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________________ mmaNMKAMANTRINAHATARNAMMARHATARNATARIANIMAANIMAMMARINAMANNAINARWIN ३२४] जैन युग-निर्माता। बहुमूल्य हारसे अब तक सूना ही है । ओह ! उस चमकदार हारकी प्रभा भब तक मेरी आंखों के साम्हने नृत्य कर रही है। यदि उसे पहनकर मैं तुम्हारे साम्हने पाती तो तुम मेरे सौन्दर्यको देखते ही रह नाते । यदि तुम्हारे जैसे कुशल प्रियतमके होते हुए भी मैं वह हार नहीं पा सकी तो मेरा जीना बेकार है । प्रियतम ! बोलो क्या वह हार तुम मेरे लिए ला सकते हो ? माह ! यदि वह सुन्दर हार मैं पा सकतीयह कहते हुए उसके मुंह पर फिर एक विषादकी रेखा नृत्य काने लगी। विद्यतने उसे सान्त्वना देते हुए दृढ़ताके स्वामें कहा-ओह प्रियतमे ! इस साधरण में कार्य के लिए इतनी अधिक चिंता तुने क्यों की ? मैं समझता था इतनी लम्बी भूमिका के अन्दर कोई बड़ा रहस्य होगा। लेकिन यह तो मेर बाएं हाथका खेल है। उस तुच्छ हाके लिए तुझे इतनी बेचनी हो रही है ! तू से अब दृा कर । विद्युतके हस्त कौशल को और साथ ही अंग श्रेष्ठी के इस चमकते हुए हारको अपने गले में पह! मी ही देवेगी ।। मगवसुन्दरी इपसे खिल उठी थी, उसने पूर्णदुकी हंसी विखेरते हुए कहा-प्रियतम ! अहा ! आप वह हार मुझे ला देंगे ? आए अवश्य ही ला देंगे। आप जैसे प्रियतमके होने में उम म कसे वंचित रह सकती हूं ? हार देकर आप मेरे हृदयके संच स्वामी बनेंगे। प्रियतम ! भाज मापके सच प्रेमकी परीक्षा होगी। मैं देखती हूं कितनी शीव्र मेरा हृदय हासे विभूषित होता है। . विद्युत सब एक क्षण भी वहां नहीं ठहर सका। हार हरणके लिए वह उसी समय श्रीषेण श्रेष्ठीके महलकी ओर चल पड़ा। उसने
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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