कारण वह र बिगाड़कर फि से नया चित्र चित्रित करती थो। कितना समय बीत गया था, प्रकृतिको इस चित्र निर्माण में ।
भासमानको छूनेवाले महलके शिस्वापर बैठे हुए सोमपमनी प्रकृतिको इस चित्रकला निर्माणका रस ले रहे थे। उनकी दृष्टि जिस स्मोर जाती माकर्षित होजाती थी। न मालम कितने समस्तक मतृप्ति