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निस्पृही सनत्कुमार। [१० हैं " वह ध्वनि योगीराजके कानों पर वारवार आघात करने लगी। उन्हें इससे क्या था, वे तो अात्म-समाधि मम थे ।।
निश्चित समय पर योगीश्वग्ने अपना ध्यान समाप्त किया। वंद्याज उनके साम्हने उपस्थित थे। उके चामें पढ़कर बोलेयोगेश्वर : ता हूं के ध्यानमें यह भ कोई बाधा नहीं पहुंचाती होगी, लेकिन व्याधि तो पधि ही है, उसकी वेदना तो
आपको हानी दी होगी। मेरे रहते हुए आपकी या व्याधि बनी रहे यह बहे दुःखकी बात होगी। योगीश् ! आप मुझे आज्ञा दीजिए। भापकी यह व्याधि कुछ क्षणों में ही मैं नष्ट कर दूंगा।
ऋषीश्वन सुना-वे बही शांतिस बोले-वैद्यराज ! जान पड़ता है आप यह दयालु हैं भएको मेरी धि नष्ट करने की बहुत चिन्ता हो रही है। मैं समझता हूं आप वास्तव में पंद्य है जो मेरी व्याधिको नष्ट कर सकेंगे।
आपकी कृगसे मुझमें व्याधि नष्ट करने की शक्ति मौजूद है। वैद्य रूपधारी देवताने कहा।
वद्याज : लेकिन क्या मेरी मूल व्याधिको आप पहचानते हैं । जिसकी वजह से यह ऊपरी व्याधि जिसे देखकर आपका मन करुणासे पिघल रहा है, जीवन पा रही है उस व्याधिका भी निदान कर सकेंगे ? वैद्यराज ! यह व्याधि तो कुछ नहीं मुझे उसी व्याधिके नष्ट करनेकी चिन्ता है-वह महाव्याधि है 'जन्म-मरण' उसका मुख्य कारण है कर्मफल । क्या आपमें उसके नष्ट करनेकी शक्ति है ?
वैद्य मब मौन था, योगी सनत्कुमारके प्रश्नका उसके पास कोई