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________________ DomwwwmWAAINIRMANORAMAANWianRMINATANHAINNAINAMOURIHAWANAMINARINAHam १८६] जैन युग-निर्माता । यदि वह शुष्क हृदय तुझे नहीं चाहता तो उसे जाने दे, अभी तो भनेक गुणशाली राजकुमार इस भूमंडलपर हैं। कुमारी कन्याके लिए वरकी क्या कमी और फिर तेर जैसी सुन्दरी और गुणशीलाकी इच्छा कौन व्यक्ति नहीं करेगा ? तुझे अब पागल नहीं बनना चाहिए और अपने हृदयमें नए आनंदको भरना चाहिए । सखियों के प्रलोभनपूर्ण वाक्य जलसे अग्नको निकालती हुई राजीमती स्थिा होकर बोली-सखिया : तुम आज मुझे यह क्या उपदेश दे रही हो ? मलम पहना है तुम इम समय होशमें नहीं हो । यदि तुम्हे होश होता तो तुम ऐसे शब्दों का प्रयोग मेरे लिए कभी नहीं करतीं। तुम नहीं जाती, यदि सूर्य कभी पश्चिम दिशा में उदित होने लगे और चन्द्र भनी शीतलता त्याग द किन्तु आयकुमारिएं जिस महाप को हृदय वार स्वीकार कर लेती हैं उसके अतिरिक्त फिर किसी पुरुषकी भी आकांक्षा नहीं करती। मैं नेमिकुमारको हृदयस अपना पति स्वीकार कर चुकी हूं, क्या हुआ यदि विवाह वेदोके समक्ष उन्होंने मेरे हाथपर अपना हाथ आरोपित नहीं किया । लेकिन उनका अलुप्त हाथ ती में अपने मस्तक पर रखकर अपनेको महा भाग्यशीला समझ चुकी हूं। क्या हाथपर अपना हाथ रखना ही विवाह है ? मंत्रांक चार अक्षर ही क्या विवाहको जीवन देते हैं ? नहीं, कभी नहीं । हृदय समर्पण ही विवाह है और मैं वह पहिले ही कर चुकी थी। क्या हुआ दुर्भाग्यवश मेरा उनसे संयोग नहीं हो सका । प्रत्यक्षमें व्यवहारिक क्रियाएं नहीं हुई । क्या माता पिता द्वारा कन्यादान करना ही विवाह है ? पार्थिव शरीरदान हीको
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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