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________________ - दयासागर नेमिनाथ । [१७७ नेमिनाथने दयालुतापूर्वक कहा-साम्यो! तुमने यह क्या कहा? उनके विरुद्ध कोई भावाज नहीं उठा सकता ? नहीं, यह गलत है। उठा सक्ता है। पशुओं की यह पुकार उनके खिलाफ भावाज उठ रही है-माममान इस भावाजको सुन रहा है मैं उनकी भावानको सुन रहा हूं। मोड़ो ! इतनी करुणा मई पुकार ! यह रोना ! नहीं मारयी, जब मैं एक मिनट भी नहीं सुन सकता, मेग ग्य उन पशुौके पास ले चलो। सारथीने कहा:-महागज.......... . नेमिनाथने माज्ञाके स्वरसे कहा:-॥ थी ! कुछ मत कहो कुछ मत कहो, मेरा मन बेचैन होरहा है, यह रोना यह चिल्लाना यह पुकार । नहीं सुनी जाती। जल्दी रथ ले चलो मुझे उन शुओंके राम पहुंचाया। सारथीने स्थ बढ़ा दिया, कुमार नेमिनाथ वहां पहंचे जहां पावह पशु बंद थे, उनका विलाप सुनकर उनकी मांखों से आंसू बहन लगे विचारे गरीब पशु बिना अपराधके इस तरह बंद पड़े हैं. उनके बच्चे जंगलमें तड़प रहे होंगे। वह सोचते होंगे मेरी मां मानी होगी । वह भूखके मारे सिपक हे होंगे। उन्हें क्या पता होगा कि वह निर्दय मनुष्योंका भोजन बनाया जायगा. नन्हें क्या पता होगा कि मनुष्य इतना ज्ञानवान, मनुष्य ही विचार और विवेकका दावा वनेवाल। यह मनुष्य ही उनके प्राणों का ग्राहक है । ओड ! ११ रब हरण की अर तो देखो-उसके करुणाकी भिक्षासे भरे हुए भाले दीन नेत्र कैसे मेरी जोर देख रहे हैं । अरेरे । इन गरीब जानवरोंने क्या कसूर किया है, उन्होंने किसीका क्या बिगाड़ा है, मो इनकी इम ताह हत्या की
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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