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.. एक परिशीलन योग-दर्शन में 'योग' शब्द का उक्त दोनों अर्थों में प्रयोग हुआ है। कुछ विचारकों ने योग का 'जोड़ने' अर्थ में प्रयोग किया है, तो कुछ चिन्तकों ने उसका 'समाधि' अर्थ में भी प्रयोग किया है। किस प्राचार्य ने उसका किस अर्थ में प्रयोग किया है, यह उसकी परिभाषा एवं व्याख्या से स्वतः स्पष्ट हो जाता है। महर्षि पतंजलि ने 'चित्त-वृत्ति के निरोध' को योग कहा है।' बौद्ध विचारकों ने योग का अर्थ 'समाधि' किया है। प्राचार्य हरिभद्र ने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थों में उन सब साधनों को योग कहा है, जिनसे आत्मा की विशुद्धि होती है, कर्म-मल का नाश होता है और उसका मोक्ष के साथ संयोग होता है । २ उपाध्याय यशोविजय जी ने भी योग की यही व्याख्या की है। यशोविजय जी ने कहीं-कहीं पञ्च-समिति और त्रि-गुप्ति को भी श्रेष्ठ योग कहा है। प्राचार्य हरिभद्र के विचार से योग का अर्थ है-धर्म व्यापार । प्राध्यात्मिक भावना और समता का विकास करने वाला, मनोविकारों का क्षय करने वाला तथा मन, वचन और कर्म को संयत रखने वाला धर्म-व्यापार ही श्रेष्ठ योग है। क्योंकि, यह धर्म-व्यापार या आध्यात्मिक साधना प्रात्मा को मोक्ष के साथ संयोजित करती है। योग के अर्थ में एकरूपता
वैदिक विचारधारा में 'योग' शब्द का समाधि अर्थ में प्रयोग हुआ और जैन परंपरा में इसका संयोग-जोड़ने अर्थ में प्रयोग हुआ है। गणितशास्त्र में भी योग का अर्थ-जोड़ना, मिलाना किया है । मनोविज्ञान १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। -पातंजल योग-सूत्र, पा० १, स० २. २. मोक्खेण जोयणानो जोगो। . -योगविशिका, गाथा १.
मोक्षण योजनादेव योगो शत्र निरुच्यते । -द्वात्रिशिका. ४. अध्यात्म भावनाऽऽध्यानं समता वृतिसंक्षयः।
मोक्षण योजनाघोग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम ॥ -योगबिन्दु, ३१.
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