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योग-शास्त्र
- जैन परंपरा में योग-प्रास्रव दो प्रकार का माना है-१. सकषाय योग-प्रास्रव, और २. अकषाय योग-प्रास्रव । योग-सूत्र में चित्त-वृत्ति के भी क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो भेद किए हैं। जैनागम में कषाय के चार भेद किए हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । और योग-सूत्र में क्लिष्ट चित्त-वृत्ति को भी चार प्रकार का माना है-अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश । जैन परंपरा सर्वप्रथम सकषाय योग के निरोध को और उसके पश्चात् अकषाय योग के निरोध को स्वीकार करती है। यही बात योग-सूत्र में क्लिष्ट और अक्लिष्ट चित्त-वृत्ति के विषय में कही गई है। महर्षि पतंजलि भी पहले क्लिष्ट चित-वृत्ति का निरोध करके फिर क्रमशः अक्लिष्ट चित्त-वृत्ति के निरोध की बात कहते हैं। ___ इस तरह जब हम जैन परंपरा और योग-सूत्र में उल्लिखित योग के अर्थ पर विचार करते हैं, तो दोनों में भिन्नता नहीं, एक रूपता परिलक्षित होती है। अतः समग्र भारतीय चिन्तन की दृष्टि से योग का यह अर्थ समझना चाहिए-“समस्त प्रात्म-शक्तियों का पूर्ण विकास कराने वाली क्रिया, सब आत्म-गुणों को अनावृत्त करने वाली प्रात्माभिमुखी साधना ।" एक पाश्चात्य विचारक ने भी शिक्षा की यही व्याख्या की है।' योग को जन्मभूमि - योग एक आध्यात्मिक साधना है। प्रात्म-विकास की एक प्रक्रिया है। और साधना का द्वार सबके लिए खुला है। दुनिया का प्रत्येक प्राणी अपना प्रात्म-विकास करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है। आध्यात्मिक विकास, प्रात्म-साधना एवं आत्म-चिन्तन पर किसी देश, जाति, वर्ण, वर्ग या धर्म-विशेष का एकाधिपत्य (Monopoly) नहीं है। इसका कारण 1. Education is the barmonious development of all our faculties.
-Lord Avebrine.
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