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जैन युग-निर्माता।
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उन्होंने अपना अल्प समय ही ऋषि अवस्थामें व्यतीत का पाया था कि पूर्वजन्मके असाता कर्मने उनके ऊपर आक्रमण किया। उन्हें महा भयानक भस्मक रोग उत्पन्न हुआ, क्षुवाकी ज्वाला उग्र रूपमे धधकने लगी, मुनि अवस्थामें जो मला रूखा सुवा मोजन उन्हें प्राप्त होता था वह अमिमें सूखे तृणकी तरह भस्म होजाता था और क्षुधाकी ज्वाला सी भयानक रूप से जलती रहती थी, इससे उनका शरीर प्रतिदिन क्षीण होने लगा ।
इस भयानक वेदनासे स्वामीजी तनिक भी विचलित नहीं हुए और इस दारुण दुःखको सातापूर्वक सहने लगे, किन्तु इस रोगने उनके लोककल्याण और जनसेवा वृत्तिके मार्गको रोक दिया था।
म्वामी समंतभद्र कायरता पूर्वक आलस्यमें पड़े रहका आना जीवन व्यतीत नही करना चाह थे। वे अपने जज के प्रत्येक क्षणसे जैनधर्मकी प्रभावना और उपके सत्य संदेश में ..) पवित्र बनाना चाहते थे इस मार्ग ६६ व्याधि कटकम्वरूप डोई थी. इतना ही नहीं था किन्तु अब तो 4-4 भयाक कान के कारण शास्त्रोक्त नुनिजीवन बिताने में भी हो वद केरल मात्र नाम र
.. नीय केवल मुवषरे में ही था । ५६ नहीं कि सुनिता धारण करते हुए नि, हलना । नादि जाननमें उन्हें मुनिष नाता, कार अपनी वेदनाकी किंचित् भी चर्चा करते तो गृहस्थों द्वारा उन्हें गरिष्ट मिष्ट स्निग्य भोजन प्राप्त