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योगी सगरराज।
[९७ नाया हूं। पूर्वजन्मकी प्रतिज्ञा पूर्ण करना मेरा कर्तव्य था, मैंने मित्रके एक कर्तव्य को पूर्ण किया है। मेरा कार्य अब समाप्त होगया, भाप मा आत्म-कल्याणके पथ पर हैं।
मैं मा जाता है, आप माने निर्धारित पथ पर चलकर लोककल्याण भावनाको सफऊ बनाइए । बेहोश हुए भापके पुत्रोंको मैं होशमें लाता हूं। यह कह का उमने वृद्धका रूप बदल डाला । अब वह मणिकेतुके रूपमें था । सगराजने उसे हृदयसे लगा लिया और उसके मैत्री धर्मकी प्रशंसा करते हर कहा-मणिकेतु ! तुम मेरे पूर्व जन्मके सच्चे मित्र हो। मित्रका यह कर्तव्य है कि वह सत्य-मार्गका प्रदर्शन करे और अपने मित्रको श्रेष्ठ सलाह दे । तुमने मोह-जालमें बेहोश रहनेवाले मित्रको समय रहते सचेत कर दिया इससे अधिक मैत्री धर्म और क्या हो सकता है ? अब मैं कल्याण ग्थका पथिक हूं, मुझे अब कोई उससे उन्मुख नहीं कर सकता। यह कहते हुए सम्राट्का हृदय मित्र प्रेमसे भर माया, वे फिर एकवार हृदयसे मिले।
मणिकेतु अपना कार्य समाप्त करके देवलोक चला गया और सम्राट सगर योगी सम्राट बन गए ।