________________
एक परिशीलन
मोक्ष के साथ संबंध कराने वाली क्रिया को, साधना को ही 'योग' कहते हैं। - जैन-आगम में 'संवर' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह जैनों का एक विशेष पारिभाषिक शब्द है । जैन विचारकों के अतिरिक्त अन्य किसी भी भारतीय विचारक ने इस शब्द का प्रयोग नहीं किया है। 'संवर' शब्द आध्यात्मिक साधना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आस्रव का निरोध करने का नाम संवर है। महर्षि पतंजलि ने योग-सूत्र में चित्त-वृत्ति के निरोध को योग कहा है। इस तरह संवर और योग-दोनों के अर्थ में 'निरोध' शब्द का प्रयोग हुआ है । एक में निरोध के विशेषण के रूप में प्रास्रव का उल्लेख किया है और दूसरे में चित्त-वृत्ति का।
जैनागम में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योग को आस्रव कहा है। इसमें भी मिथ्यात्व, कषाय एवं योग को प्रमुख माना है। अविरति और प्रमाद-कषाय के ही विस्तार मात्र हैं। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि जैनागम में उल्लिखित आस्रव में जो 'योग' शब्द आता है, वह योग परंपरा सम्मत चित्त-वृत्ति के स्थान में है। जैनागम में मन, वचन और कायिक प्रवृत्ति को योग कहा है। इसमें मानसिक प्रवृत्ति तीनों का केन्द्र है । क्योंकि कर्म का बन्ध वचन और काया की प्रवृत्ति से नहीं, बल्कि परिणामों से होता है । इस तरह योग-सूत्र में जिसे चित्त-वृत्ति कहा है, जैन परंपरा में उसे प्रास्रव रूप योग कहा है।
१. निरुद्धासवे (संवरो), उत्तराध्ययन, २६, ११; प्रास्त्रव-निरोधः संवरः,
तत्त्वार्थ सूत्र, ६, १। २. पंच आसवदारा पण्णता, तं जहा–मिच्छत्तं, अविरई, पमायो,
कसाया, जोगा। -समवायोग, समवाय ५. ३. परिणामे बन्ध।
-
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org