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________________ [१०] तपस्वी वालिदेव | (दृढ प्रतिज्ञ, वीर और योगी । ) (?) अपने प्रधान मन्त्रीकी ओर } प्रवल प्रतापी सम्राट् दशाननने निरीक्षण करते हुए का- मन्त्री ! •हीं। ऐसा कदापि नहीं हो करता | क्या मेर अखण्ड प्रतापसे वह अवगत नहीं ? भर-वर्ष के नको लिचित् नृटिमात्र के बरसे विपिन कर देनेवाले दशाननशरी शकि क्या वः अपरिचित है ? नहीं, यह असत्य संलाप है । मंत्रीने का- महाराज ! यह अक्षरशः सत्य है, आपका मंत्रीमंडक कदापि असाच संभाषण नहीं करता, उसे अपने कथनपर पूर्ण विश्वास रहता है। सत्य के अन्तस्तक में प्रवेश करके ही आपके सम्मुख वाक्य उच्चारण किया जाता है । यह अटक सत्य है कि “याकिदेवने
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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