SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ RANGANAWAANJIRAINRINAINITAMARINAMANARAININMunawwwwwwwwwIHARI महापुरुष जम्बृकुमार। [३०७ जंबुकुमार अकेले ही रत्नचूलके शिविरकी ओर चल दिए । अपनी सैनाके बीचमें बैठा हुआ रत्नचूक पोदनपुरके किले पर आक्रमण करनेकी आज्ञा दे रहा था। इसी समय जंबुकुमार उनके सामने बेधड़क हुंचा। उसने न तो उन्हें प्रणाम ही किया और न भादर सूचक कोई शब्द हो कहा। अकह कर उनके सामने खड़ा हो गया। एक अपरिचित युवकको इस तरह वेधड़क अपने सामने खड़ा देखकर रत्नचूलको बहुत क्रोध आया। उसने तेजम्बरमें कहा“ अमिमानी युवक, तू कौन है? अपनी मृत्युको साथ लेकर यहां किम रद्देश्यसे माया है?” बुकुमाग्ने कहा-" मैं राजा मृगाङ्कका दृत हूं। में आपको उनका यह संदेश सुनाने माया हूं। माप वीर हैं वीरोंका कार्य किसीकी वाग्दत्ता कन्याका अपहरण काना नहीं है। पापको अपने इस गलत शब्दों को छोड़ देना चाहिए और इस अपगपके लिए क्षमा मांगना चाहिए । लचूल इन शब्दों को सुनकर भड़क उठा। वह बोला-" दृत तुम वंशक बाक्य मूर हो। मेरे साम्हने मताह निःशंक बोलना अवश्य हो साहसका कार्य है । तुम्हाग मूर्ख गजा मेरी वीरतासे अपरिचित नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य उसका साथ देहा है। इसीलिये उसने तुम्हें मेरे पास ऐसा कहनेको भेजा है । दून तुम अवध्य हो, जाओ और उस कायर मृगांकको युद्ध के लिए भेजो।" "राजा मृगांक आप जैसे व्यक्तिके साम्हने युद्ध कानेको मायेगे ऐसी माशा छोड़ देना चाहिए । आपसे युद्ध करने के लिए तो मैं ही काफी हूं, यदि भापको युद्धकी बढ़ी हुई अपनी प्यास
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy