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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका २. अचेलकत्व-वस्त्र, चर्म, वल्कल से अथवा पत्ते आदि से नग्न शरीर को नहीं ढकना, निम्रन्थ और निर्मूषण शरीर का धारण करना अचेलकत्व है।
३. अस्नान-स्नान आदि के त्याग कर देने से जल्ल मल्ल और पसीने से सर्वांग लिप्त हो जाना मुनि के प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम पालन करने रूप, घोर गुणस्वरूप अस्नान है।
४. भूमिशयन-~-किंचित् मात्र से संस्तर से रहित एकान्त स्थान रूप प्रासुक भूमि प्रदेश में दण्डाकार या धनुषाकार शयन करना अथवा एक पखवाड़े से सोना क्षितिशयन है।
५. अदन्तबावन—अंगुली, नख, दांतोन और तृण विशेष के द्वारा, पत्थर या छाल आदि के द्वारा दाँत के मल का शोधन नहीं करना यह संयम की रक्षा रूप अदन्तधावन है।
६. स्थितिभोजन-दीवाल, खंभा आदि का सहारा न लेकर पैरों में आगे-पीछे चार अंगुल प्रमाण का अन्तर रखकर जीव-जन्तु रहित भूमि पर खड़े होकर दोनों हाथों की अंजली बनाकर, तीन स्थानों की भूमि-अपने पैर रखने का स्थान, उच्छिष्ट गिरने का स्थान और परोसने वाले स्थान को देखकर भोजन करना स्थितिभोजन है।
७. एकभक्त-उदय और अस्त के काल में से तीन-तीन घड़ी से रहित मध्यकाल में से एक, दो अथवा तीन मुहुर्त काल में एक बार भोजन करना यह एकभक्त मूलगुण है।
इस प्रकार पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, छह आवश्यक और सात शेष गुण इस प्रकार ५+५+५+६+७=२८ मूलगुण साधु परमेष्ठी के होते हैं।
___ "छेदोवठ्ठावणं होदु माझं" । अन्वयार्थ ( मज्झं) मेरे ( छेदोवट्ठावणं ) छेदोपस्थापना अर्थात् प्रमाद से लगे दोषों का निराकरण होकर पुन: व्रतों की स्थापना ( होदु ) होवे।