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________________ महात्मा रामचन्द्र। [१४१ सफल हुयीं लेकिन गृहरु । जीवन उन्हें भर पसंद नहीं था, वे श्री रामसे आज्ञ लेकर पस्विनी होगई। सताके चले जानेपर श्री रामका जीबन शुष्क बन गया था उनका मब सारा मोह लक्ष्मण मा समाया था। एक दिनकी बात; इन्द्र मामें गम-लक्षाणके अद्भुत स्नेहकी कहानी सुनकर क तिदेव के रक्षण के लिए भाया। भाकर उसने श्री रामके निधनका झूट झुठ समाना। श्री लक्षणको मुनाया, सक्षमणका हृदय श्री गमका निधन सुनकर टूट गया, वे मूर्थित होकर भृतलपर गिर पड़े। उनकी वह मूच् मृत्यु के रूपमें परिहोई । कीर्तिदेवको स्वप्न में भी इस दुर्घटना की आशंका नहीं थी, २६:णको मृतक देख उसके हृदय में भूकंप होगया, उसे अपने कृत्यपा बसा व त्ताप हुना। २६मण पर श्रीरामको हार्दिक स्नेह था, उन्हें पृथ्वी प पहे देखकर उनके स्नेहका बांब टूट पड़ा, लक्ष्मणजीका शरीर मृतक बन चुका था लेकिन श्रीराम से अबतक जीवित ही समझ रहे थे । ने लक्ष्मणको मूर्छित समझकर अनेक प्रयत्नोंसे उनकी मृझै हटानेका उद्योग करने लगे। जनता राम लक्ष्मणके स्नेहको समझती थी, वह यह भी जानती थी कि श्री लक्ष्मणका देहावसान हो चुका है लेकिन मोहमम समको कोई समझा नहीं सका . उनके इस मोहमें सबकी सहानुभूति थी, लेकिन सहानुभूतिने अब दयाका रूप धारण कर लिया था। धीरे २ श्रीगमका यह मोह जनत के कौतूहलकी वस्तु बन गया।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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